Thursday, November 30, 2023

Chamar jati ki safalta ki kahani

Chamar jati ki safalta ki kahani

साथियों चमारों की सफलता के ढेरो किस्से कहानियां मौजूद है आज की इस कड़ी में हमने चमारो की सफलता की एक शानदार कहानी को शामिल किया है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे साथियों यह कहानी चमारों की सफलता में चार चांद लगाने वाली 

BATA कंपनी की कहानी है जिसे

एक चमार जाति के युवक ने शुरू

किया था 

बाटा कंपनी की नींव मध्य यूरोप के चेकोस्लोवाकिया में पड़ी थी। इस कंपनी की शुरुआत साल 1894 में थॉमस बाटा ने की थी। थॉमस बाटा का जन्म एक ऐसे गरीब चमार परिवार में हुआ था जो जूते बनाने का काम करते थे। जब कारोबार चल पड़ा तो उन्होंने कर्ज लेकर इसे और बड़ा बनाने की योजना बनाई।

अपनी कंपनी की शुरुआत की. देश में पहली शू कंपनी स्थापित हुई तो चीजें बदलनी शुरू हो गई. दो साल में देश में बाटा के जूतों की मांग इतनी बढ़ गई कि कंपनी को अपना उत्पादन दोगुना बढ़ाना पड़ा.


भारत में लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि कंपनी के नाम से वह शहर बाटानगर के नाम से पुकारा जाने लगा. साल 1939 तक कंपनी के पास 4 हज़ार के करीब कर्मचारी थे. कंपनी हर हफ्ते 3500 जोड़ी जूते बेचने लगी थी. बाटा टेनिस जूतों को डिजाइन करने वाली पहली कंपनी थी. सफ़ेद कैनवास से बने जूते लोगों को काफ़ी पसंद आए.


टेनिस के जूते स्कूल के लिए इस्तेमाल किए जाने लगे. साल 1980 के दशक में बाटा को खादी और पैरागॉन से कड़ी टक्कर मिलने लगी थी. ऐसे में कंपनी ने विज्ञापन का सहारा लिया और खुद को मार्केट में आगे रखा. कम कीमत, मजबूत और टिकाऊ होने के साथ आकर्षक टैग लाइन ने विदेशी कंपनी होकर ‘दिल है हिन्दुस्तानी’ की मिसाल बनी.


उनमें एक टैगलाइन थी- “टेटनस से सावधान रहें, एक छोटी सी चोट भी खतरनाक साबित हो सकती है, इसलिए जूता पहनें.” इस टैगलाइन के तहत कंपनी ने भारत में जूतों के चलन को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया. इसके अलावा एक और टैगलाइन- “फर्स्ट टू बाटा, देन टू स्कूल” जो काफी लोकप्रिय हुई थी. कंपनी की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह इसका छोटा नाम भी है.


केवल चार अक्षर वाले दो शब्द लोगों की जुबान पर आसानी से आ जाते हैं. आज भारत में बाटा के 1375 रिटेल स्टोर हैं. इनमें 8500 कर्मचारी काम करते हैं. पिछले वर्ष कंपनी ने 5 करोड़ जूते बेचे हैं. मौजूदा समय में करीब 90 देशों में कारोबार चल रहा है. जहां 5000 स्टोर में करीब 30 हज़ार कर्मचारी काम करते हैं. प्रतिदिन 10 लाख से अधिक ग्राहक कंपनी के स्टोर में आते हैं



यह कहानी न तो TATA की है और, ना ही किसी BIRLA

या BAJA की.यह कहानी है BATA की है, हर

भारतीयों को लगता है कि BATA कंपनी भारतीय

कंपनी है लेकिन कभी एहसास भी नहीं हुआ होगा कि 

BATA एक विदेशी कंपनी है और इस भव्य कंपनी की 

स्थापना चमार जाति के TOMAS BATA ने 1894 में

की थी। हैरान परेशान होने की जरूरत नही है।

BATA परिवार चमार जाति से हैं BATA परिवार 8

पीढ़ियों से जूते चप्पल और चमड़े बनाने के कारोबार

से जुड़ा है यानी BATA परिवार 300 वर्ष से महान

और पवित्र कार्य चमड़ों के उत्पादन से जुड़े हुआ है 

BATA का जन्म 1876 में

CZECHOSLOVAKIA के एक छोटे से गांव ZLIN में हुआ था

पूरा परिवार मोची के कार्य से जुड़ा हुआ था इस छोटे से

शहर में BATA परिवार के अलावा बेहतरीन जूते

चप्पल कोई भी नही बना सकता था चमड़े के कार्य में

BATA परिवार का मान सम्मान था।

TOMAS  

1939 बाटा शू कंपनी विकसित करने के लिए कनाडा चले गए, जिसमें एक जूता फैक्ट्री और इंजीनियरिंग प्लांट भी शामिल था, जो एक शहर में केंद्रित था, जिस पर आज भी उनका नाम बटावा है । ओंटारियो. एक और विरासत भारत के कोलकाता में बाटानगर है , जिसमें मूल रूप से जूता कारखाना और लिपिक कर्मचारी रहते थे, 

CZECHOSLOVAKIA चेकोस्लोवाकिया

१ जनवरी १९९३ को यह देश बिना किसी हिंसा के दो अलग राष्ट्रों में बाँट गया जिन्हें चेक गणतंत्र और स्लोवाकिया के नामों से जाना जाता है। विश्व में अन्य देशों के हुए विभाजनों की तुलना में यह बंटवारा इतने कोमल और शांतिपूर्वक ढंग से हुआ था कि इस घटना को इतिहासकार और समीक्षक कभी-कभी 'मख़मली तलाक़' कहते हैं।

इस देश चेकोस्लोवाकिया में चर्मकार को नीच या

अछूत नहीं समझा जाता। उन्हें समाज में बराबरी का

मान सम्मान मिलता था। बल्कि यूरोप अमेरिका में किसी भी

श्रम उत्पादन कार्य से जुड़े लोगों का पुजारी वर्ग से

अधिक मान सम्मान है। घोड़ी पर चढ़ने और मूंछ

रखने पर वहां हत्या नही होती। बराबरी के महान

समाज में TOMAS BATA ने भी अपने परिवार का

पेशा अपनाया और मोची बन गए TOMAS बेहद

सस्ते और अच्छे गुणवत्ता के जूते चप्पल बनाकर

बेचते थे जिनसे उनकी बिक्री ज्यादा होती पर हैं ओर मुनाफा बहुत कम होता था 

TOMAS BATA ने जुते चप्पल निर्माण की कंपनी

खोलनी चाहिए। कंपनी खोलने में आर्थिक सहायता

का काम उनकी माँ ने किया और भाई बहन उनके

सहयोगी बने।

अपने घर के एक कमरे में 1894 में BATA कंपनी की

नींव डाली अच्छे गुणवत्ता के जूते सस्ते दामों में बेचने

के कारण ToMAS BATA को नुकसान हुआ कंपनी

चलाने का गुण सीखने के लिए लंदन में एक जूते की

फैक्टरी में मजदूर बनकर काम किया। मार्कंटिंग,

स्ट्टेटेजी, प्रोडक्शन, डिस्ट्रीब्यूशन और विज्ञापन का

गुण सीखकर उन्होंने दुबारा अपने देश आकर BATA

कंपनी में जान फूंक दी अच्छे गुणवत्ता के जूते चप्पल 

सस्ते दामों में बेचना जारी रखा ज्यादा सेल होने के 

कारण कंपनी को मुनाफा हुआ। उस वक्त अच्छे

गुणवत्ता के वस्तुओं का अर्थ था। महंगे दामों में

बिकने वाली वस्तु जो केवल अमीर आदमी खरीद

सकते थे चमार जाति के काबिल उद्योगपति

TOMAS BATA ने इस धारणा को ध्वस्त कर नई

धारणा गड़ी अच्छे और बेहतरीन गुणवत्ता की वस्तुएं

भी सस्ते दा्मों में मिल सकती है और BATA के जूते

चप्पल इनमें से एक थे।

आज से 100 साल पहले तक जूते हो या चप्पल इसे

अमीरों की पहनने वाली वस्तु समझा जाता था गरीब

तो नंगे पांव ट्रेन में सफर करके बम्बई कलकत्ता में

मजदूरी करने आते थे। TOMAS BATA का सपना

है अमीर हो या गरीब BATA के जूते हर पैर में होने

चाहिए पूरे भारत में फैल कर कंपनी ने अफ्रीका में भी

अपना विस्तार किया जहां कई कंपनियां जाने पर

इसलिए कतराती थीं गरीब देश अफ्रीकी जिसके पास

खाने को नही है वे जूते चप्पल कहां से खरीदेंगे ?

लेकिन TOMAS BATA ने अफ्रीका महाद्वीप के पूरे

देश में सस्ते दामों में जूते चप्पल बेचकर हर गरीब के

पांव में जूते चप्पल पहना दिया। 1932 में TOMAS

BATA की हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु हो गई.उनके

निधन के बाद उनके भाई और उनके पुत्र ने BATA

कंपनी को हर देश में सबकी पसंदीदा कंपनी बना

दिया।

BATA केवल जूते चप्पल का ब्रांड नही, भरोसे का भी

ब्रांड है. चर्मकार TOMAS BATA ने कहा था मुनाफे

के साथ वो उपभोक्ताओं का भरोसा भी कमाना चाहते

हैं BATA आज भी भरोसे का नाम है। अंतिम पंत्ति

TOMAS BATA का जन्म अगर भारत में हुआ होता

तो यहां भेदभाव करने वाला धर्म, जातीय वर्ण

व्यवस्था वाला समाज ToMAS BATA को

उद्योगपति नही केवल मोची बने रहने का अधिकार

देता।

Monday, November 27, 2023

दलित जातिवादी बीहड़ इलाके

दलित जातिवादी बीहड़ इलाके 



दलितों पिछड़ों बहुजनो के महापुरुषों को उनकी खास तिथियों पर ही याद किया जाता है आज महात्मा ज्योतिबा फूले की पुण्य तिथि है इसी अवसर पर आज हम कुछ खास विचारों को आपके साथ साझा करेंगे साथियों दलित महिलाओ के शोषण के लिए जिम्मेदार उच्चवर्ग के पुरुष और महिलों के संबंध में कुछ दलित लेखको ने अपनी लेखनी में क्या कुछ लिखा है और बाबा साहब डा भीम राव अंबेडकर ज्योतिबाफुले के द्वारा दलित महिलाओ के लिए किए गए अथक प्रयासों के विषय में यह वीडियो है इस एक मात्र वीडियो में संपूर्ण जानकारी आपको मिलने जा रही है आपको बस इतना करना है कि इस वीडियो को पूरा जरूर देखे 

साथियों हम जो भी वीडियो लेकर आते है वह पूर्णतः सत्य विचारो और घटनाओं पर आधारित होती है साथियों दलितों की 

 कहानियाँ और जातिवाद के बीहड़ इलाको में दलित महिलाओं के शोषण के सवाल को जातिगत कारणों के आईने में देखा जाय तो वहीं मुख्यधारा की स्त्रीवादियों ने जाति के सवाल को अपने विमर्श का केंद नहीं बनाया है। वहीं दलित स्त्रीवाद जाति व्यवस्था और पितृसत्ता दोनों को स्त्री शोषण की बुनियाद मानता है। 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने जहां कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया, वहीं बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई है। इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे, जिनसे उन्होंने जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने का काम किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें तो मध्यवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। यह दलित साहित्य की बड़ी देन है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार हुआ। इस वीडियो में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जाने वाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। 

भारतीय परिपेक्ष्य में दलित स्त्रीवाद अपने चिंतन का बुनियादी कारख़ाना सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबाराव फुले और डॉ. बी. आर. आंबेडकर के विचारों को मानता हैं। वह फुले और डॉ.आंबेडकर के चिंतन की बुनियाद पर सामाजिक शोषण और जातिवाद के खिलाफ गोलबंद होता है। उन्नीसवीं सदी में फुले दंपति ने स्त्री शिक्षा पर ज़ोर देते हुए स्त्री अधिकारों की प्रबल हिमायत की थी। इसी कड़ी में बीसवीं सदी में डॉ. बाबा साहब आंबेडकर स्त्री शोषण की पड़ताल करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि स्त्री दुर्गति की जिम्मेदार मनुवादी व्यवस्था है। डॉ. आंबेडकर ने स्त्री मुक्ति के लिए एक संवैधानिक खाका तैयार किया था, जिसे इतिहास और कानून में ‘हिंदू कोड बिल’ के नाम से जाना जाता है। बड़ी दिलचस्प बात है कि इस स्त्री मुक्ति बिल का सबसे मुखर विरोध आर्य-महिलाओं ने भी किया था।  


हिंदी साहित्य में दलित स्त्री लेखन ने गंभीर और जरुरी बहसों को जन्म दिया है। दलित लेखिकाओं की उपस्थिति से दलित स्त्री अस्मिता का स्वर विशेषतौर पर उभर कर सामने आया है। दलित स्त्रीवाद को जिन लेखिकाओं ने आकार दिया है, उनमें कौशल पंवार एक चर्चित नाम है। । 

दरअसल, सवर्ण समाज के लोग अपनी जाति श्रेष्ठता के दंभ में दलित समाज को बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं। यहाँ तक दलितों पर अत्याचार करने के मामले में सारी हदे पार कर जाते हैं। कौशल पंवार की ‘दिहाड़ी’ कहानी जाति और सामंती व्यवस्था के जुल्म की दास्तान का मार्मिक राग है। इस कहानी की पात्र तारा है, जिसमें पढ़ने की ललक और चेतना है। उसका परिवार गरीबी और सामाजिक उपेक्षा का शिकार है। इस गरीबी के बावजूद भी तारा के पिता दिहाड़ी मजदूरी कर अपनी बेटी को पढ़ाने का सपना संजोते हैं। पिता के रोकने के बावजूद भी तारा अपनी पढ़ाई छोड़कर दिहाड़ी करने जाती है। ठेकेदार का बेटा तारा को परेशान करता है। यहां तक कि उसे छेड़ने की कई बार कोशिशें भी करता है। तारा इसका विरोध करती है और प्रतिरोध में वह लोहे की गर्म राड को पकड़ लेती है। यह कहानी दिहाड़ी मजदूरी में खटकती दलित स्त्रियों की भयावह स्थिति को भी प्रस्तुत करती है। कहानी सवाल उठाती है कि आजादी के बाद भी दलितों के जीवन में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। उन्हें ऊँच-नीच और जाति के नाम पर अपमानित किया जाता है

कौशल पंवार और उनकी कहानियों का संग्रह “जोहड़ी” के मुख पृष्ठ की तस्वीर

वहीं अपनी ‘वर्दी’ कहानी में कौशल पंवार सामाजिक और जातिगत भेदभाव के शिकार दलितों की पीड़ा का वृतांत कहती हैं। दलित साहित्य के भीतर यह सवाल कई बार उभर कर आया है कि सर्वसमावेशी मूल्यों का दावा करने वाले अध्यापकगण भी जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कौशल पंवार ‘वर्दी’ कहानी में इसी सवाल को उठाती हैं कि शैक्षिक परिसरों में दलित समाज के छात्रों के साथ व्यापक स्तर पर भेदभाव किया जाता है। इस कहानी के पात्र रामसरुप की बेटी का नाम नेहा है। वह जिस स्कूल में पढ़ती है, वहां दलित बच्चों के लिए नीले रंग की और सवर्ण बच्चों के लिए गुलाबी और सफेद रंग की वर्दी है। वर्दी एक समान न होने के कारण दलित समाज के बच्चों को जाति सूचक शब्दों से पुकारा जाता है। नेहा अपने पिता से कहती है कि मेरी वर्दी का रंग नीला है, इसलिए मुझे स्कूल में सहेली ‘चूहडे’ कहकर मुझ पर हंसती हैं, यहां तक कि पानी भी पीने नहीं देती हैं। यह समय की विडंबना कहिए या जरुरत की रामसवरुप अपनी बेटी की वर्दी के लिए मुर्दाघाट से सफेद कफन उठा लाता है। 


जातिवादी मानसिकता के चलते सवर्ण समाज की संवेदनाएं इस कदर निष्ठुर हो चुकी हैं कि वो दलितों के साथ उनके जानवरों को भी हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। कौशल पंवार ‘लच्छो’ कहानी में बताती हैं कि जातिगत श्रेष्ठता के भाव ने मानवीय संवेदनाओं को भी कुंद कर डाला है। इस कहानी के पात्र रामबौत की एक सूअरी है, जिसका नाम लच्छो है। वह गांव के ही एक जमींदार की पराली में जाकर बच्चे जन्म देती है। उसका बच्चा जनना जमींदार को इतना बुरा लगता है कि वह उसके बच्चों पर लाठी से प्रहार कर देता है, जिससे लच्छो के चार नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। इसके बाद वह रामबौत को भी जातिसूचक गलिया देता है। यह कहानी अपने उद्देश्य पर उस समय पहुंचती है, जब रामबौत की बेटी रमा सूअरी को लाते समय उसके स्कूल में पढ़ने वाला सतबीर देख लेता है। रमा जब स्कूल पहुंचती है तब सतबीर उसपर जातिगत टिप्पणियाँ करता है। वह कहता है कि ‘चूहड़ों ने उनके घर के चूल्हों में गंदगी फैला रखी है। इन्हें तो इनके घर के सूअरों, भेड़-बकरियों और मुर्गो के साथ-साथ जलाकर खत्म कर देना चाहिए जैसे गुहाना में किया गया था।’ यह जातिवादी मानसिकता और सवर्ण वर्चस्व ही है, जो जहां दलितों को हिकारत भरी दृष्टि से देखता है और अपने वर्चस्व को क़ायम करने के लिए दलितों के घरों को जलाने की बात करता है।


दलित स्त्रीवाद ने दलित स्त्री के शोषण के सवाल को जातिगत कारणों के आईने में देखा है। वहीं मुख्यधारा की स्त्रीवादियों ने जाति के सवाल को अपने विमर्श का केंद नहीं बनाया है। वहीं दलित स्त्रीवाद जाति व्यवस्था और पितृसत्ता दोनों को स्त्री शोषण की बुनियाद मानता है। यदि ऊँची जातियों की स्त्रियों के शोषण और हिंसा पर नज़र डाली जाए तो पता चलेगा कि उनका शोषण जाति के आधार पर नहीं बल्कि परिवार के वर्चस्व को कायम रखने तथा यौन नियंत्रण के तौर पर देखा गया है। वहीं दलित स्त्रियों के शोषण का सबसे ज्यादा खतरा कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर रहता है। ‘जोहड़ी’ कहानी की बुनियाद इसी विमर्श पर रखी गई है कि दलित स्त्रियों का शोषण कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर किया जाता है। इस कहानी की मुख्य पात्र है बतेरी, जिसके गांव में जमींदारों की तूती बोलती है। गांव के अधिकांश दलित ईट के भट्ठों पर मेहनत मजदूरी करके अपना जीवनयापन करते हैं। ‘जोहड़ी’ गांव की धुरी है। इस सार्वजनिक जोहड़ी के पानी को उपयोग पहले दलित नहीं कर सकते थे। देश में संविधान की रोशनी जैसे फैली दलितों में प्रतिरोध की चेतना विकसित हुई। वे अब सार्वजनिक संपति में हिस्सेदारी के लिए गोलबंद हुए हैं और इसमे सफलता भी मिली। बतेरी जोहड़ी के पानी का इस्तेमाल करने की हिम्मत भी दिखती है। गांव के जमींदार जूट की खेती करते हैं। वे अपनी खेती का सारा काम दलितों से करवाते हैं। जब उनके भठ्ठे और खेतों में दलित स्त्रियां मजदूरी करने जाती हैं तो जमीदार उन्हें कुदृष्टि से देखते हैं। एक दिन बतेरी जमींदार का सण धोने गयी थी। जमींदार उसे घूर रहा था। इसी दौरान बतेरी से जूट साफ करते समय जमींदार के ऊपर गंदा पानी चला गया। जमींदार ने उसे गलिया देते हुए दबोच लिया। बतेरी जमींदार की इस हरकत का माकूल जवाब देती है। बतेरी जिस दिलेरी से जमींदार का प्रतिरोध करती है, वह दलित स्त्री चेतना के प्रस्थान बिंदु की ओर इंगित करता है। दलित स्त्रीवाद जहां ब्राहमणवाद को चुनौती पेश की है, वहीं प्रगितिशीलता का मुखौटा ओढ़े लोगों को बेनकाब करने का काम भी किया है। 


कौशल पांवर की कहानियां दावा करती हैं कि शहर में उच्च शिक्षित लोग भी जातिवादी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये हैं। कौशल ‘स्पीड़ ब्रेकर’ कहानी में इस विमर्श को दिशा देती हैं कि प्रगतिशीलता का दावा करने वाले अपने चाल-चरित्र में जाति और अस्पृश्यता के समर्थक होते हैं। कहानी की पात्र नीना जिस कालेज में पढा़ती है। वहाँ उसके सहकर्मी प्रगतिशील विचारों के हैं। उसी कालेज में सफाई का काम करने वाली सुनेरी के हाथों की बनी चाय उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि सुनेरी दलित समुदाय से आती है। सुनेरी के बहाने से यह कहानी दलित स्त्रियों के साथ हो रहे जातिगत भेदभाव को उजागर करती है। ‘और पानी भींट गया’ कहानी अस्पृश्यता के भयावह मंजर को सामने रखती है। कहानी की नैरेटर के स्कूल में इसलिए हडकंप मच जाता है कि वह एक दिन अपने स्कूल की चपरासी जो कि दलित है, उसकी बोतल का पानी पी लेती है। इन कहानियों के निष्कर्ष बताते हैं कि ब्राह्मणवादी विचार समाज और देश को एकता के सूत्र में बाधने नहीं देता है। इसी विचार के चलते दलितों को अनेक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है।  

साथियों से निवेदन है कि जिन साथियों ने चैनल को subscribe नही किया उनसे अपील है कि आप लोग चैनल को जरूर subscribe करें आपका बहुत धन्यवाद होगा जय भीम साथियों वीडियो देखने के लिए आपका धन्यवाद 

Sunday, November 26, 2023

दलितों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण,ब्राह्मणों की कूटनीति चाल

 दलितों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण,ब्राह्मणों की कूटनीति चाल 

आज की इस वीडियो में दिल थामकर बैठने की जरूरत है आज हम जो विचार लेकर आए है उससे आपकी जिंदगी बदल सकती है आपके अंदर अद्भुत परिवर्तन आ सकता है यदि आप अपनी जिंदगी में बदलाव लाना चाहते है तो यह वीडियो आपके बहुत काम की हो सकती है आगे बढ़ने से पहले आपके प्यारे से हाथो के अंगूठे के स्पर्श से हमे  subscribe वाले बटन पर जाकर एक subscribe भेट स्वरूप दे देना क्योंकि वैसी भी आप लोगो को अपनी मेहनत के पैसों को मनुवादी ब्राह्मणों  को और उनके द्वारा बनाए गए मंदिरो में भेट करने की आदत जो है हम आपसे पैसे नही मांगते और न ही इस काम के कोई पैसे ही लगते है तो आपसे अनुरोध अनुनय विनय एक प्यार सा निवेदन है कि चैनल को सपोर्ट करने के उद्देश्य से एक subscribe भेट स्वरूप जरूर दान में दे 

साथियों से निवेदन है कि वीडियो को लाइक कमेंट और शेयर जरूर कर दे इस वीडियो में देखते है कि कितने लोग ऐसा करते है कितने लोग  चमारों दलितों और बहुजनो की आवाज बने इस चैनल में अपना कितना सहयोग देते है और कितने लोग अपने समाज की फिक्र करते है साथियों ये चैनल कुछ खास विचारों को आप लोगो तक पहुंचाने के उद्देश्य से बनाया गया था इसमें हम पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रहे है क्योंकि आप लोगो का हमे भरपूर प्यार और सहयोग नही मिल रहा है यदि आप चाहते है कि दलितों की आवाज हम जन जन तक पहुंचाए तो इसके लिए हमे आपके सपोर्ट की बेहद जरूरत है ताकि हम आने वाले समय में आपको कुछ खास जानकारियां उपलब्ध करा सके साथियों देर न करते हुए आइए अपनी बात शुरू करते है 

साथियों

मनुवादी अपना रोजगार चलाने के लिए रोज एक नया भगवान बना देते हैं और फिर लोगों में उसके झूठे चमत्कार दिखाते है लोगों को डराते हैं और ढोंग आडम्बर अन्धविश्वास को पूरे जोर शोर से तैयार करके Sc ,st ,OBC के लोगों को सौप देते है फिर सबसे ज्यादा ये लोग ही इनकी मानसिक गुलामी के शिकार होते है। 


अब ये एक नया आटू पाटु स्याम तैयार कर दिया गया है लोग पूरे जी जान से इसको पूजने में जुटे हुए हैं।  । 


लेकिन जब कोई घटना दुर्घटना हो जाती है तो थाना ,हॉस्पिटल,कोर्ट,कचहरी ,पुलिस.कार्यवाही करने आदि में पैसा और वकील ही काम आते हैं । तब ये आटू पाटु स्याम,काम नही आएगा और न कोई मंदिर ,न कोई भगवान , और न कोई देवी देवता ही काम आएगा जो कुछ आपके काम आएगा वह है आपकी मेहनत शिक्षा स्वास्थ्य परिवार पास पड़ोस और अच्छे मित्र और कानून अस्पताल स्कूल आदि 


लेकिन फिर भी लगे रहो ,,इन पाखंडो में  आखिर मेहनत की कमाई को पानी की तरह लुटाना भी तो है तभी तो आप लोग पुरे के पूरे भक्त बन सकते हो। अपनी मेहनत से बच्चो को पढ़ा लिखाकर कोई उच्च अधिकारी बनाने में क्या फायदा होगा। इसके लिए तो स्वर्णों के बच्चे हैं ही जो देश विदेश के ऊंचे ऊंचे स्कूल कालेज में पढ़ते हैं इनके बच्चे ऊँची शिक्षा प्राप्त करके जज, वकील, पीसीएस आईएएस ips, कलेक्टर आदि बन जाते है और देश के  बड़े बड़े पदों पर विराज मान होते है और कोई बड़ा अफसर कोई अधिकारी बन कर आप के बच्चों को गुलाम समझने लगता हैं।

और आप इन्ही के द्वारा रचित पाखंडवाद और अंधविश्वास के चक्कर में पड़कर अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा नही दिला पाते हो जिसकी वजह से उनके हाथों में द्रांति खुरपी  फावड़ा करनी बसोली आदि आ जाती है  और वह एक लेवर बन कर रह जाता है इसी को वह भगवान की कृपया मानकर अपना जीवन जीने लगता है और सारी उम्र अपने मां बाप को कोसने लगता है कि हमारे माता पिता ने हमे स्कूल में भेज दिए होते तो आज ये दिन न देखने को मिलते आज हम ये मजबूरी में मजदूरी न करते इसके बाद यें ही लोग सब कुछ भूलकर  फिर से अपने बच्चो को पाखंडवाद अंधिश्वास के अंधेरे धंधे में धकेलने लग जाते है बात इनकी तो जो है

 वो तो है ही लेकिन जो लोग पढ़ लिखकर नौकरी पैसे से जुड़ जाते है वो लोग भी पाखंडवाद और अंधविश्वास को अपने कर कमलों के द्वारा बढ़ावा देने लगते है 

सबसे ज्यादा गरीबी अशिक्षा ही इसकी मुख्य वजह है लेकिन यहां मैं कहना चाहूंगा कि हमारे इन वर्गों के पढ़े लिखे लोग भी कुछ कम नहीं है पढ़ा लिखा या शिक्षित वो ही होता है जो सही गलत की पहचान करके उस मार्ग पर चले और गलत रास्ते का तुरंत खंडन करे यहां मैं अपने कुछ जानकारों को शामिल करना चाहूंगा  मेरे एक मित्र advocat साहब है जिसे वकील भी बोला जाता है वो तिलक धारी के नाम से जाने जाते है ये साहब उत्तराखंड की कोर्ट में बैठते है जनाब दलित है रुको जरा दलित तो कई जातियां है मैं बात कर रहा हूं चमार जाति के इन जनाब ने तो सारे के सारे काल्पनिक देवी देवताओं को बढ़ावा देने का काम किया है 

रोज घर से ऐसे निकलते जैसे मानो कोई ब्राह्मण पांडे पुजारी जा रहा हो मैने इनसे एक बार पूछ लिया कि वकील साहेब ये आपका वेश भूषा  सही नही है तो वो बोले कि भाई जैसा देश वैसा भेष हम यदि अपनी जाति का जिक्र करेंगे तो खाली के खाली बैठे रहेंगे हम कुछ भी कमा नही पाएंगे इसलिए हमे ऐसा करना पड़ता है हमने कहा कि तुम्हारे पढ़ लिखने का क्या फायदा हुआ जो आप इस डर की जिंदगी से आज तक बाहर नहीं निकल पा रहे हो साथियों आपको एक खास बात और बता दूं मेरे साद्दू भाई भी किसी से कम नहीं है डॉक्टरी के पैसे से जुड़े है थाली ताली जमके पीटी जनाब ने और  सुबह तीन घंटे जमके पूजा पाठ आरती आदि करते है इनकी दिन की शुरुआत ही अंधिश्वाश और पूजा पाठ से होती है ये जनाब भूल गए कि ढाई हजार सालों की गुलामी को दूर करने वाले बाबा साहब तैतीस करोड़ देवी देवताओं पर भारी पड़े थे जिनकी वजह से आप पढ़ लिखकर docter vakil or अन्य व्यवासय नौकरियों आदि में गए हो लेकिन आज भी नौकरी वालो से पूछो की उनका कितना शोषण होता है और ये शोषण तब तक होता रहेगा जब तक इन देवी देवताओं के चक्करों में पड़े रहोगे आस्था बुद्ध में रखो आस्था संत रविदास जी में रखो आस्था कांशीराम में रखो आस्था Ambedkar में रखो आस्था बहुजनों के महापुरुषों में रखो जिनके बलिदान कभी भी नही भुलाए जा सकते उन्होंने खुद को समाज हित में इस मनुवादी विचारधारा का जमके विरोध किया था और आपके लिए एक रास्ता बनाया था विज्ञान का तथ्य आधारित जीवन सैली का जो हमेशा सत्य के पथ पर ले जाता है साथियों आज भी 

देश आजाद होने के 77 वर्षो बाद भी आप अपनी जाति को किसी को बताने की हिम्मत नहीं रखते जहां भी जाते हो अपनी जाति का नाम नहीं बता सकते हो उसे छुपाते हो कारण आपके अंदर ढाई हजार साल तक का डर पीढ़ी दर पीढ़ी समाया हुआ है जिसे अनुवानसिकता का नियम कहा जा सकता है जिसे आप बड़े बुजुर्को की वजह से ढोते आ रहे हो ये तब तक आपके भीतर रहेगा जब तक आपके अंदर डर बना रहेगा और डर तब तक बना रहेगा जब तक की आप खुद और अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को इस डर से बाहर नहीं निकालोगे

 साथियों तब तक यह डर आपके भीतर से नही निकलेगा जब तक कि आप 

खुद को और अपने बच्चों को इन नकली झूठे भगवानो के चंगुल में अच्छी तरह  फांसे रखोगे । जब तक आप इन देवी देवताओं को अपने मानते रहोगे और इन्हे अपने घरों में बसाए रखोगे । 


और समय समय पर गिरगिट की तरह बदलते रहोगे  ,जब जब नवरात्रि आएगी तब तब  जय माता जय माता, जब जब दशहरा आये तब तब जय श्री राम ,जब दीवाली आये, तो जय लक्ष्मी जी गणेश ,जब नोमी आये तो जय कृष्ण ,जय  जाहर पीर, हनुमान जयंती आये तो जय हनुमान ,जय भोले बम बम भोले आदि बोलते रहोगे और ब्राह्मण द्वारा बताए रास्ते पर चलते रहोगे तब तक आपका विनाश होना तय है क्योंकि ब्राह्मण कभी नहीं चाहेगा कि आप इस रास्ते को छोड़ दो क्योंकि यहां ब्राह्मण की रोजी रोटी का सवाल है उसकी तरक्की का सवाल है वो बैठे बिठाए सुख भोगता रहेगा उसके बच्चे मठाधीशों के मठाधीश बनेंगे विदेशों से अच्छी शिक्षा ग्रहण करके उच्च अधिकारी बनेंगे और आपके पैसे का स्तेमाल करके आपको गुलाम बनाएंगे सदियों से आप और हम पर शासन करते आए है और इसी तरह करते रहेंगे इसका सीधा सा कारण है आपकी मेहनत से कमाई गई दौलत को आपके द्वारा ब्रहणो को भेट में देना ही उनकी तरक्की का मुख्य कारण है और आपके ऊपर अत्याचार और शोषण का कारण भी ये ही है 

साथियों यहां मैं दिल से कहना चाहता है जरा आप भी गंभीरता से जरूर समझना  एक सवाल आप लोगो से है कितने सवर्णों के घरों में अंबेडकर रविदास बुद्ध ज्योतिबा फूले सावित्री बाई पेरियार रामा स्वामी आदि बहुजानो के महापुरुषों की तस्वीर लगी देखी है और वो लोग 

हमारे कौन से पर्व यानि त्योहार को मनाते है क्या कोई बता सकता है और अपने घरों में ज़रा झांक कर तो देखो कि इन देवी देवताओं ने जिन्हे आप भगवान मानते हो उन्ही देवी देवताओं ने भारत के बहुजानों के महापुरुषों की हत्या की थी यें हमारे लोगो के हत्यारे है इन्ही लोगो ने हमारे समाज के लोगो की हत्याएं की थी और उन्ही को हम अपने घरों में स्थान देकर पूजने में लगे है और इन देवी देवताओं के  निर्माणकर्ता धर्ताओं को अपनी गाढ़ी कमाई का हिस्सा उनकी तिजोरियों को भरने में खुशी खुशी दे आते है 

उसके लिए तो आप लोगों का खून नहीं खोलता । पर यदि इन पाखंडो के खिलाफ हम जैसे कुछ बोल देते हैं। 

तो मानो धरती जैसे फट गई हो आसमान जैसे नीचे गिर गया हो ब्राह्मण कुछ विरोध करे न करे पर सबसे पहले sc st obc ही सबसे पहले। विरोध करना शुरू कर देता है कि हमारी आस्था को ठेस पहुंचाई है

 इस आस्था नमक गंदी सोच ने ही दलितों को सदियों से गुलाम 

बनाके रखा हैं अब भी समय है आस्था ही रखनी है तो बहुजनो के बहुतेरे महा पुरुष है उनमें आस्था खूब रखो

और अपने बच्चो को भी आस्था में सामिल करो लेकिन खुद के लिए और समाज के लिए अपने बच्चो को जरूर शिक्षित करों बाबा साहेब ने कहा है कि आधी रोटी खाओ अपने बच्चो को शिक्षा जरूर दिलाओ शिक्षित बनो संघर्ष करो संघटित रहो 

प्यारे साथियों इस वीडियो में इतना ही है आप सभी का वीडियो देखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

Saturday, November 25, 2023

गांव में जिंदगी भर चमार बने रहते आप बीती

 गांव में जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं”


गांव में जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं”,

प्यारे साथियों जय भीम नमस्कार साथियों चमार शब्द एक ऐसा शब्द है जो हिंदूवादी पाखंडियों की गले की फांस है जिस प्रकार मुंह में फसी हड्डी न तो गले से नीचे ही उतरती और न ही बाहर निकलती ठीक कुछ कुछ चमार शब्द है जो इन लोगो की आंखों में नही सुहाता है यह शब्द लगभग अधिकांश जातियों की आंखों  में चुभता है और इस शब्द के चलते ही हमारे समाज यानि चमार समाज का हमेशा से शोषण हुआ है मजदूरी करने गए मजदूर को दिन भर काम कराने के बावजूद उसे उसकी मेहनत का उचित दाम नहीं मिलता उपर से उसे डराया धमकाया जाता रहा है गाली तो प्रसाद के रूप में मिलती ही रहती है जमींदार चाहे obc से रहे हो या बनिया ब्राह्मण रहा हो सबको समझना चाहिए की किसी की मजबूरी का फायदा उठाना कहां तक जायज है दरअसल चमार समाज हजारों वर्षो से शिक्षा और संपति से वंचित रखा गया है न तो उसे शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था और न ही संपति रखने का अधिकार था मनुस्मृति के विधान कुछ ऐसे ही थे आज भी कुछ हिंदू धर्म के ठेकेदारों को संविधान रास नहीं आ रहा है वो लोग आज भी चाहते है कि देश संविधान से न चलाकर मनुस्मृति से ही चलाया जाए अब उन हिंदू धर्म के ठेकेदारों को कौन समझाए कि आज हिंदू धर्म का धरती पर कहीं नाम बच भी रहा है तो वो केवल और केवल चमारों की वजह से बच रहा है क्योंकि चमार समाज ही एक मात्र देश का समाज है जिसने कभी भी मुस्लिम धर्म को स्वीकार नहीं किया अगर कही चमार समाज मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया होता तो आज हिंदू और हिंदू धर्म के  ठेकेदार अल्पसंख्यक बनकर रह जाते 

आज देश में अगर दबा कुचला धर्म कोई होता तो वो हिंदू धर्म ही होता । इसका जीता जागत उदाहरण संत गुरु रविदास की वाणियों में सुनने को मिल जाता है 

साथियों आइए बिहार के सारंग जिले में चमारों की एक घटना का जिक्र हमने आज की इस कहानी में सामिल किया है साथियों क्या बिहार और क्या up ये तो देश के कोने कोने में चमारों के साथ होता आया है और आज भी हो रहा है मैने तो स्वयं देखा है आइए शुरू करते है साथियों जानकारी अच्छी लगे तो वीडियो को लाइक और ज्यादा से ज्यादा लोगो को शेयर जरूर करे और जिन साथियों ने आपके अपने चैनल को अभी तक subscribe नहीं किया तो चैनल को कृपया करके जरूर subscribe कर ले मित्रों 

आपका बहुत धन्यवाद होगा आइए कहानी को आगे बढ़ाते है 


बिहार के सारण जिले की अपनी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान है। वजह हैं लोक कलाकार और रंगकर्मी भिखारी ठाकुर। बिहार के चर्चित मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव का यह राजनीतिक क्षेत्र रहा है। इसी सारण जिले में एक गांव है अफौर। जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर भूमिहार और ब्राह्मण बहुल अफौर गांव में चमारों की भी ठीक-ठाक आबादी है।


चमारों की बस्ती के ठीक सामने से पक्की सड़क गुजरती है। लेकिन उनके दरवाजों तक वो सड़क नहीं जाती, बल्कि उन्हें मुंह चिढ़ाते सीधी निकल जाती है। हम यहां पहुंचे तो सबसे पहले गरजू राम से टकराएं। वह पास के ही नैनी गांव के रहने वाले हैं। उनकी बेटी की शादी इसी टोले के अशर्फी दास के सबसे बड़े बेटे संजीव कुमार दास से हुई है। गरजू राम फौज से रिटायर हैं। अपनी बेटी से मिलने आए थे। हमने उनसे पूछा कि इस इलाके में दलितों की जिंदगी कितनी बदली है?


गरजू राम मानते हैं कि हमलोगों की स्थिति बहुत सुधरी है। उनका कहना है कि पिछले 50 सालों में और अब की स्थिति में बहुत फर्क है। बताते हैं कि पहले मिट्टी के घर थे, अब ज्यादातर लोगों के घर ईंट के छतदार बन गए हैं। सड़कें भी कमोबेश पहुंची है। बिजली भी मिल रही है और पानी भी। यानी कुल मिलाकर स्थिति बदल रही है।

हालांकि गरजू राम यह जोड़ना नहीं भूलते की बिजली पानी के अलावा बाकी चीजें लोगों ने अपनी मेहनत से हासिल की है।


इसी बस्ती में किशोर राम भी रहते हैं। लंबे वक्त तक कलकत्ता के जूट मिल में काम करने वाले किशोर राम रिटायर होकर वापस गांव आ चुके हैं। हाथ का इशारा करते हुए बताते हैं कि जब मैं छोटा था तो यहीं पास में ही हमारे बाप-दादा मरे हुए जानवरों की खाल उतारते थे। बहुत गरीबी का वक्त था। कई बार वही मांस बस्ती के हर घर में बनता था, जिससे हमारा पेट भरता था। लेकिन अब चीजें काफी बदल गई हैं। अब हमारी बस्ती में कोई यह काम नहीं करता।


 तो आखिर इससे निकले कैसे? उप मुखिया बलदेव दास इसका श्रेय अशर्फी दास को देते हैं। अशर्फी दास के पिता सरयू दास भी कोलकाता के जूट मिल में लंबे समय तक काम करते रहे। सरयू दास के पांच बेटे और दो बेटियां थी। अशर्फी दास भाईयों में चौथे नंबर के बेटे थे। बलदेव दास कहते हैं- अशर्फी दास हमारे टोले के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे। ग्रेजुएट थे। हम साथ ही बड़े हुए। वह जागरूक थे। छपरा शहर में जगदम कॉलेज में पढ़ने जाते थे, तो उनको सही गलत की जानकारी थी। घर-घर में घूमकर सबको समझाते थे। कई बार मरे जानवरों का जो मांस पकता था, वो बर्तन ही फेंक देते थे। उन्होंने बहुत समझाया, उससे बाद में लोगों को समझ में आने लगा कि यह गलत काम है।

हमें यहीं अशर्फी दास के भाई नागेश्वर दास जिसे सभी नगेसर कहते हैं, वह मिले। नागेश्वर दास अपने बड़े भाई को याद करते हुए पहले रुआसे हो जाते हैं। कहते हैं कि भईया अब इस दुनिया में नहीं रहे। हालांकि अगले ही पल खुद को संभालते हुए कहते हैं कि भईया काफी समझदार थे। उनकी कोशिशों से हमारा टोला काफी बदला। उनका एक प्रभाव था। छोटे-बड़े सभी लोग उनका लिहाज करते थे, इसलिए सभी उनकी बात मानते थे।


 नागेश्वर दास की छह बेटियां और एक बेटा है। वह खुद मजदूरी किया करते थे। अब शरीर कमजोर है तो मजदूरी नहीं कर पाते। गाय पाल रखी है, उसकी देखभाल में और थोड़ा-बहुत खेती में समय देते हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या गांव के बड़े लोग मजदूरी के पूरे पैसे देते हैं? नागेश्वर कहते हैं, ‘पहले जोर-जबरदस्ती थी, पूरे पैसे नहीं मिलते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।’

यह बदलाव क्यों और कैसे आया, इसकी एक झलक टोले के दूसरे लोगों के चेहरे देखकर समझ में आ गया। एक साथ कई युवा बैठे बातें कर रहे थे। साफ-सुथरे कपड़े पहने। दाढ़ी बनी हुई। कईयों के हाथों में घड़ी और एंड्रायड  फोन भी थे। पता चला कि वो सब बाहर रहते हैं और कमाते हैं। छठ के त्यौहार में घर आए हैं। इन युवाओं में एक राजेश कुमार दास भी थे, जो पिछले 15 सालों से हैदराबाद की किसी कंपनी में काम करते हैं। मैंने गांव छोड़ने की वजह पूछी।


 राजेश बोल पड़े- क्या है यहां? यहां रहते तो गरीबी में पड़े रहते। बाहर जाकर आदमी बन गए। हालांकि उनको गांव-घर छोड़ने का दुख भी है। बोले, घरवाली और बच्चे यहीं रहते हैं। कौन नहीं चाहता अपने परिवार के साथ रहना, अपने बच्चों को बड़ा होते देखना। लेकिन अगर हमें इज्जत से जीना है तो हमारे पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है। यहां जिंदगी भर चमार बने रहतें, बाहर लोग हमें नाम से बुलाते हैं।

लेकिन इसी टोले में किसुन और भगेसर की जिंदगी आज भी नहीं बदली। परिवार की जो हालत तीन दशक पहले थी, वही आज भी है। वजह, यह परिवार न तो बाहर कमाने निकल पाया, न ही बच्चों को पढ़ा पाया। नतीजा यह हुआ कि गांव के कुछ सामंत परिवारों के घर की चाकरी करने में पहले खुद की जिंदगी होम हुई, अब बच्चों की हो रही है। और यह सिर्फ इन दो घरों का मसला नहीं है, बल्कि शिक्षा के मामले में कई घरों की कहानी यही है।


 अशर्फी दास जिनको इस टोले से कुछ कुरितियां दूर करने का श्रेय जाता है, वह सिविल कोर्ट की सरकारी नौकरी में चले गए थे। उनके सभी बच्चे पढ़कर आगे बढ़ गए। लेकिन बाकी सब यहीं रह गए। किसी दूसरे परिवार का कोई बच्चा न तो उच्च शिक्षा हासिल कर सका, न ही सरकारी नौकरी में ही जा सका। पढ़ाई के नाम पर टोले के बाकी परिवारों के बच्चे 10वीं तक आते-आते हांफने लगते हैं। 15 साल की उम्र में ही ये अपना ठिकाना दिल्ली, गुजरात या फिर हरियाणा के किसी शहर को बना लेते हैं। फिर उनकी बाकी की जिंदगी वहीं कटती है। गांव बस त्योहार और शादियों में आना होता है।

लेकिन बाहर की दुनिया देखने से अब उनमें चेतना आ रही है। सोशल मीडिया पर वह अपना इतिहास ढूंढ़ रहे हैं। यही वजह है कि अब टोले में सरस्वती पूजा की जगह रविदास जयंती और अंबेडकर जयंती मनाई जाने लगी है। नागेश्वर के बेटे विक्की जो ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं, का कहना है कि- अब हमलोग सही गलत समझने लगे हैं। इसके बावजूद जाति की वजह से हमें कई बार ताने सुनने पड़ते हैं। लेकिन अब गांव का कोई बड़ी जात का आदमी जाति के नाम पर हमें अपमानित करने की कोशिश करता है तो हम मुंहतोड़ जवाब देते हैं। हम समझ गए हैं कि बेहतर शिक्षा के जरिये अच्छे पैसे कमाकर हम इस स्थिति से निकल सकते हैं। मेरी उम्र के सभी बच्चे पढ़ रहे हैं और बेहतर भविष्य के सपने देखते हैं।

विक्की की यह बात एक उम्मीद देती है कि नई पीढ़ी का भविष्य बेहतर होगा। लेकिन यह मजह अफौर के इस टोले की हकीकत है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चमारों की बस्ती की कहानी अलग है। हर टोले को अशर्फी दास जैसे एक नायक की जरूरत है। साथियों इस वीडियो में इतना ही है वीडियो सुनने के लिए आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया जय भीम नमस्कार साथियों 


Thursday, November 23, 2023

लाखन चमार और ठाकुरों की कहानी


लाखन चमार और ठाकुरों की कहानी

 प्यारे साथियों जय भीम नमस्कार आज की इस कहानी में एक ठाकुर जिसके यहां कोई संतान न होती थी किसी तरह से एक बेटा पैदा हो भी गया था तो वह पैदा होते ही कुछ समय के बाद मर जाता है वही दूसरी तरफ लाखन चमार के घर भी उसी दिन एक बेटा पैदा हुआ था बच्चा पैदा होने के बाद लाखन चमार की पत्नी की भी मृत्यु हो जाती है तब उस स्थिति में वैदराज ने क्या हल निकाला आप लाखन चमार और ठाकुर की इस कहानी में देख सकते है कि दयाभाव की भावना ठकुरो में होती है या फिर चमारों में होती है यह कहानी बेहद शानदार कहानी है साथियों आप इस कहानी को पूरा जरूर सुने प्यारे साथियों आइए कहानी को शुरू करते है 

ठाकुर बोला कि क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता, वैदराज…। ठाकुर हाथ मलते हुए खड़े थे वैदराज के सामने—‘पहले तो बच्चा ही नहीं होता था। ठकुराइन ने जब बहुत टोना-टोटका किया तो यह लड़का पैदा हुआ…मगर देखता हूं कि भाग्य ही खोटा है, वैदराज बोला ‘टोने-टोटके से बच्चे पैदा होने लगे तो, फिर कोई निःसंतान न रह जाए, ठाकुर साहब! देने वाला भगवान है। वह नहीं चाहेगा तो टोना-टोटका, जन्तर मंत्र-ताबीज, झाड़ -फूंक सब व्यर्थ हो जाएंगे। पूर्वजन्म के शुभ-अशुभ पर यह सुख-दुख निर्भर करता है खैर—। आज कितने दिन हुए लड़का पैदा हुए?’ पूछा वैदराज ने।


‘पांच दिन—।’ ठाकुर बोले—‘जब से हुआ है, तब से ठकुराइन की हालत बहुत खराब हो रही है।’


कहे देता ‘हूं…वेदराज।यह सुनकर ’ गंभीर हो गए वैदराज!


‘मैं चाहता हूं वैदराज कि ठकुराइन और बच्चा दोनों बच जाएं। बड़ी मुश्किल से यह बच्चा पैदा हुआ है, अगर वह भी मर गया तो मैं कहीं का न रहूंगा।’


वैदराज चुप चाप खड़े सुन रहे थे । वेदराज सोचने लगे —‘आज ठाकुर का बच्चा और उसकी स्त्री बीमार हैं तो ये हाथ बांधकर मेरे सामने  गिड़गिड़ा रहे है , परंतु एक दिन वह था, जबकि बेघर, बेसहारा होकर मैं और मेरी स्त्री और तीन साल के बच्चे को लेकर दाढ़ीराम गांव में आए थे तो इसी ठाकुर ने हमें बहुत दुत्कार फटकार लगाई थी ।उस दिन  पानी बरस रहा था। वैदराज निस्सहाय थे। मेरा लड़का बहुत बीमार था। एक रात के लिए आश्रय मांगने जब वैदराज ठाकुर के पास गए थे, तब उन्होंने निर्दयता-पूर्वक इंकार कर दिया था। अधिक विनती करने पर लठैतों से धक्के दिलाकर निकलवा दिया था, यही था वह ठाकुर!’


सोचते हुए वैदराज ने कहा—


‘जरा ठहरिए। मैं अभी आता हूं—।’ कहते हुए वैदराज घर के भीतर चले गए। जाकर अपनी स्त्री से बोले—‘ठाकुर की स्त्री और उनका बच्चा बीमार है, बुलाने आए हैं।’


‘तुम भूल गए पिछली बातें…?’ उनकी स्त्री ने कहा—‘यही वह ठाकुर है, जिसने एक रात के लिए आश्रय देने की दया भी न दिखाई थी। रात भर हम लोग पानी में भीगते हुए एक पेड़ के नीचे पड़े रहे। हमारा बच्चा तड़प-तड़पकर चल बसा—वहीं ठाकुर है न ये!’

जाऊं। या नहीं?’ वैदराज ने पूछा।


‘कोई उनके दबैल तो हम लोग हैं नहीं। भला हो बेचारे लाखन चमार का, जिसने हमें अपने यहां जगह दी। जब जब तुम्हारी वैदगिरी चमक गईं है तो आए हैं तुम्हें बुलाने, कमीना कहीं का।’


वैदराज सिर नीचा किए हुए बाहर जाने लगे।


‘सुनो तो—।’ रोका उनकी स्त्री ने—‘देखो, ठकुराइन और बच्चे ने तो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है? जाओ, देख आओ।’


‘अच्छी बात है।’ वैदराज बाहर आए। ठाकुर से बोले—‘चलिए।’ ठकुराइन बुखार में बुत बनी पड़ीं थी। उनका हिलना-डुलना भी मुहाल था। वैदराज ने नाड़ी देखी, दवा दी।


इसके बाद नवजात शिशु की नाड़ी देखी।


सहसा उनका चेहरा गम्भीर हो गया। वे बाहर आए। ठाकुर भी उनके पीछे-पीछे आए।


‘यह खत्म है, ठाकुर! बच्चा दो-चार घंटों का और मेहमान है ’ वैदराज बोले।


‘ऐसा न कहो, वैदराज! कोई जतन करो।’ ठाकुर एक असहाय व्यक्ति की तरह गिड़गिड़ाते हुए बोले।


दिन भर वैदराज ठाकुर की हवेली पर ही रहे। ठकुराइन की दशा तो कुछ सुधरी, मगर बच्चे की दशा खराब होती गईं। शाम होते-होते उसकी उल्टी सांस चलने लगी और आधे घंटे में ही सब कुछ समाप्त हो गया—अब जान नहीं है। ठाकुर!’ वैदराज ने कहा और बच्चे की लाश जमीन पर लिटा दी।


ठाकुर की बूढ़ी माता दूसरे कमरे में जाकर जोर-जोर से रोने लगीं। बीमार ठकुराइन जोरों से चीखकर बेहोश हो गईं।


ठाकुर ठकुराइन की हालत देखकर घबड़ा उठे। वैदराज ने ठकुराइन की नाड़ी पकड़ी। उस समय कमरे में सिवा ठाकुर और वैदराज के कोई न था।


‘ठाकुर बोला 


‘क्या है वैदराज—बोलो वैदराज क्या हुआ है?’

उसकी भी कोई आशा नहीं, ठाकुर!’


‘मैं तबाह हो जाऊंगा, वैदराज!’ रो पड़े ठाकुर—‘बच्चो तो गयो ही, कम-से-कम ठकुराइन को तो बचाई लो, वैदराज!’


‘कोई उपाय नहीं ठाकुर! इन्हें बच्चे की मौत से बहुत सदमा पहुंचा है।’


‘कुछ तो करो वैदराज!’


वैदराज को हंसी आ रही थी उस निर्मम पुरुष की आंखों में आंसू देखकर, जिसने एक दिन लठैतों द्वारा उनका असहाय अपमान कर उन्हें घर से निकलवा दिया था।

ठकुराइन के बचने का केवल एक उपाय है, ठाकुर!’


‘कौन-सा वैदराज?’


‘यही बच्चा यदि जिंदा हो जाए।’


‘यह कैसे हो सकता है, वैदराज?’


‘यह कहो कि क्या नहीं हो सकता?’


‘तो, फिर देर क्यों कर रहे हो जल्दी बताओ न जल्दी से कोई उपाय खोजो 


उपाय तो है ठाकुर ‘शायद आप उसे मंजूर न करें…।’


‘कहो तो, वैदराज! ठकुराइन की जान बचाने के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूं।’


‘आज चार दिन हुए लाखन चमार की स्त्री को बच्चा हुआ था। बच्चा होते ही वह मर गईं? उसका बच्चा अब तक मेरी दवा-दारू से जिंदा है। उस बच्चे को ठकुराइन की बगल में लिटाकर, इस मृत बच्चे को चुपचाप हटा दिया जाए। होश आने पर बच्चे को जीवित पाकर, उनका गिरा स्वास्थ्य शीघ्रता से सुधरने लगेगा।’

‘यह क्या कहते हो, वैदराज? भला चमार का लड़का—हम अपने घर में कैसे पाल सकते है ’


‘अपने और पराये का विचार छोड़ो, ठकुराइन की जान बचाओ। मैंने लाखन के बच्चे को देखा है, खूब गोरा है, ठकुराइन जान भी न सकेंगी कि यह दूसरा बच्चा है।’


‘मगर वेदराज क्या लाखन चमार इसे मंजूर करेगा?’


‘इसका जिम्मा मेरा रहा ठाकुर । वह मेरा कहना कभी टाल नहीं सकता और आप यह भी विश्वास रखें कि वह यह भेद भी वो  किसी के सामने  नहीं खोलेगा।’


सोचते हुए ठाकुर धीरे से बोले, ‘ठीक है वैदराज! परंतु जिन्दगी भर चमार के लड़के को अपना ही लड़का कहना पड़ेगा।’


जीवन भर का ‘आगा-पीछा न करो, ठाकुर! इस समय ठकुराइन के जीवन मृत्यु का प्रश्न है।’


‘अच्छा जाओ, मुझे मंजूर है।’ ठाकुर ने कहा और सिर पकड़कर बेहोश ठकुराइन की बगल में आकर बैठ गए।


आधे घंटे बाद—


वैदराज लौटे। उनके पीछे लाखन चमार हाथों पर एक गोरा नवजात शिशु लिए खड़ा था।


ठाकुर ने उतावली के साथ बच्चे को गोद में ले लिया, गौर से देखा और देखकर आश्चर्यचकित मुद्रा में बोल उठे—‘अरे, यह तो एकदम इसी का प्रतिरूप है, वैदराज—जरा भी अंतर नहीं है, बिल्कुल वैसा ही है।’


वैदराज ने लाखन के हाथों पर ठाकुर का मृत शिशु रख दिया और बोले—‘इसे ले जाकर चुपके से कहीं गाड़ आओ, समझे! किसी को इस बात का पता न लगे।’

बेचारा लाखन एक जीवित शिशु को लेकर अंदर आया था और अब एक मृत शिशु को लेकर चुपके से बाहर जा रहा है। सारा कार्य अत्यंत गुप्त रीति से हुआ। इस भेद को जानने वाले केवल तीन व्यक्ति थे—ठाकुर, वैदराज एवं लाखन चमार।


ठाकुर ने शिशु को बेहोश ठकुराइन की बगल में लिटा दिया। बच्चा स्तन ढूंढ़ने लगा। न पाकर जोर-जोर से रोने लगा। ठाकुर की अम्मा दूसरे कमरे से दौड़ी हुई आयीं।


‘बच्चा बेहोश हो गया था अम्मा, वैदराज की दवा से होश में आ गया है।’ ठाकुर ने बात बना दी।


ठकुराइन-अम्मा हर्ष से गदगद हो गयीं। उसी समय बेहोश ठकुराइन ने भी आंखें खोल दीं।


दवा होने लगी। शीघ्रता से ठकुराइन स्वस्थ होने लगीं। दो साल बाद लाखन चमार भी इस दुनिया से चल बसा। अब उस भेद को जानने वाले केवल दो ही लोग बचे  हैं—ठाकुर और वैदराज!


यह आज से बीस साल पहले की घटना थी।


बेचारा आलोक—। लाखन चमार का बेटा!साथियों यह कहानी आपको कैसी लगी हमे कमेंट करके जरूर बताना एक लाइक और वीडियो। को ज्यादा ज्यादा शेयर जरूर कर दे साथियों कृपया चैनल को भी subscribe जरूर करें 

साथियों इस वीडियो में इतना ही  वीडियो देखने के लिए आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया जय भीम नमस्कार धनयवाद 

साथियों 

Wednesday, November 22, 2023

दलित वीरांगना झलकारी बाई की सत्य घटना

 दलित वीरांगना झलकारी बाई की सत्य घटना

प्यारे साथियों नमस्कार साथियों हमारे देश भारत में सदियों से दलितों की वीरता और उनके बलिदानों को  इस जातिवादी वर्ण व्यवस्था ने हमेशा से नजर अंदाज किया देश की आजादी की बात हो या फिर राजे रजवाड़ों की सब जगह दलितों को इतिहास के पन्नो से गायब कर दिया गया है ऐसी ही एक कहानी दलित महिला वीरांगना झलकारी बाई के बलिदान और वीरता  की भी है  जिसको इतिहास से गायब करके उसकी जगह रानी लक्ष्मीबाई को इतिहास में जगह दी गई है । 

दलित महीला झलकारी बाई की प्रेरणा का असर हम आज देख सकते हैं. जगह-जगह लगीं उनकी मूर्तियाँ, उनके नाम पर जारी डाक टिकट- इसके गवाह हैं. वे दलित समाज की चेतना और गर्व की प्रतीक रही  हैं.



जो लोग झलकारी के होने न होने का मुद्दा बनाते हैं, मोहनदास नैमिशराय उन लोगों से एक अहम सवाल पूछते हैं, "झलकारी बाई जी के आने से रानी लक्ष्मीबाई जी को तो बहुत सम्मान मिला. तो वे क्यों नहीं झेल पाते हैं कि एक दलित समाज की महिला ने भी उस समय ऐसा काम किया होगा."

सन् 1857 की जंग-ए-आज़ादी में झलकारी बाई

एक स्त्री जिसके हौसले और बहादुरी को इतिहास के दस्तावेज़ों में जगह नहीं मिली. आम लोगों ने उसे अपने दिलों में जगह दी. क़िस्से - कहानियों- उपन्यासों- कविताओं के ज़रिये पीढ़ी दर पीढ़ी ज़िंदा रखा. सालों बाद उसकी कहानियाँ दबे- कुचले, हाशिये के समाज के लोगों की प्रेरणा बनीं. तब ही तो घोड़े पर सवार उनकी मूर्तियाँ आज कई शहरों में दिख जाती हैं.वही झलकारी बाई हैं.


1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी का ज़िक्र आता है तो झाँसी की रानी का ज़िक्र लाज़िमी तौर पर आता है. ऐसा कहा जाता है कि रानी झाँसी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर झलकारी बाई भी अंग्रेज़ों से लड़ीं थीं.


अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की किताबों में समाज के दबे-कुचले- वंचित समुदायों के लोग लगभग ग़ायब हैं. रानी लक्ष्मीबाई का नाम तो हममें से ज़्यादातर लोग छुटपन से जानते और सुनते आये हैं लेकिन झलकारी बाई का नाम इतिहास की किताबों में नहीं मिलता है.


कहानी कुछ यों है, झाँसी के पास भोजला गाँव है. उस गाँव के लोगों का कहना है कि झलकारी बाई इसी गाँव से थीं. परिवार पेशे से बुनकर था. बहुत आम और ग़रीब परिवार की थीं. ऐसे परिवारों के बच्चे-बच्चियाँ जैसे पलते हैं, झलकारी बाई का जीवन भी वैसा ही था. झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के क़िले के सामने रहती थीं. भोजला उसका गाँव था और इस गाँव में पहाड़ों पर और जंगलों में लोग जा कर लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे. क़िले के दक्षिण में उन्नाव गेट है. झलकारी बाई के घराने के लोग वहीं रहते थे. उस घराने के लोग आज भी हैं. अगर पता करेंगे तो झलकारी बाई के घराने के लोग भी ये इतिहास बताते हैं. वे कहते हैं, ये लड़ाई तो हम लोगों ने लड़ी है. हम लोगो की यहाँ पर पूरी बस्ती है. हम लोगों का पूरा इतिहास है. झलकारी बाई हम लोग के समाज की थीं."


इतिहास से ग़ायब वंचित महिलाएं

हालाँकि, उस दौर के अब तक मिले ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में झलकारी बाई का नाम नहीं आता है. मगर सवाल है कि हाशिये के लोगों को इतिहास में कब जगह मिली है? इनमें वंचित समाज भी हैं और महिलाएँ भी. झलकारी बाई दोनों का प्रतिनिधित्व करती हैं.समाजशास्त्री और दलित चेतना के उभार पर काम करने वाले बद्रीनारायण इस बात को थोड़ा और साफ़ करते हैं, ब्रिटेनी रिकॉर्ड में उन्हीं का वर्णन होता है, जो उनको महान लगते हैं. महत्वपूर्ण होते हैं. या जिनसे  ब्रिटेनी शासन बहुत घबराया हुआ रहता होगा 


वृंदावनलाल वर्मा भी तो अपने उपन्यास में झलकारी बाई और उन जैसी अनेक महिलाओं का ज़िक्र करते हैं और बताते हैं, 'रानी ने स्त्रियों की जो सेना बनायी थी, उसकी एक सिपाही झलकारी भी थीं.'


इसके बाद वह हुआ जो इतिहास बन गया

 "जब 1857 के युद्ध में ब्रिटेनी सैनिकों का हमला हुआ तो उस समय उन्होंने रानी को कहा कि अपने बच्चे को लेकर तुम भाग जाओ. मैं तुम्हारी शक्ल लेकर अंग्रेज़ों को रोके रखूँगी. अंग्रेज़ सोचेंगे कि लक्ष्मीबाई से लड़ रहे हैं लेकिन तुम जा चुकी होगी. लक्ष्मीबाई बन कर वे ब्रिटिश सैनिकों को धोखा देती रहीं. बहुत वीरता से लड़ीं. कोई पहचान नहीं पाया कि लक्ष्मीबाई नहीं हैं."

झलकारी ने अपना श्रृंगार किया. बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई पहनती थीं. गले के लिए हार न था, परंतु काँच के गुरियों का कण्ठ था. उसको गले में डाल दिया.

झांसी की रानी की परछाई बनी झलकारी बाई , जिसने लक्ष्मीबाई बनकर दिया अंग्रेजों को चकमा

आपने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियां तो सुनी होंगी। लेकिन क्या उनकी सेना की बहादुर सिपाही झलकारी बाई के बारे में आप जानते हैं। झलकारी बाई ने लक्ष्मीबाई के प्राणों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी चाल चली जिसे देखकर ब्रिटिश सेना के होश उड़ गए।

 झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य के किस्से हम सभी ने बचपन से पढ़े और सुने हैं। लेकिन क्या आप उनके साथ ही अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाली झलकारी बाई के बारे में जानते हैं। झलकारी बाई के सिर पर न रानी का ताज था न ही झांसी की सत्ता। लेकिन फिर भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दे दी। झलकारी बाई के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता में लिखा है-


"जा कर रण में ललकारी थी,

वह तो झांसी की झलकारी थी ।

गोरों से लडना सिखा गई,

है इतिहास में झलक रही,

वह भारत की ही नारी थी ।।"

एक बार झलकारी ने 

तेंदुए को कुल्हाड़ी से मार डाला था 


झलकारी बाई बचपन से ही साहसी थीं। जब वो छोटी थी तभी उनकी मां का देहान्त हो गया। पिता ने उन्हें घुड़सवारी और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। कहा जाता है कि एक बार जंगल में एक तेंदुए ने उन पर हमला कर दिया था । लेकिन झलकारी ने कुल्हाड़ी से उसे मार दिया। इतना ही नहीं एक बार कुछ डकैतों ने उनके गांव के व्यापारी के घर पर धाबा बोला, तो झलकारी ने उनका मुंहतोड़ जवाब देते हुए गांव से भागने पर मजबूर कर दिया। झलकारी के साहस से प्रभावित होकर उनकी शादी झांसी की सेना के सैनिक पूरन कोरी से कर दी।


लक्ष्मीबाई से कैसे हुई मुलाकात?

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई का पहली बार आमना सामना एक पूजा के दौरान हुआ। झांसी की परंपरा के अनुसार गौरी पूजा के मौके पर राज्य की महिलाएं किले में रानी का सम्मान करने गईं। इनमें झलकारी भी शामिल थीं। जब लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को देखा तो वो हैरान रह गईं। क्योंकि झलकारी बाई  बिल्कुल लक्ष्मीबाई  जैसी दिखती थीं। जब उन्हें झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनने को मिले तो उन्हें सेना में शामिल कर लिया। झांसी की सेना में शामिल होने के बाद झलकारी ने बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया।


लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर किया अंग्रेजों का मुकाबला

डलहौजी की नीति के तहत झांसी को हड़पने के लिए ब्रिटिश सेना ने किले पर हमला कर दिया। इस दौरान पूरी झांसी की सेना ने लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। अप्रैल 1858 में झांसी की रानी ने अपने बहादुर सैनिकों के साथ मिलकर कई दिनों तक अंग्रेजों को किले के भीतर नहीं घुसने दिया। लेकिन सेना के एक सैनिक दूल्हेराव ने महारानी को धोखा दे दिया। उसने अंग्रेजों के लिए किले का एक द्वार खोल कर अंदर घुसने दिया। ऐसे में जब किले पर अंग्रेजों का अधिकार तय हो गया तो झांसी के सेनापतियों ने लक्ष्मीबाई को किले से दूर जाने की सलाह ही। इसके बाद वो कुछ विश्ववसनीय सैनिकों के साथ किले से दूर चली गईं।



अंग्रेजों को चमका देने के लिए बनाई खास योजना

किले के भीतर हुए इस युद्ध में झलकारी बाई के पति शहीद हो गए। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एक योजना बनाई। उन्होंने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। इतना ही नहीं अंग्रेजों को इस बात की भनक न पड़ पाए कि लक्ष्मीबाई किले से जा चुकी हैं ये सोचकर वो अंग्रेजों को चकमा देने के लिए किले से निकलकर ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज के कैंप में पहुंच गईं। जब तक अंग्रेज उन्हें पहचान पाते तब तक लक्ष्मीबाई को पर्याप्त समय मिल गया।




इस घटना का जिक्र मशहूर साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास 'झांसी की रानी-लक्ष्मीबाई' में भी है। उन्होंने लिखा है, "झलकारी ने अपना श्रृंगार किया। बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई पहनती थीं। गले के लिए हार न था, परंतु कांच के गुरियों का कण्ठ था। उसको गले में डाल दिया। प्रात:काल के पहले ही हाथ मुंह धोकर तैयार हो गईं। पौ फटते अर्थात सुबह होते ही घोड़े पर बैठीं और ऐंठन अकड़ के साथ अंग्रेजी छावनी की ओर चल दी  साथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक छुरी रख ली। थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला। टोकी गई। झलकारी को अपने भीतर भाषा और शब्दों की कमी पहले-पहल जान पड़ी। परंतु वह जानती थी कि गोरों के साथ चाहे जैसा भी बोलने में कोई हानि नहीं होगी। झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, 'हम तुम्हारे जडैल के पास जाउता है।' यदि कोई हिन्दुस्तानी इस भाषा को सुनता तो उसकी हंसी बिना आये न रहती। एक गोरा हिन्दी के कुछ शब्द जानता था। बोला, 'कौन?'



रानी -झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई, झलकारी ने बड़ी हेकड़ी के साथ जवाब दिया। गोरों ने उसको घेर लिया। उन लोगों ने आपस में तुरंत सलाह की, 'जनरल रोज के पास अविलम्ब ले चलना चाहिए।' उसको घेरकर गोरे अपनी छावनी की ओर बढ़े। शहर भर के गोरों में हल्ला फैल गया कि झांसी की रानी पकड़ ली गई. गोरे सिपाही खुशी में पागल हो गये। उनसे बढ़कर पागल झलकारी थी. उसको विश्वास था कि मेरी जांच - पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जावेगा कि काफी दूर निकल जावेगी और बच जावेगी।" झलकारी रोज के समीप पहुंचाई गई। वह घोड़े से नहीं उतरी। रानियों की सी शान, वैसा ही अभिमान, वही हेकड़ी- रोज भी कुछ देर के लिए धोखे में आ गया।"


अगर भारत की 1% महिलाएं भी झलकारी बाई जैसी हो जाएं, तो अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा

ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज

बहादुरी देख अंग्रेजों के उड़े होश

वृंदावनलाल वर्मा ने आगे लिखा है कि दूल्हेराव ने जनरल रोज को बता दिया कि ये असली रानी नहीं है। इसके बाद रोज ने पूछा कि तुम्हें गोली मार देनी चाहिए। इस पर झलकारी ने कहा कि मार दो, इतने सैनिकों की तरह मैं भी मर जाऊंगी। झलकारी के इस रूप को अंग्रेज सैनिक स्टुअर्ट बोला कि ये महिला पागल है। इस पर जनरल रोज ने कहा नहीं स्टुअर्ट अगर भारत की 1 फीसदी महिलाएं भी इस जैसी हो जाएं तो अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ना पड़ेगा '। रोज ने झलकारी को नहीं मारा। झलकारी को जेल में डाल दिया गया और एक हफ्ते बाद छोड़ दिया गया। आज भी झलकारी बाई की वीरता की कहानियां देशभर में पढ़ी और सुनी जाती हैं। साथियों इस वीडियो में इतना ही है आप सभी का वीडियो देखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया धन्यवाद जय नमस्कार साथियों 

    


Tuesday, November 21, 2023

चमारीनऔर ठाकुराइन

 चमारीनऔर ठाकुराइन part 1,

 । बालों में पल्लो हाथ में पल्लो और पल्लो के ही बैल बनाकर खेलती सोनवा को देखकर अनायास ही दीनानाथ के मुँह से निकल गया – ‘अमरपाली’ ।

उस समय सोनवा को अमरपाली का मतलब समझ में नहीं आया था  । आता भी कैसे ? लगभग सात बरस के बच्चे में इतनी समझ ही कहाँ होती है । हालांकि उसका नाम सोनवा भी न था लेकिन सोने जैसी चमकती देह देखकर उसे सब सोनवा-सोनवा बुलाने लगे और वह अपना असली नाम भूल गयी । सोनवा ठकुरघराने के ओसारे के सामने दुआरे पर  बैठ कर अपनी मजूरी का इन्तज़ार कर रही थी लेकिन ठकुराइन की कटारी जैसी चुभती नज़र उसे अन्दर ही अन्दर काटे जा रही थी । लहू-लुहान हो रही थी सोनवा लेकिन नज़र उठाकर उनकी ओर देखना गँवारा नहीं था । उसे डर था कि अगर कहीं वह ऊपर नज़र उठायी तो ठकुराइन के लीलार से उठी हुई भर माँग सेनूर और सूरज की तरह चमकती टिकूली से उसे जलाकर भष्म न कर दे । आखिर सुहागन में इतनी ताकत तो होती ही है !




ताकत तो इसमें भी कम न थी, दो-दो ठाकुरों को… वह भी बाप-बेटे दोनों को अपने बस में कर रखा था, उस समय तिलमिला कर रह गयी थीं बड़ी ठकुराइन । पति और बेटे के बीच दिनों-दिन आपस में बढ़ती नफरत से बिस्तर पकड़ लीं । बेटा रघुराज घर का पहला वारिस… आगे चलकर वही तो मालीक बनेगा लेकिन अभी से मलिकाना हक़ दिखाने लगा । हक़ तो उसका भी छीन लिया था पिता ने, शायद इसी बात का वह बदला ले रहा हो । वह भूल नहीं पा रहा था कि उसकी प्रेमिका… जिसके साथ वह जिन्दगी के सुनहरे सपने देख रहा था, उसे कैसे पिता ने बरगला लिया और अपनी रखैल बना लिया ! आखिर कोई पिता ऐसा कैसे कर सकता है !

ठाकुर साहब असल में ठाकुर न थे न ही जमींदार और न ही वह रौब जो ठाकूरों में होता है । ओझा होते हुए भी पचास-साठ एकड़ जमीन होना किसी ठकुरई से कम तो नहीं । जमींदार, भूमिहार या ठाकुर यही नाम अधिक जमीन वालों के लिए प्रचलित था । उनके पुरखों का रौब थोड़ा-थोड़ा ठाकूरों से मिलता था, नौकर-चाकर आगे-पीछे घुमते रहते, उनके घर में काम करके कइयों के घर का चूल्हा जल जाता इसलिए गाँव- में उनकी ईज्ज़त ठाकुर साहब जैसे हो गयी ।

सोनवा की माई रमयनिया रोपनी सोहनी कटिया यानि मजदूरी करने आस-पास के गाँव में जाती ही, विशेष रूप से ठाकुर साहब के खेत की रोपनी, सोहनी, कटिया, दँवरी करती । साथ में अपने तीनों बच्चों को भी ले जाती । सोनवा सबसे बड़ी थी इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी बड़ी थी । जब उसकी माई खेतों में काम करती तब वह चकरोट पर अपने दोनों भाइयों की देखभाल करती । सोनवा के रहते रमयनिया को कभी अपने बच्चों की चिंता न हुई । सोनवा की सुन्दरता पर हर ठाकुर, मजहूरों और राहगीरों की नज़र रहती । धीरे-धीरे सोनवा की अल्हड़ता संजीदगी में बदल गयी और वह तेरह-चौदह साल में ही जवान हो गयी । अपने माई के साथ-साथ वह भी कटिया-सोहनी करने लगी, उसे भी मजूरी मिलने लगी । खाना बनाने, रोपनी-सोहनी करने में निपुण सोनवा के लिए रिश्ते भी आने लगें लेकिन उसकी माई को अपने दोनों बच्चे पालने थे, उन्हें पढ़ाना लिखाना था इसलिए वह हर रिश्ते को लात मारती गयी यह कहकर कि हमारी सोनवा सोना है बडे होने पर और अच्छे रिश्ते आयेंगे ।

खेतों में कटिया करती, बोझा बाँधती 

ऊँच-नीच में तनिको भेद-भाव नाहीं करते बड़े ठाकुर, खुद ही बोझा बन्हवा देते हैं, लगता ही नहीं कि इतने बड़े आदमी हैं’ – रमयनिया बड़े ठाकुर से कहते हुए एहसान तले दबे होने के भाव से मुस्कराकर हाथ जोड़ लेती थी ।

ठाकुर का सीना गर्व से चौड़ा हो गया और माथा आकाश में तन गया – ‘आदमी वही है रमयनिया, जो सबको बराबर समझे । इ तो हमारे धर्म–करम ने हमको बाँध रखा है कि हम तुम्हारा छूआ खा पी नहीं सकते । लेकिन देखा जाय तो छुआ तो तुम्हारे ही लोगों का खा रहे हैं आखिर पहला छूअन तो तुम्हीं लोगों का है (अपनी हाथ को देखकर सहलाते हुए) । तुम लोग इतनी मेहनत न करते तो हमारे पेट में अन्न का दाना भी न जाता । पर नियम तो नियम है भोजन बनने पर शुद्ध हो जाता है और हम उसे ही खाकर जीवित हो उठते हैं’ ।

‘यह तो आप मान रहे हैं बड़े ठाकुर, वरना बहुत लोग तो हम चमारन के आदमी ही नाहीं समझतें’ ।

‘हमरे मामले में ऐसा मत समझना… हमार सोच तनिक हट के है’ ।

सोनवा चुपचाप सुनती और बड़े ठाकुर की उनके ही मुँह से भले-मानूसी की बड़ाई सुनकर अघाती नहीं । जैसे बड़े ठाकुर थे वैसे ही उनके पुत्र छोटे ठाकुर… भले मानूस । वे बेचारे ज्यादा बोलते भी न थे । खेत की मेड़ पर से ही सबको दिशा-निर्देश जारी कर देतें कि काम टाइम से होना चाहिए । तनिको कोताही न बरती जाय, नहीं तो मजूरी काट ली जायेगी । बेचारे पढ़े-लिखे छोटे ठाकुर को का मालूम खेत का काम, लेकिन फिर भी बाबूजी का हाथ बँटाने आ ही जातें । चार-पाँच सालों में कभी भी उन्होंने मेड़ से नीचे खेत में लात नाहीं रखा । पर एक समय ऐसा आया जब उन्हें बड़े ठाकुर की गैरहाजिरी में रोपनी के समय लेव लगे भाँस में उतरना पड़ गया । सोनवा मजूरहों के साथ रोपनी कर रही थी । उसने अपनी सलवार घुटने तक मोड़कर ऊपर कर लिया और दुपट्टा सीने पर फैलाकर पीछे से गोल घुमाते हुए कमर में रस्सी की तरह कस कर बाँध लिया था । आसमान से झरते झींसा से उसके देह से चिपकी समीज मेड़ पर खड़े छोटे ठाकुर के आँखों में चिपक गया । लाख ध्यान हटाने के बाद भी आँखें बार-बार उसकी देह से चिपक जातीं और उसमें से फूटती मिट्टी की सोंधी गंध से मदहोश हो जातें । वैसे तो सोनवा भी छुप-छुपकर छोटे ठाकुर को निहारा करती, लेकिन छोटे ठाकुर की नज़र पड़ने से पहले ही वह कजरी गा-गाकर इस तरह से धान की पूजी रोपने लगती जैसे उसने कभी छोटे ठाकुर की ओर देखा भी न हो ।

“…’ धान की मूंजी  माटी में गाड़ते हुए पैरों के बीच से तिरछी नज़र सोनवा की ओर देखा । सोनवा का जी जल उठा लेकिन बिना बोले मूंजी रोपने लगी 

इतने में रमदेऊवा पूजी रोपते हुए सोनवा की कमर में हाथ डाल दिया वह गिरइया मछरी की तरह छटपटा गयी और जब तक कुछ समझ पाये उसके कमर में बँधे दुपट्टे को उसने खोल दिया । सोनवा मुड़ कर जैसे ही भागी दुपट्टा उसके गले में फंस गया और उसकी साँस अटक गयी ।

मजदूरो में इस तरह की हँसी-ठिठोली आम बात थी इसलिए रोपाई छोड़कर कोई उनके नजदीक नहीं गया । रमदेऊवा दुपट्टा खींचते हुए नजदीक पहुँच गया और उसका हाथ छाती से होते हुए कमर तक सांप की तरह रेंग गया । सोनवा की घुटती आवाज ऊँ..ऊँ… को भाँपते हुए छोटे ठाकुर पीछे से रमदेऊवा के गर्दन पर एक छड़ी बजा दिए । रमदेऊवा छटपटाकर रह गया उसका हाथ ढ़ीला पड़ गया । जैसे ही दूसरी छड़ी छोटे ठाकुर उठाए रमदेऊवा ने घुटने पर गिरकर हाथ जोड़ने लगा  – ‘माफ करिं छोटे ठाकुर, माफी…’ ।

सभी मजदूर हक्का बक्का रह गयें । साथ की मजूरहिनों ने सोनवा को थाम लिया और उसे चकरोट पर ले आयीं । वह साँस भी नहीं ले पा रही थी छोटे ठाकुर ने उसे पानी पिलाया । साँस आने पर भी वह रोपनी करने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पायी । अंधेरा होने पर ही मजदूर घर लौटते हैं, पर उससे अब इंतजार नहीं किया जा रहा था फिर भी कीचड़ सने चकरोट पर वह बैठी रही ।

जितना सोनवा परेशान उतना ही छोटे ठाकुर । उन्होंने मजदूरो को कह दिया कि तुम लोग काम करो हम सोनवा को उसके घर मोटरसाइकिल से छोड़ आते हैं । मजूरहा अचम्भा से गलहत्थी दे लिए कि “कहाँ छोटे ठाकुर आप और कहाँ सोनवा… कैसे आपके मोटरसाइकिल पर… यह हमारे साथ चली जायेगी…”

छोटे ठाकुर ने अपना रौब दिखाते हुए कहा – “देख नहीं रहे कि इसके पास हिम्मत नहीं है, ये कैसे जायेगी पैदल घर ? काम खतम करके ही तुम सब यहाँ से हटोगे” ।

बात तो सही थी कि एक ही मोटरसाइकल पर छोटे ठाकुर और सोनवा !! ठाकुर साहब का तो धरम भरस्ट हो जायेगा ! लेकिन ठाकुर साहब को अपने धरम की चिंता नाहीं तो मजदूर  क्या  करें ! सोनवा बैठ चली छोटे ठाकुर के साथ मोटरसाइकिल पर ! बैठ तो गयी पर इतनी डरी-सहमी कि हचका से कहीं गिर न जाये या गलती से भी छोटे ठाकुर की पीठ से छुआ न जाय । ऊबड़-खाबड़ माटी के चकरोट, खडन्जा चकरोट से गुजरते हुए मोटरसाइकिल हचक जाता और सोनवा किचकिचा कर हैन्डिल (ग्रेब हैंडल) पकड़ लेती । एक हचका पर तो छोटे ठाकुर को लगा कि वह मोटरसाइकिल से गिर गयी वे सोनवा सोनवा बुलाते ही रह गये, डर के मारे वह बोली ही नहीं । फिर ठाकुर ने कहा – ‘मुझे पकड़ लो, कट नहीं जाओगी सोनवा’ ।

‘नाहीं छोटे ठाकुर, हम आपको कैसे छू सकते हैं’ ?

‘हा..हा…हा… (हँसते हुए) दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी और तुम छुआ-छूत लेकर बैठी हो । पकड़ लो मुझे… पकड़ो…’

सोनवा के न पकड़ने पर उन्होंने खुद ही उसका हाथ खींच कर अपने कमर में बाँध दिया ।

चौराहे से गुजरते हुए बड़े ठाकुर की नज़र अचानक छोटे ठाकुर पर पड़ी और पीछे सोनवा को सटकर बैठा देख कट कर रह गयें । शाम को आग ऊगलते बड़े ठाकुर छोटे ठाकुर के पास जा पहुँचे, स्थिति का जायजा लेने के बाद उन्होंने सोनवा को चरित्रहीन साबित करने में कोई कसर न छोड़ी, ‘तुम्हें क्या लगता है कि रमदेऊवा ऐसे ही उसका दुपट्टा खींचा होगा ? पहले से दोनों में सान-मटक्की चल रही थी । तुमसे ही समझने में भूल हो गयी है’ ।

‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी । मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है रमदेऊवा की बेहुदगी । सोनवा एक अच्छी लड़की है’ ।

‘आज के जन्मे तुम का जानोगे । हमें मजूरहों के रग-रग की पहचान है । आज के बाद तुम खेत में कदम नहीं रखोगे’।

‘बाबूजी… सोनवा वैसी नहीं है…’

बात काटते हुए “तो कैसी है… अपनी हद में रहो । वो बदचलन यहाँ तक पहुँच गयी ? जैसे सारे मजूरहों को फँसा के रखी है वैसे ही तुमको भी फँसा रही है । अच्छा हुआ कि हमें पहले ही ये सब पता चल गया” ।

छोटे ठाकुर के साथ-साथ बडी ठकुराइन को भी हिदायत और चेतावनी मिल गयी, “सम्भाल लो अपने बेटे को । बहुत उड़ने लगा है । आज के बाद खेत में दिखा तो हाथ-पाँव तोड़कर रख दूँगा” ।

उस दिन के बाद हर दिन सोनवा को छोटे ठाकुर का इंतजार रहने लगा लेकिन छोटे ठाकुर कभी दिखायी नहीं दिए । वह पहली बार मोटरसाइकिल पर बैठी थी, हालांकि उसका बहुत मन करता बैठने को पर नहीं जानती थी कि जिसे मन ही मन अपने मंदिर का देवता मान चुकी है, वह देवता खुद ही पूजा लेने आ जायेगा । छोटे ठाकुर की पीठ जैसे सीने से अब तक सटा रह गया हो बार-बार वे उसका हाथ खींच अपने पेट पर रखकर पकड़ने के लिए कह रहे हों । वह बार अपने हाथ को खींचती लेकिन हाथ फिर फिर जाकर उन्हें पकड़ ही ले रहे हों । कभी-कभी सोचती छीः हम का सोचते रहते हैं दिनभर-रातभर । कहाँ वो और कहाँ हम । कवनो बराबरी नाहीं ।

रोपनी के बाद सोहनी का दिन आ गया लेकिन छोटे ठाकुर दिखायी नहीं दिए । दिन-ब-दिन बड़े ठाकुर सोनवा को पहले से ज्यादा जानने-मानने लगें । बड़े ठाकुर की दरियादिली उसके माई-दादा से होकर सोनवा पर आयी इसलिए उनकी छत्रछाया भली लगती । सोनवा के माई-दादा के नाम दो गट्ठा खेत दान में दे दिया बड़े ठाकुर ने । उस पर छान छाकर दो गोरू भी बाँध दिए गये । घर ही से दूध मिलने लगा । सोनवा के दोनों भाइयों की फीस बड़े ठाकुर भरने लगें । आस-पास के लोगों के लिए भी कुछ न कुछ कर ही दिया । खडन्जा बिछवाना, घरों में अनाज पहुँचाना, बच्चों की फीस भर देने से सारे चमार बस्ती में बड़े ठाकुर के देवता अवतार की बखान शुरू हो गयी । उनमें से सोनवा भी एक थी । जाने कब उसके दिल में बसे छोटे ठाकुर की याद पर धूल माटी पड़ गया और अब वह बड़े ठाकुर की भक्त बन गयी । बड़े ठाकुर से मिले एक के बाद एक कपड़े, साड़ी उसे सहज लगने लगा । जिस दिन उसे कान में पहनने के लिए सोने का कुण्डल मिला वह तो नाच उठी, ऐसा लगा कि उछलकर बड़े ठाकुर को पकड़ ही लेगी, लेकिन उछलते उछलते रूक गयी और आँखों में आँसू भर कर बोली, ‘बड़े ठाकुर… सपना तो बहुत कुछ है, पर हमारे भाग में सपना पूरा होना नाहीं लिखा है… रउरे इ कुण्डल रख लिजिए । राऊर आशिर्वाद ही काफी है’

चमारीन और ठाकुराइन पार्ट 2

कैसी बात करती हो अमरपाली, दान देकर वापस नाहीं लेतें । रूक काहें गयी, उछलो, कूदो, खुशियाँ मनाओ । तुम्हारे सारे सपने तो नहीं लेकिन कुछ सपने तो हम पूरा कर ही देंगे’ ।

‘नाहीं, इ हम नाहीं ले सकते… एतना मँहगा सामान क कौनों जरूरत नाहीं है । रऊरे छत्रछाया में पलना ही बहुत है’ ।

‘काहें, तुम हमें अपना नाहीं समझती ? हम तो तुम लोगों को अपनों से भी बढ़कर समझते हैं । इस बात के लिए बहुत बार लड़ाई हो जाती है मेरी बीवी से, भाई से, नात रिश्तेदारों से कि काहें हम तुम लोगों पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं । लेकिन मैं सोचता हूँ कि एक बार तुम लोगों की जिन्दगी ढ़र्रे पर आ जाय, गरीबी दूर हो जाये तो मैं भी शुकून से मर सकूँगा’ ।

‘बड़े ठाकुर ! ऐसा मत कहिए, मरे आपके दुश्मन’ । ठाकुर के मुँह पर हाथ रखते हुए सोनवा बोल पड़ी, लेकिन इस बात का एहसास होते ही कि उसने गलती किया है वह सकुचा गयी और हाथ पीछे खींच ली ।

‘रखो न आम्रपाली… मेरे मुँह पर हाथ रखो… अपनेपन का एहसास होता है । हम तुम्हें अपना समझते हैं तो तुम भी तो हमें अपना समझो…’ । ठाकुर की आँखें छलछला आयीं । उन्होंने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर खुद ही मुँह पर रख दिया । बड़े ठाकुर की इस अपनाइत से सोनवा की भी आँखें भर आयीं । वर्षों से अछूत होने का ज़हर पीती सोनवा की पीढ़ी आज धन्य हुई । खुद ठाकुर साहब उसके घर में हैं । उसके हथेलियों को अपने दोनों हथेलियों के बीच दबाकर देर तक बैठे रहें । दोनों में कोई बराबरी नहीं लेकिन सोनवा बड़े ठाकुर के साथ एक ही खटिया पर बैठ कर समानता का एहसास करने लगी और बड़े ठाकुर के उच्च विचार पर मन ही मन गौरवान्वित होने लगी । सचमुच देवता यही हैं ।





सोनवा बीस साल की हो चुकी है । वैसे भी उसकी उम्र गाँव के हिसाब से बहुत ज्यादा हो गयी है । पैसे रूपये न होने की वजह से बियाह नाहीं हुआ और अब उसके लिए कूँवार लड़का मिलना मुश्किल हो गया । शरीर गदरा गयी और इसकी गदरायी शरीर ठकुराइनों को भी मात देती है । बड़ी मुश्किल से उसका बियाह एक कूँवार लड़के रामनाथ से ठीक हो पाया । ठाकुर साहब ने दिलासा दिया कि जो कुछ भी उनसे बन पड़ेगा वे शादी में खर्च करेंगे, लेकिन दायरे में रहकर । धन्य धन्य हो गया पूरा परिवार । दिसम्बर में बियाह और गवना दोनों साथ होने वाला था । शादी के एक महिने पहले से तैयारियाँ जोर शोर से चलने लगीं । रमयनिया का पैर धरती पर न पड़ते उसके हाथ में गड्डी के गड्डी पैसे जो थे । उस दिन वह सोनवा के लिए कपड़े लत्ते खरीदने की खातीर बाज़ार गयी थी । दोनों भाई स्कूल में थे और दादा पीकर कहीं ढ़हे पड़े होंगे ऊँखीयाड़ी में या फिर पुलिया के नीचे । बड़े ठाकुर बहुत उदास-उदास थे और आकर सोनवा के घर में खटिया पर बैठ गयें । सोनवा घबरा गयी और जल्दी से एक लोटा पानी हाथ में थमाते हुए पूछ पड़ी, ‘का बात है बड़े ठाकुर, तबीयत तो ठीक है ना ? बड़े उदास लग रहे हैं ? घर में सब ठीक है कि नहीं’ ?

‘हाँ… सब ठीक है । मुझे तुम्हारी चिंता हो रही थी’ ।

‘हमारी’

‘हाँ अमरपाली… अब तुम ससुराल चली जाओगी । बहुत याद आयेगी तुम्हारी । इतने दिनों में तुम बिल्कुल अपनी-सी लगने लगी । तुम बहुत भोली हो । पता नहीं कैसे होंगे वहाँ के लोग ? तुम्हारी देखभाल ठीक से कर पायेंगे या नहीं’ ।

‘हमें भी सबकी बहुत याद आयेगी । चिंता मत कीजिए । सुना है ठीक ठाक लोग हैं । नया नया बना दुतल्ला मकान है । खाने-पीने की कवनों कमी नाहीं है’ ।

‘चलो तुम्हारी बात सुनकर मैं निश्चिन्त हो गया । (बात बदलते हुए) अच्छा देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ’ । (सोने की हार दिखाते हुए)

‘हाँSSS… (सोनवा का मुँह खुला का खुला रह गया) इतना सुन्दर… हम तो कभी मंदिर नहीं गये लेकिन पूरा भरोसा है कि भगवान आप ही की तरह होते होंगे’ । हार के सामने हार गयी सोनवा या फिर महीनों से फूटती दरियादिली अब बाढ़ बन गयी । उसे कुछ असहज नहीं लगा और बड़े ठाकुर के गले लग गयी । ठाकुर साहब की वर्षों की तपस्या आज पूरी हुई । सोनवा की पीठ, कमर, वक्ष आज सब कुछ उनके लिए सहज ही समर्पित होता चला गया । उसे लगा कि इस समर्पण के लिए वह कब से तरस रही थी । सोनवा ने अपने भगवान को सर्वस्व समर्पित कर तृप्ति की साँस ली । साथ ही उसे इस बात की सांत्वना भी मिल गयी कि यदि वह आगे ठाकुर साहब का भोग लगाती रही तो ठाकुर साहब अपने जान से प्यारी अमरपाली को अपने हिस्से की कुछ जमीन और घर भी दान में दे देंगे, जिसमें वह देवी बनकर पूजी जायेगी । सोनवा को अपने समर्पण पर कोई ग्लानि न हुई बल्कि वह उनके एहसानों का प्रतिदान समझकर सम्पूर्ण हो गयी । वह सिर्फ एहसानों का प्रतिदान नहीं था बल्कि प्रेम का वह बहाव था जिसमें उसे एक महिने में बहकर सिमटना भी था ।

जैसे जैसे बियाह का दिन नजदीक आता जा रहा था सोनवा सिमटने के बजाय पूरे आवेग के साथ बहती जा रही थी । उसके लिए रामनाथ से बियाह करना भारी लगने लगा और बड़े ठाकुर से बिछड़ जाने के कचोट में हर रोज भोग लगाने लगी । उसे पवित्रता में विश्वास था और उस पवित्रता का जूठन भी रामनाथ को सौंपना नहीं चाहती थी । रोते-धोते ससुराल तो पहुँच गयी । सारे रश्मों-रिवाज को पूरा वह दुतल्ला मकान के ऊपरी तल्ले पर, जहाँ सिर्फ दो ही कमरा बना था, उसमें से एक कमरे में उसे बैठा दिया गया । उसने ध्यान से कमरे और छत का मुआयना किया । उसके मायके में ऐसा कमरा नहीं था लेकिन बड़े ठाकुर के दिए हुए सपनों की दुनिया में से किसी भी हिस्से का हिस्सा नहीं था । दिन ढ़ल गया, सब लोग खा-पीकर मस्त हो गये कमरे में सोनवा को दूलहे का इन्तजार करना था । सोनवा के मन-मंदिर में एक ही देवता की मूर्ति की जगह थी, उसमें किसी और की मूर्ति स्थापित करना उसके लिए मुस्कील हो गया । वह अपना गहना-गुरिया एक गठरी में बाँध कर छत से कूद गयी और नीचे बड़े ठाकुर ने उसे गोदी में लोक लिया और दूर कहीं छिपायी गाड़ी झट से नजदीक आ गयी जिसमें बैठकर वे दोनों नौ-दो ग्यारह हो गयें ।

भगा तो लाये बड़े ठाकुर…! लेकिन रखे कहाँ ? वापस लाकर पटक दिया मायके में । थू-थू हाय-हाय मार-मार की पीड़ा का अन्दाजा भागने से पहले सोनवा को न था । उसके माँ-बाप तो बड़े ठाकुर को कुछ कह न सके लेकिन सोनवा को झपिला झपिला कर उसके आधे प्राण हर लिये । उसके दोनों भाई मारे शरम के घर से बाहर निकलना बंद कर दिए । उसका पति कई बार आया उसके आँखों के सामने गिड़गिड़ा कर गया, “ईज्ज़त बचा लो… । हम तुमको कुछ न कहेंगे… । कवनो कमी-बेसी हुई हो तो हमसे कहो… । हम तुमको मान-सम्मान के साथ फिर से ले जायेंगे…” । लेकिन पत्थर बनी सोनवा के आँखों के सामने सिर्फ बड़े ठाकुर होते जिनके साथ वह सपनों का नहीं हकीकत का घर बना रही थी । देखते देखते ठाकुर साहब ने बस्ती के बाहर दो कमरे और एक ओसारे का मकान बना दिया । ईंट के साथ गारा प्यार की वह निशानी थी जो ऊँच-नीच जात-पात धरम-करम सबको ताक पर रखकर समाज से विद्रोह कर जोड़ा गया । लिंटर लगते समय फूट फूट कर खूब रोई थी सोनवा कि मायके में अब कभी कदम नहीं रखना है । जिस मायके में ईज्ज़त नहीं वहाँ सोनवा नहीं ।

सचमुच सोनवा ने कभी मायके में अपना कदम नहीं रखा जब उसके दादा स्वर्ग सिधार गये तब भी नहीं । वह बस्ती के बाहर से लाश जाते हुए देखकर अंतिम बार दर्शन की और तब भी नहीं गयी जब उससे उसका दान में दिया गया घर और खेत छीन लिया गया ।

बड़े ठाकुर की ईज्ज़त निलाम हो गयी । बड़े ठाकुर अशुद्ध हो गए । पचपन के बड़े ठाकुर और बीस की सोनवा जैसे बेमेल जोड़े का दो कमरे में मेल हो गया । उस मेल का बेमेल हो जाना तब खलता जब ठाकुर अपने असली घर असली बच्चों के साथ रूक जातें और सोनवा छटपटा छटपटा कर ईंटों के साथ बतियाया करती । बिस्तर पर करवट बदल बदल कर उसका शरीर दुखने लगता। अब वह खेतों में काम नहीं कर सकती थी क्योंकि वह बड़े ठाकुर के दिल की रानी थी और लोगों के लिए उनकी रखैल । गाँव घर की सहेलियाँ भौजाइयाँ उसे देखकर मुँह बिचका कर चली जातीं हालांकि सोनवा का मन बहुत करता उनसे बतियाने का । सोनवा गर्भवती हो गयी । बड़े ठाकुर अब अपने घर में ज्यादा सोनवा के पास कम रहने लगें । वह तड़पने लगी, बीमार रहने लगी, बेसुध रहने लगी । पर जब बड़े ठाकुर आतें उनके साथ कई समस्याएँ और मजबूरियों की दुहाई भी आती जिससे पिघल कर सोनवा फिर उन्हीं की हो जाती । वह सोचती रहती कि इस बार उनसे ये कहकर लडूँगी, वो कह कर लडूँगी लेकिन बड़े ठाकुर का मुँह देखते ही वह सब भूल जाती और बाँहों में समाकर फफक-फफक कर रो पड़ती । रूलाई के मारे कई बार तो उसकी आवाज़ ही न निकल पाती और ठाकुर साहब के जाने का समय हो जाता ।

सातवाँ महीना चल रहा था, कई दिन बीत गए ठाकुर साहब नहीं आयें । हमेशा वे राशन समय से भिजवा दिया करते थे लेकिन इस बार न जाने क्या हुआ कि राशन भी नहीं पहुँचा । भूख से तड़पती सोनवा चिलचिलाती दोपहरी में ठकुरघराने की ओर चल पड़ी । एकाध किलोमीटर चलने पर ही प्यास से उसकी जान निकलने लगी और ठाकुर साहब के घर के पीछे बेहोश होकर गिर पड़ी । उसी समय रास्ते से गुजरते हुए छोटे ठाकुर ने उसे देख लिया । उससे नफरत तो बहुत करते थे छोटे ठाकुर लेकिन गर्भावस्था में देखकर दया आ गयी और पहले पानी के छींटे मार होश में लायें और बाद में पानी का घुँट पिलाया । सोनवा सरम से गड़ी जा रही थी आँख नहीं मिला पा रही थी उसे याद आ गया जब रमदेऊवा के बदमाशी के बाद चकरोट पर उसकी टोढ़ी पकड़कर उन्होंने पानी भरा लोटा बिल्कुल ऐसे ही उसके होठों से लगाया था तब ऐसा लगा कि लोटा सिर्फ एक लोटा नहीं बल्कि छोटे ठाकुर के होंठ होठों पर आ गये हों । होठों पर होठ रख भी दिया था एक बार छोटे ठाकुर ने सबसे नजरें बचाकर, सोहनी के समय । ऊँखियाड़ी में खींच लिया था और कहा था, “तुम इतनी सुन्दर हो कि तुम्हारे देह से नज़र बिछला जाती है । मैं इसे सोने की तरह ही सम्भाल कर रखना चाहता हूँ । तुम चिंता मत करना मैं तुम्हें छोटी ठकुराइन बनाऊँगा” । उनकी आँखों में एक चमक थी और विश्वास भी कि वे अपनी बात को पक्का पूरा करेंगे । सोनवा वहीं पर सरम से धँस गयी थी और उसकी टोढ़ी उठाते हुए उसके होठों पर कसकर अपनी छाप छोड़ते उन्होंने कहा – “इसके बाद जो भी होगा बियाह के बाद ही होगा । इसे सगाई समझना” । लेकिन न जाने क्या हुआ कि छोटे ठाकुर फिर कभी दिखायी नहीं दिए और बड़े ठाकुर कब किस तरह से उनकी जगह ले लिए कि उसे छोटे ठाकुर की छाप भूल ही गयी थी ।

पानी पीकर सलहन्त होने पर सोनवा से छोटे ठाकुर ने पूछा, ‘कहाँ जाना है, कहीं छोड़ दूँ ?’ असमंजस में पड़ी वह कहे तो कैसे कहे ? होंठ काँपते रहें पर आवाज़ नहीं निकल पायी । छोटे ठाकुर समझ गयें और कहा कि बाबूजी एक-दो महिने के लिए कहीं बाहर गये हैं । कुछ जरूरत हो तो बता दो हम पहुँचवा देंगे ।

सोनवा की आँखें रोकते रोकते भी झरझरा आयीं । राशन-पानी खुद पहुँचाकर सोनवा के घर से निकलते समय छोटे ठाकुर ने बस इतना कहा, ‘अगर बाबूजी ही पसन्द थे तो पहले ही बता दी होती, हमसे माँ को छूने का पाप तो न होता’ ।

“माँ” यह तो कभी सोच ही न पायी थी सोनवा । बड़े ठाकुर से रिश्ता बनने के बाद वह छोटे ठाकुर की सौतेली माँ ही तो हुई !

जुड़वा बेटों को जनम देकर माँ बनते फूली न समाई सोनवा । ठाकुर साहब ने भी खूब जश्न मनाया । लेकिन उनके जश्न पर पानी तब फिर गया जब ठकुराइन ने उन्हें लाल गोले आँखों से दागा, ‘आपकी जगह तब तक इस घर में है जब तक पाप की गठरी बाहर है । घर लाने की कभी कोशिश भी न करियेगा । हमने आपकी रखैल को सह लिया लेकिन बेटे की हिस्सेदारी नहीं सहूँगी’ । उस दिन पहली बार बड़े ठाकुर को एहसास हुआ कि अब उनकी नहीं चलेगी । उन्होंने बड़े ताम झाम से तीन बीघा खेत सोनवा को दे दिया ।

पैसठ की उम्र में बड़े ठाकुर को क्षय रोग लग गया । लोग कहते हैं कि सोनवा को छूने के कारण हुआ । घर से अब राशन पानी सोनवा को नहीं पहुँचता । ठाकुर साहब अब मिलने नहीं आते । सुना है कि छोटे ठाकुर ने मलिकाना हक़ के लिए एक दिन उनकी खूब पिटाई की उसी दिन उनको खून की उलटी हुई और वे तब से बिस्तर पर हैं । सोनवा उन तीन बीघा खेत और दो कमरे में अपने दोनों बेटों के साथ रहने लगी और बड़े ठाकुर का इंतज़ार करने लगी । बच्चों को ‘ठाकुर का पाप’ कहकर चिढ़ाने वालों पर सोनवा चढ़ बैठती, गालियों का बौछार कर देती लेकिन बच्चों के पूछने पर उन्हें नहीं बता पाती कि उन्हें पाप क्यों कहा जा रहा है ।

एक दिन छोटे ठाकुर ने आदमी भेजकर सोनवा से उसकी तीन बीघा खेत छिनवा लिया । उस दिन गिड़गिड़ाती हुई फिर से सोनवा ठकुरघराने पहुँची । बड़े ठाकुर का सटिक जबाब सुनकर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी, ‘आम्रपाली, तुझे छूने का हर्जाना ही तो भुगत रहा हूँ । अब तो हमें बख़्स दे । कम से कम हम नरक में जाने से बच जायेंगे’ ।

हमार बात अलग है बड़े ठाकुर, लेकिन राऊर इ लइके…’

‘पाप की गठरी हैं इ अमरपलिया, इन्हें हमरे मत्थे मत मढ़ो’ बड़े ठाकुर की आवाज़ इतनी तेज हुई कि सारा घर गूँज उठा और उतनी ही दूर तक फफक कर खून की छींटे पहुँच गए। उस कै के छींटों से लाल हो गयी सोनवा । सुना है उसी के साथ बड़े ठाकुर को लकवा भी मार गया ।

उस दिन सोनवा के कदम उठते न थे वह घंटों पुलिया पर बैठी रही । “पाप की गठरी हैं अमरपलिया” उसके कानों में बजते रहे, वह दोनों कानों को हाथ से दबाकर नीचे बैठ गयी । वहीं पुलिया पर कुछ पढ़ाकू लड़के उसे देखकर आपस में खुसूर-फुसूर करने लगें – ‘अरे ये ठाकुर की रखैल है ना सोनवा’ ?

‘सोनवा ? सोनवा मत कहो… ठाकुर इसे आम्रपाली कहते थे’

हा..हा..हा..हा.. सब हँसने लगें ।

‘उन्होंने ने तो इसका नाम चरितार्थ कर दिया’

‘हाँ… अजातशत्रु और बिंबसार दोनों दिवाने निकले’

हा…हा…हा… (हँसते हुए)

‘यार ऐसा मत कहो, इसे तो पता भी नहीं होगा कि आम्रपाली कौन थी ? आम्रपाली की तरह इसकी भी खूबसूरती इसकी दुश्मन बन गयी । वह भी अपने प्रेमियों के हाथों वेश्या बनी और यह भी बेचारी’ ।

‘हाँ… बड़े ठाकुर का जब तक मन किया, मजा लूटा… अब छोड़ दिया सबके मजे के लिए… सचमुच का आम्रपाली बनाकर…’

धीरे-धीरे आती तीखी आवाज़ों से उसका कान सुन्न हो गया, उस दिन उसने पहली बार जाना कि आम्रपाली यानी अमरपाली कौन थी । जैसे उसने ज़हर पी लिया हो, खून की उल्टियाँ हो रही हों और उसके प्राण निकलने के लिए छटपटा रहे हों पर निकल नहीं पा रहे हों । वह जमीन में धँसती गयी और कहती गयी हे धरती माता ! फट जा हमें सरन दे दो ! लेकिन न तो धरती माता फटीं न ही सरन मिला । बचा खुचा दो कमरे का मकान भी उससे छीन लिया गया । वह सड़क पर आ गिरी ।

खेतों में मजूरी करने के लिए उसने दूसरे गाँव के चमार बस्ती से गुहार लगायी । रमयनिया ने तरस खाकर उसे बस्ती से थोड़ी दूरी पर मड़ई डालने के लिए जगह दे दी । खेतों में मजूरी करके वह जीने-खाने लगी । वह जहाँ से चली थी वहीं पहुँच गयी । फिर से एक बार वह ठाकुर साहब के दुआरे मजूरी लेने के लिए बच्चों के साथ सपट कर बैठी है । ठकुराइन की आग के गोले आँखों से ज्यादा उनकी लाल टिकूली आग उगल रही है और ऐसा लग रहा है कि भर माँग का सेनूर आग की लपटें हैं जो सोनवा को जला डालने में कोई कोर-कसर नहीं छोडेंगे । अपने ससुर की रखैल की सुन्दरता देखने की खातीर खिड़की से झाँकते हुए छोटी ठकुराइन को सोनवा ने देख लिया । उस घर में कोई भी औरत सोनवा के टक्कर की नहीं थीं लेकिन किस्मत ने उसे टक्कर दे दिया था ।

ठकुराइन आँख नचाती हुई अनाज नापने वालों को फटकारने लगीं, ‘जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ… कितना सेइया मजूरी देना है कि अभी तक नहीं हो पाया । जाने कहाँ कहाँ से लोग पाप की गठरी लेकर चले आते हैं और दूआरे पर बैठ जाते हैं । तुम लोग हो कि 

पाप की गठरी जनि कहो ठकुराइन… इ हमार लइके हैं… खाली हमार… । हम अपने लइकन के पाल रहे हैं तो दूसरे को धसक काहें है । मेहनत करके मजूरी लेने आये हैं कवनो मुफत में नाहीं…’ । कहते हुए सोनवा कपारे पर मजूरी का बोरा उठा बच्चों के साथ चले जा रही थी और ठकुराइन माँग भरी सेनूर की आग में खुद ही जल रही थीं ।


Sunday, November 19, 2023

मुर्दों के गांव की एक सत्य मार्मिक घटना

मुर्दों के गांव की एक सत्य मार्मिक घटना 

उस गांव के बारे में अजीब अफवाहें फैली थीं. लोग कहते थे कि वहां दिन में भी मौत का एक काला साया रोशनी पर पड़ा रहता है. शाम होते ही क़ब्रें जम्हाइयां लेने लगती हैं और भूखे कंकाल अंधेरे का लबादा ओढ़कर सड़कों, पगडंडियों और खेतों की मेंड़ों पर खाने की तलाश में घूमा करते हैं. उनके ढीले पंजरों की खड़खड़ाहट सुनकर लाशों के चारों ओर चिल्लानेवाले घिनौने सियार सहमकर चुप हो जाते हैं और गोश्तखोर गिद्धों के बच्चे डैनों में सिर ढांपकर सूखे ठूंठों की कोटरों में छिप जाते हैं.


इसी वजह से जब अखिल ने कहा कि चलो, उस गांव के आंकड़े भी तैयार कर लें, तो मैं एक बार कांप गया. बहुत मुश्क़िल से पास के गांव का एक लड़का साथ जाने को तैयार हुआ. सामने दो मील की दूरी पर पेड़ों के झुरमुटों में उस गांव की झलक दिखाई दी. मील भर पहले ही से खेतों में लाशें मिलने लगीं. गांव के नजदीक पहुंचते-पहुंचते तो यह हाल हो गया कि मालूम पड़ता था, भूख ने इन गांव के चारों ओर मौत के बीज बोए थे और आज सड़ी लाशों की फसल लहलहा रही है. कुत्ते, गिद्ध, सियार और कौए उस फसल का पूरा फायदा उठा रहे थे.


इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और बदबू से हम लोगों का सिर घूम गया. मगर फिर जैसे उस दुर्गंध से लदकर हवा के भारी और अधमरे झोंके सूखे बांसों के झुरमुटों में अटककर रुक गए. सामने मुरदों के गांव का पहला झोंपड़ा दीख पड़ा. तीन ओर की दीवारें गिर गई थीं और एक ओर की दीवार के सहारे आधा छप्पर लटक रहा था. दीवार की आड़ में एक कंकाल पड़ा था. साथ वाला लड़का रुका,“यह! यह निताई धीवर है.”


“कहां?” अखिल ने पूछा.




“वह, वह निताई धीवर सो रहा है!” लड़के ने कंकाल की ओर संकेत किया,“वह धीवर था और गांव का सबसे पट्ठा जवान. अकाल पड़ा. भूख से उसकी मां मर गई. उसके पास खाने को न था, फिर लकड़ी लाकर चिता सजाना तो असंभव था. उसने अपनी नाव बाहर खींची, मां के शरीर को नाव में रखा, ऊपर से सूखी घास रखी और आग लगा दी. रहा-सहा सहारा भी चला गया और एक दिन वह भी यहीं भूखा सो गया. यहीं, इसी जगह उसकी मां ने भी दम तोड़ा था.” वह लड़का बोला.


हवा का झोंका फिर चला और खोखले बांसों से गुज़रती हुई हवा सन्नाटे में फिसल पड़ी. लड़का चीख पड़ा,“वह सांस ले रही है, सुना नहीं आपने?”


“कौन?”


“वह, वह जुलाहिन सांस ले रही है.”


“क्या वाहियात बकता है!” अखिल ने झुंझलाकर डांटा,“कौन जुलाहिन?”


“आपको नहीं मालूम? वह सामने झोंपड़ी है न, उसी में जुलाहे रहते थे. उसमें से तीन भूख से मर गए. रह गए सिर्फ़ जुलाहा, जुलाहिन और उनका करघा; मगर भूख से उनकी नसें इतनी सुस्त थीं कि करघा भी बेकार था. उन्होंने पास के जंगल से जड़ें खोदकर खानी शुरू कीं. उनके दांत नुकीले हो गए, जैसे सियारों की खीसें. जुलाहा बीमार पड़ गया. जुलाहिन जड़ें खोदने जाती थी. एक दिन जड़ें खोदते वक़्त खुरपी उसके कमज़ोर हाथों से फिसल गई और बाएं हाथ की तर्जनी और अंगूठा कटकर गिर गया. जब वह घर पहुंची तो भूखा व बीमार जुलाहा झल्ला उठा और चिल्लाकर बोला,‘निकल जा मेरे घर से. अब तू बेकार है. न करघा चला सकती है, न जड़ें खोद सकती है.’ तब से जुलाहिन का पता नहीं है. मगर कुछ लोगों का कहना है कि वह भूत बनकर गांव की क़ब्रों के पास घूमा करती है. वह अभी भी सांस ले रही थी, सुना नहीं आपने?”


अखिल ने मेरी ओर देखा और मैंने अखिल की ओर. हम दोनों आगे बढ़े और जुलाहों के झोंपड़े में घुसे. लड़का ठिठका, मगर हिम्मत दिलाने पर वह भी आगे बढ़ा. हम लोग अंदर गए. लड़के ने अंदर से किवाड़ बंद कर लिए और हम लोगों से सटकर खड़ा हो गया. वह डर से कांप रहा था. सामने आंगन में तीन क़ब्रें आसपास खुदी हुई थीं. बीच की क़ब्र में एक बड़ा सा छेद था. उसमें से एक बिज्यू निकला और हम लोगों को डरावनी निगाहों से पल भर देखकर सिर झटका और फिर क़ब्र में घुस गया. आंगन में किसी मुरदे के सड़ने की तेज़ बदबू फैल रही थी. अखिल ने अपना कैमरा संभाला और फ़ोटो लेने की तैयारी की. इतने में पीछे के किवाड़ खड़क उठे. मेरे रोंगटे खड़े हो गए. अखिल बोला,“कोई सियार होगा.”


किवाड़ को किसी ने जैसे बार-बार धक्का देना शुरू किया. मैंने सोचा, शायद ज़िंदा आदमी की गंध पाकर गांव भर के मुरदे हम पर हमला करने आए हैं. मेरे ख़ून का कतरा-कतरा डर से जम गया. लड़का बुरी तरह से चीख पड़ा. अखिल धीमे-धीमे गया, धीरे से किवाड़ खोल दिया. उसके बाद बुरी तरह से चीखकर भागा और मेरे पास आकर खड़ा हो गया. मैं बदहवास हो रहा था और आपको यक़ीन न होगा, मैंने दरवाज़े पर क्या देखा.

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Femina



मैंने जिसे देखा वह आदमी नहीं कहा जा सकता था. वह जानवर भी नहीं था, भूत भी नहीं. एक औरतनुमा शक्ल, जिसकी खाल जगह-जगह पर लटक आई थी, सिर के बाल झड़ गए थे, निचला होंठ झूल गया था और दांत कुत्तों की तरह नुकीले थे. मालूम होता था, जैसे आदमी के ढांचे पर छिपकली का चमड़ा मढ़ दिया गया हो. उसके दाएं हाथ में एक खुरपी थी और बाएं हाथ की दो अधकटी और तीन साबुत उंगलियों में कुछ जड़ें. वह पल भर दरवाज़े के पास खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ी.


मैं चीखना चाहता था, मगर गला जवाब दे चुका था. वह हमारे बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई, जड़ें जमीन पर रख दीं और अपने तीन उंगलियोंवाले हाथ को मुंह के पास ले जाकर कुछ खाने का इशारा किया. हम लोगों की जान में जान आई. वह भूखी है, वह आदमी ही होगी; क्योंकि भूख आदमियत की पहचान है. अखिल ने अपने झोले में से केला निकाला और उसकी ओर फेंक दिया. उसने केला उठाया और मुंह के पास ले गई. मगर फिर रुक गई, उठी और झोंपड़ी के दूसरी ओर चल दी.


हम लोगों को कुतूहल हुआ. हम लोग भी पीछे-पीछे चले. वह औरत सहन के एक कोने में गई. वहीं एक मुरदा था, जिसकी सड़ांध आंगन में फैल गई थी. देहाती लड़के ने उसे देखा और पहली बार उसके मुंह से आवाज़ निकली,“जुलाहा! यह तो जुलाहे की लाश है. यह जुलाहिन उसे भी भूत बनाने आई है.”


जुलाहिन लाश के पास गई. लाश सड़ रही थी और उसमें चींटियां लग रही थीं. उसने केला और जड़ें लाश के मुंह पर रख दीं और हंसी. हंसी की आवाज़ मुंह से नहीं निकली, मगर खीसों को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि वह हंसी होगी. दूसरे ही क्षण वह बैठ गई और मुरदे की छाती पर सिर रख सुबकने लगी.


“यह जुलाहिन है? मगर यह तो कम-से-कम सत्तर बरस की होगी.”


“सत्तर बरस. No, it is dropsy, देखते नहीं, ज़हरीली जड़ें खाने से इसकी नसों में पानी भर गया है, मांस झूल गया है.” अखिल बोला,“इस मुरदे को हटाओ, वरना यह भी मर जाएगी.”


उसके बाद हम लोग झोंपड़े के भीतर आए. पास में एक गड्ढा था. सोचा, इसी में लाश डाल दी जाए. भीतर आए, लाश के पास से जुलाहिन को हटाया और उसकी लाश भी एक ओर लुढ़क गई. मैं घबरा गया, बेहोश-सा होने लगा. अखिल ने मुझे संभाला. हम लोग थोड़ी देर चुप रहे. फिर मैं बोला-भारी गले से,“अखिल, उंगलियां कट जाने पर यह निकाल दी गई. फिर किस बंधन के सहारे, आखिर किस आधार के सहारे यह मरने से पहले जुलाहे के पास आई थी जड़ें लेकर? क्यों?”


अखिल चुप रहा-मुरदों के गांव की दोनों आख़िरी लाशें सामने पड़ी थीं.


“अच्छा उठो!” अखिल बोला.


हम लोगों ने लाशें उठाईं और गड्ढे में डाल दीं. एक ओर जुलाहा, दूसरी ओर जुलाहिन. बांस के सूखे पत्तों से उन्हें ढांक दिया. मैंने अपनी उंगली से धूल में गड्ढे के पास लिखा,“ताजमहल, 1943” और हम चल पड़े.





Saturday, November 18, 2023

मैं चमार हूं मुझे कोई शर्म नहीं है

 मैं चमार हूं मुझे कोई शर्म नहीं है हिंदी कहानी 

साथियों आज की इस वीडियो में हमने चमार जाटव की एक सच्ची घटना को सामिल किया है यह कहानी जीवन की कड़वी सच्चाई से आपको रूबरू कराने वाली है हमें उम्मीद ही नहीं बल्कि पूरा भरोसा है कि यह कहानी आपको जरूर पसंद आएगी प्यारे साथियों आप लोग वीडियो को पूरा नहीं सुनते है कहानी को पूरा जरूर सुना करे ताकि आपको पूरी और सही जानकारी मिल सके साथियों कहानी पसंद आए तो  एक लाइक जरुर करना और वीडियो को आगे शेयर करना न भूलना आपका बहुत बहुत धन्यवाद होगा। 

प्यारे साथियों आइए कहानी को शुरू करते है 

मैं चमार हूं मगर इस बात को लेकर अब मुझमे कोई शर्म नहीं है 

मैं राजू जाटव, मेरे पिता का नाम महेश जाटव था। हम चार भाई और दो बहने हैं। मेरे दो भाई और मेरी बहन मुझसे बड़ी हैं और एक छोटा भाई और छोटी बहन हैं, जो घर पर रहकर पढ़ाई करते हैं। मेरे पिता प्रतापगढ़ की कचहरी में कार्यरत थे। जिनको सिर्फ और सिर्फ बाबू लोगों के जूते साफ करने के लिए रखा गया था। 


कभी-कभी कीचड़ भी उठाने के लिए भी तब मजबूर होना पड़ता था, जब कभी जमादार कार्यालय नहीं आता था। ऐसी स्थिति में मेरे पिताजी को शौचालय भी साफ करना पड़ता था। यह सब पापी पेट के लिए पिताजी को करना पड़ता था। पेट की खातिर इंसान वह सब कर लेता है, जिसको उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। 




‘चमरौटी’ शब्द मुझे चुभा ज़रूर मगर मैं टूटा नहीं

जब तक मैंने अपने पिताजी को ऑफिस में नहीं देखा था तब तक तो मुझे सब कुछ ठीक लगता था। एक दिन मैं तेज़ बारिश में पिताजी को खाना देने गया। मैंने वहां पर जो देखा उसे देखकर दंग रह गया। मेरा पूरा शरीर थरथराने लगा। मेरे पिताजी कुल्हड़ में गंदी ज़मीन पर बैठ कर चाय पी रहे थे और जो बाबू अंदर जा रहा था उसके जूते साफ कर रहे थे।

मैं दरवाजे की आड़ में छुप गया और इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए चिल्लाया, “बाबा कहां हैं?” अंदर से आवाज़ आई, “देखा भई चमरौटी से कौनो आया है। महेशवा का बेटवा आवा बाटिन का” यह ठेठ अवधि भाषा है। मैं यह चमरौटी शब्द सुन कर थोड़ा संकुचित हुआ और बाबा को खाना देकर घर लौट आया। ‘चमरौटी’ शब्द मुझे चुभा ज़रूर मगर मैं टूटा नहीं।


मेरे विद्रोह की शुरुआत

मैंने माँ से पूछा हमारा विद्यालय में दाखिला क्यों नहीं होता? भैया भी नहीं पढ़े, दीदी भी ब्याह दी गईं। अम्मा बोली, “दलित को कौन पूछे बेटवा, ऊपर से तुहार जाति भी चमार।”


मैंने सोचा कि क्या यह बात सच में मायने रखती है कि शिक्षा ग्रहण करने में जाति और गोत्र पूछा जाता है? मैंने माँ से कहा, “अम्मा बाबा अक्सर भीमराव अंबेडकर जी के बारे में बताते हैं। वह भी तो दलित थे, फिर उन्होंने अपनी शिक्षा कहां से ली? माँ ने जवाब दिया, “तू खुद ही बाबा से पूछ लिहे बेटवा, हमका नाहीं पता।”

यह मेरे विद्रोह की पहली शुरुआत थी, क्योंकि गाँव के बाहर मुझको ‘चमार-चमार’ कह कर पुकारा जाता था। अब यह शब्द मुझे काटने को दौड़ने लगा था। मैंने बाबा से शिक्षा के लिए पूछा, तो उन्होंने बताया मैं शिक्षा ग्रहण कर सकता हूं, मगर शहर जाकर।


मैंने बाजू के गाँव में रहने वाले लाला ठाकुर के बेटे मनीष से बात की। उन्होंने मुझे बताया कि तुम्हारी उम्र अभी है तुम कक्षा छठी में दाखिल हो सकते हो‌ लेकिन तुमको बेसिक ज्ञान होना ज़रूरी है। 


जैसे तैसे मैंने अपनी 5 वीं तक की पढ़ाई पूरी की

मनीष जी की मदद रही कि उन्होंने मुझे शहर तक तो पहुंचा दिया। मैं प्रतापगढ़ के एक विद्यालय में दाखिला लेने पहुंचा। वहां के अध्यापक ने बाबा को बुलवाया, मैं भागता-भागता बाबा को बुलाने गया। बाबा खुशी से झूम उठे।


उन्होंने बाबू से पूछा कि बेटे के दाखिला के लिए चौक तक जाना है। बस आधे घण्टे में वापस आ जाऊंगा साहब। वैसे मेरे लिए तो वह आदमी ना साहब था और ना ही कोई बाबू। बस जैसे-तैसे मेरा दाखिला हो गया। बाबा ने मुझे घर भेजते हुए कहा अगले दिन तुमको स्कूल जाना है। मैं वापसी में कपड़े लेता आऊंगा। 

मैं बहुत खुश था, मुझे आशा की किरण नज़र आने लगी थी। मैं भी बाबू बनना चाहता था, ताकि दलित समुदाय के लोगों को जागरूक कर सकूं। घर में भी खुशी का माहौल था। मैं बाबा की बाट जोहने लगा, उनका रास्ता देखने लगा।


दूर से मुझे आज तांगा आता दिखाई दिया। आज बाबा तांगे से घर आ रहे थे, उनके पास साईकल नहीं थी आज। बाबा के हाथ में थैला था, जिसमें मेरे स्कूल के कपड़े थे।

इसी बीच बाबा का हो गया देहांत

मैंने देखा कि बाबा ने एक हाथ से अपना पेट पकड़ा हुआ था। बाद में पता लगा बाबा को उनके बाबू ने ऑफिस देर से पहुंचने पर पेट में लात मार दी थी। जिससे उनके आंव (मल में खून) आने लगा। मेरे बाबा को माँ ने बिस्तर पर लिटाना चाहा, मगर बाबा का वहीं देहांत हो गया था। वह हम सब को अलविदा कह गए थे। 


उस दिन मेरे अंदर का राजू टूट कर बिखर गया था। मेरे बाबा की अर्थी में सब दलित समुदाय के लोग ही शामिल हुए थे। जैसे ही घर से बाबा की अर्थी उठी और चलने लगी, तो पीछे से जितने घर थे। सभी लोग अपने घर के आगे पानी से सफाई करने लगे और मंत्र का जाप करने लगे। उस समय मानो ऐसा लग रहा था जैसे हम इंसानों के बीच नहीं जानवरों के बीच में रह रहे हों। 


अब तो मुझे ‘चमार’ शब्द से ही डर लगने लगा था

बहरहाल, मुझे फिर से एक मानसिक आघात झेलना पड़ा। मुझे चमार शब्द से ही डर लगने लगा था। मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपने पिता को श्रद्धांजलि के तौर पर अपनी शिक्षा जारी रखने और एक कामयाब इंसान बनने की शपथ ली। मैंने 12वीं कक्षा विज्ञान से पास की और दिल्ली के लिए निकल पड़ा।

मैं अपने गाँव से दूर था और उस शहर में था जो देश की राजधानी है। खुद को संभालने में मुझे करीब 2 साल लगे। मैंने कॉलेज में दाखिला लिया। बता दूं कि मैं यहां कॉलेज का नाम नहीं ले सकता। वहां पर जैसे-तैसे करके मैंने दो साल गुज़ारे हैं। लोगों से कम ही बोल-चाल थी। बड़ा शहर है लेकिन लोग नाम से ज़्यादा ‘सरनेम’ पर ध्यान देते हैं। 

लोग मुझे ‘चमार’ कहकर बुलाने लगे

एक दिन मैं क्लास में बैठा था। सभी लोग अपना अपना पूरा नाम लिखवा रहे थे। कोई वर्कशॉप थी उसी के लिए क्लास में होड़ मची हुई थी। जैसे ही मैंने अपना नाम बोला, वहां खड़े सर ने कहा, “जाटव, चमार हो क्या?”


उनका इतना ही बोलना था और मेरे ऊपर तो जैसे किसी ने हथौड़े से वार कर दिया हो। मैंने सिर हिला कर हां में जवाब दे दिया। फिर उस दिन से जब तक मेरा कॉलेज पूरा नहीं हुआ, मैं चमार नाम से ही पुकारा जाता रहा। 


हर दिन मेरे मष्तिष्क पर यह शब्द चोट करता रहा। दरअसल मुझे चमार शब्द से तकलीफ नहीं होती थी। मुझे लोगों की विचारधारा और सोच पर शर्म आती थी। मुझे दुःख होता था कि समानता का पाठ पढ़ाने वाले भारत के नागरिकों को क्या हो गया है? जाति के नाम पर हर दिन लोगों की आत्मा को मारा जा रहा है।

मैंने फैसला किया मैं ‘चमार’ शब्द के साथ ही जीऊंगा

मैंने फैसला किया कि मैं दिल्ली नहीं छोडूंगा और इस शब्द के साथ ही जीऊंगा। मैं इसके कारण मानसिक अवसाद से करीब पांच सालों से जूझ रहा हूं। अब मैं खुद के नाम के आगे जाटव नहीं चमार लगाकर ही बताता हूं कि मैं “राजू चमार” हूं। जिसको मेरा साथ पसंद आता है, वह मेरे साथ हैं। जिन्होंने ज़्यादा धार्मिक मापदण्डों को अपने सिर पर चढ़ा लिया है, वह मुझे छोड़कर चले जाते हैं। 


बचपन से अब तक इस शब्द से मैं भागता आया हूं लेकिन अब ठान लिया है। मैं इस ‘चमार’ शब्द को अपना दोस्त बनाऊंगा। जिसे इस अमानवीय समाज ने एक गाली के रूप में प्रयुक्त किया है।


मैं भारतीय हूं और एक मज़बूत नागरिक भी हूं। ऐसे तो हज़ारों भारतीय नागरिक होंगे जो सिर्फ नाम के ही भारतीय हैं। भारत में सबसे महत्वपूर्ण एक शब्द है, वह है ‘समानता’ जो इस शब्द को समझ गया और अपने जीवन में ढाल लिया, तो समझिए उसने इंसान होने का सुबूत दे दिया।


वहीं, जिसने भी इस समानता शब्द को सुना तो सही मगर मतलब समझा नहीं, तो समझ जाइए वह शायद मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं है।

प्यारे साथियों कहानी कैसी लगी हमे कमेंट करके जरूर बताना लाइक और शेयर करना ना भूले और चैनल को भी जाते जाते सबस्क्राइब जरूर करते जाना आपका बहुत बहुत धन्यवाद होगा साथियों इस वीडियो में इतना ही है कहानी सुनने के लिए आपका शुक्रिया जय भीम नमस्कार साथियों धन्यवाद 



एक दलित बस्ती की कथा कैथ का पेड़ अपना गांव

 एक दलित बस्ती की कथा कैथ का पेड़ अपना गांव 

आज की इस इस कहानी में कटु सत्य का सामना करना पड़ेगा इस कहानी में जूठन के कड़वे सच और दलित जाटव की दर्दनाक घटना का सामना भी इस वीडियो में सुनने को मिलेगा

एक दलित बस्ती की कथा कैथ का पेड़ 

डॉ. आंबेडकर का मत था कि किसी भी जाति के लोग अपनी इच्छा से जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस नहीं खाते थे। दलित जाति के लोग अगर जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस खाते थे, तो इसलिए कि उसे स्वच्छ खाना और ताजा मांस उपलब्ध नहीं होता था। उन्हें स्वतंत्र जीविका के अवसरों से वंचित और जीवित रहने के लिए पराश्रित बनाकर रखा गया था। 

बुद्ध ने जन्म को भी दुख कहा है और मरण को भी। मैं नहीं जानता कि बुद्ध ने सही कहा है या गलत? पर, आज जब मैं पीछे मुड़कर अपनी बस्ती के लोगों को देखता हूं, तो बुद्ध मुझे गलत दिखाई नहीं देते। हमारे लोगों का संपूर्ण जीवन दुख से शुरू होता था और दुख में ही खत्म हो जाता था। वे कीड़े-मकोड़ों की तरह पैदा होते थे और कीड़े-मकोड़ों की तरह ही मर जाते थे। उनका जन्म भी दुख था और मरण भी। शायद बुद्ध को यह संबोधि ऐसे ही श्रमिक लोगों को देखकर प्राप्त हुई होगी। पर इन दुखी श्रमिकों में भी, जो रोज थोड़ा-थोड़ा मरता था गजब की उत्सवधर्मिता थी। वे दुखी थे, पर दूसरों का दुख बांटते थे। वे असहाय थे, पर सबकी सहायता करते थे। वे, हर्ष-शोक, सब मिलकर मनाते थे।




आती थीं। यह समझ में आता है कि औरत की गणना पितृसत्ता में अंत में ही होती है, पर पत्तलों और कुल्हडों के होते हुए उनका अपने बर्तनों को लेकर आने का कारण यह था कि उनकी पंगत नहीं लगती थी, वे सब एक कमरे में समा जाती थीं और थाली को घुटनों पर रखकर या हाथ में लेकर अपने छोटे बच्चों के साथ खाती-खिलाती थीं। वे बचे हुए खाने को साथ में भी ले जाती थीं, जबकि मर्द ऐसा नहीं कर सकते थे। खैर, बहुत बार ऐसा भी होता था कि औरतों का नंबर आने तक अक्सर कोई सब्जी या कोई अन्य आईटम कम पड़ जाता था या खत्म हो जाता था। तब बेचारी उन औरतों को ही या तो फिर से बनाना पड़ता था या जो उपलब्ध होता था, उसी से काम चलाना पड़ता था। इसी समय परोसने वाले सेवक भी खाना खाते थे। वे परोसते भी थे और इस अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी दिलकश भाभियों के साथ हंसी-मजाक भी कर लेते थे। वे भाभियां भी उसका लाभ उठाते हुए उनसे लड्डुओं का अतिरिक्त भोग लगवा लेती थीं। माहौल कुछ ऐसा हो जाता था कि कुंवारे देवरों को भाभियों से नसीहत भी मिल जाती थी। कोई-कोई तो यहां तक कह देती थी कि ‘देवर जी, जल्दी शादी कर लो, तुम्हाए बच्चे पिछाए होते जा रए हैं।’ उन देवरों के पास जवाब भी तैयार रहता था। तुरंत कहते, ‘भौजी, कोई तुम जैसी मिलै तो कर लूं।’ कोई कहता, ‘भाभी अपनी भैन से करा दो न, मेरी शादी!’ इसी हंसी-मजाक में औरतों का भी खाना निबट जाता।


लेकिन ऐसे सभी अवसरों का एक घृणित, मार्मिक और हृदयविदारक दृश्य भी मेरी स्मृतिपटल पर साथ-साथ चलता है, जो भुलाए नहीं भूलता। यह दृश्य जूठन बटोरने का है। जिन जूठी पत्तलों को उठाकर बाहर घूरे पर फेंका जाता था, वहां उनमें से जूठन निकालने के लिए एक मेहतर परिवार कुछ बर्तन लिए बैठा होता था। उनके साथ ही मुहल्ले के कुत्ते भी खड़े होते थे। जब पत्तलें फेंकी जातीं, तो कुत्ते उन पर टूट पड़ते थे, जिन्हें वे मेहतर अपने डंडे से भगाकर उन पत्तलों पर से बची हुई पूड़ी और सब्जी को अपने बर्तनों में अलग-अलग रखना शुरु कर देते थे। उनका यह सिलसिला अंतिम पंगत के खाना खाने तक चलता था। जूठन बटोरने की यह प्रथा पूरे शहर के मेहतरों में प्रचलित थी। मेरी शादी 1975 में हुई थी, और 1975 तक मैंने इस प्रथा को देखा था। ये मेहतर उसी मुहल्ले में इस प्रथा को अंजाम देते थे, जो उनके ठिकाने में आते थे। दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में इस प्रथा का जो चित्रण किया है, वह अक्षरशः सत्य है। दलित लेखक सूरजपाल चौहान ने तो अपनी आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ में जूठन से भरी बाल्टी को अपने सिर पर ढोने की बेबसी का भी चित्रण किया है। 

 अगर किसी नौते पर विवाद होता, तो उसका निबटारा पुरानी कॉपियों में देखकर किया जाता था। अक्सर विवाद उतारू नौते पर होता था। अगर कोई उतारू में दो या एक रुपया कम नौता लिखवाता, तो वहां मौजूद कन्या या वर का पिता अपनी कॉपी देखकर कहता कि उसने तुम्हारी फला लड़की की शादी में, जो फला तारीख को हुई थी, पांच रुपए नौते में चढ़ाऊ दिए थे। कॉपी देखकर उसे भी बात माननी पड़ती थी। कॉपी का लिखा ही सही माना जाता था। इसमें भूल-चूक तो हो जाती थी, पर बेईमानी एक पैसे की भी नहीं होती थी। नौते की यह परंपरा विवाह में आर्थिक सहायता का एक अतिरिक्त स्रोत थी। आर्थिक सहायता का एक अन्य स्रोत ‘भात’ की परंपरा भी थी, जो आज भी है। इस परंपरा में वर या कन्या की माता के मायके से नकदी और कपड़ों के रूप में मदद आती थी। आम तौर से यह भाईयों की ओर से अपनी बहिन की सहायता होती है। नौता उतारू के रूप में लौटाना होता था, पर भात नहीं लौटाया जाता। उन दिनों नौते की रकम रुपए-दो रुपए की ही होती थी। उस दौर में यह रकम भी बहुत थी। यह एक आदमी की दिनभर की मजदूरी होती थी। इस रस्म से पांच-छह सौ रुपए इकट्ठे हो जाते थे, जो सस्ती की उस दौर में काफी मायने रखते थे।

विवाह और नौते में सामुदायिकता का यह भाव अब दिखाई नहीं देता। एक तरह से सहकारिता पर आधारित यह व्यवस्था अब पूरी तरह खत्म हो गई है।


यही सामुदायिकता और सहकारिता की भावना मृत्यु के अवसर पर भी देखी जाती थी। विवाह के सद्दे की खबर की तरह ही मृत्यु की खबर भी सातों मुहल्लों में भिजवाई जाती थी। जिस बस्ती में मौत होती, उसकी खबर सभी बस्तियों में भेजने के लिए एक आदमी को भेजा जाता। वह न सिर्फ यह खबर देता कि फलां मुहल्ले में गमी हो गई है, बल्कि मरने वाले का नाम और मैयत या मिट्टी उठने का समय भी बताता था। खबर सुनकर लोग अपने काम से जल्दी उठ जाते और समय से पहले ही गमी वाले घर पहुंच जाते थे। जो समय पर नहीं आ पाते थे, वे सीधे श्मशान पर पहुंचते थे। मृतक के घर के पास एक खाली जगह पर दरियां बिछा दी जाती थीं, जिन पर लोग आकर बैठते जाते थे। उनके बीच में एक-दो हुक्के और कुछ बीड़ी के बंडल व माचिसें रख दी जाती थीं। हर बस्ती में कुछ लोग थे, जो अर्थी को बांधने में निपुण होते थे। उन्हीं लोगों को अर्थी बांधने का काम सौंपा जाता था। कफन अन्य सामग्री को छोड़कर अर्थी का सामान कुम्हारों के यहां से लाया जाता था, जिनमें बांस, फूंस, खपच्चियां होती थीं। कफन बाज़ार जाकर कपड़े की दुकान से लाया जाता था। यह भी नियम था कि जिस घर में मौत होती थी, उस घर का सदस्य कफन आदि सामग्री लेने नहीं जाता था। पर खर्चा सारा अंतिम क्रिया का मौत वाला वही परिवार करता था। अगर वह परिवार बहुत गरीब होता, तो अंतिम क्रिया का सारा इंतजाम परस्पर सहयोग से इतनी आसानी से हो जाता था कि पता ही नहीं चलता था। यह सामुदायिकता थी बस्ती में। अमूमन शाम को चार बजे तक अर्थी उठ जाती थी। इसके बाद रात में अंतिम संस्कार नहीं किया जाता था।


रामपुर की कोसी नदी के तट पर बने श्मशान घाट तक शवयात्रा पैदल ही जाती थी। आज यह श्मशान घाट बहुत ही खूबसूरत और मनमोहक ‘स्वर्गधाम’ बना दिया गया है, जहां आराम से बैठाकर बतियाया जा सकता है। पर तब वह एक डरावना स्थल होता था। जब तक चिता जलती, तब तक सभी लोगों को खड़े रहना ही पड़ता था। जब चिता में आग लग जाती, तो उपस्थित लोगों की गणना की जाती थी, और यह पता लगाया जाता था कि किस मुहल्ले और किस घर से गमी में कौन नहीं आया है। उस अनुपस्थित व्यक्ति पर उसी वक्त अर्थदंड लगाया जाता था। अगर कोई व्यक्ति गमी के अवसरों पर लगातार अनुपस्थित रहता था, तो उसका हुक्कापानी बंद कर दिया जाता था, अर्थात् सामाजिक बहिष्कार। इसलिए कुछ लोग, जो किसी कारण से खुद नहीं आ सकते थे, दंड से बचने के लिए अपने लड़के को भेज दिया करते थे। ऐसी थी सामुदायिकता! जब घर से श्मशान तक शवयात्रा गुजरती थी, तो कम-से-कम उसमें डेढ़-दो सौ लोग शामिल होते थे।

एक दिन मैंने देखा कि कारखाने के अंदर एक कारीगर मुर्गा बना हुआ है और उसके ऊपर दो ईंटें रखी हुई हैं। मैं उस समय 14-15 साल का रहा होऊंगा, स्कूल में ऐसे दृश्य देख चुका था, इसलिए किसी के मुर्गा बनने का मतलब अच्छी तरह जानता था। मैं डर गया। मेरे पिता ही नहीं, वहां के सभी कारीगरों के चेहरों पर डर साफ दिखाई दे रहा था। कंवल भारती द्वारा लिखित आत्मकथात्मक शृंखला का अंतिम भाग

. आंबेडकर ने अपने लेख ‘हेल्ड एट बे’ में लिखा है कि “जब सवर्ण और दलित मिलते हैं, तो वे मनुष्य से मनुष्य के रूप में नहीं मिलते, बल्कि परस्पर दो भिन्न समुदायों के रूप में या दो भिन्न राज्यों के नागरिकों की तरह मिलते हैं।” दुखद रूप से यह आज भी सच है। यह यथार्थ सिर्फ गांवों का ही नहीं है, शहरों का भी है। शहर में भी एक और शहर पीड़ितों, उपेक्षितों और दलितों का होता है। इस पृथक शहर के साथ किसी की कोई सहानुभूति नहीं होती है। हम कह सकते हैं कि वे सदैव अजनबियों की तरह जीते हैं। एक ही शहर में रहने वाले एक समुदाय के लोग सड़क पार करते ही दूसरे समुदायों के लिए अजनबी हो जाते हैं। डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि गांवों में दलित जातियों के लोग इसलिए सामाजिक बहिष्कार के शिकार होते हैं, क्योंकि वे परंपरा के विरुद्ध खड़े होते हैं। सामाजिक बहिष्कार और अत्याचारों के कारण ही वे गांव छोड़कर शहरों में जाकर बसते हैं। लेकिन यह पलायन गांवों में ही नहीं होता, बल्कि शहरों में भी होता है। वह परिस्थिति बहुत पीड़ादायी होती है, न केवल विस्थापितों के लिए, बल्कि उनके प्रियों के लिए भी। एक बार बहुजन नायक कांशीराम ने दलित विस्थापितों पर बहुत ही सही सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था कि भारत सरकार सिर्फ कश्मीरी पंडितों की चिंता करती है, जिन्होंने आतंकवाद से बचने के लिए विस्थापन किया था। वह उनके लिए दिल्ली में पुनर्वास मंत्रालय कायम करती है, पर उसे उन लाखों विस्थापित दलितों की कभी चिंता नहीं हुई, जो दबंगों, सूदखोरों और जमींदारों के आतंक से बचने के लिए अपनी जड़ों से उखड़ते हैं। क्या उनके लिए कोई मंत्रालय सरकार ने कायम किया?

इस अंतिम भाग में मैं इसी विस्थापन पर बात करूंगा, जिसकी यादें आज भी शूल-सी चुभती हैं। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल क्षेत्र कैराना में कुछ हिंदुओं के पलायन पर नेताओं ने बहुत हो-हल्ला मचाया था। उसके पीछे वोट की राजनीति थी। वोट की राजनीति तो सत्तर के दशक में भी थी, पर उसे दलितों की चिंता नहीं थी। उस समय भी मीडिया के अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकार थे। इसलिए, हमारी बस्ती के जाटवों का विस्थापन किसी के लिए भी चिंता का विषय नहीं बन सका था। मैं भी आज आधी सदी के बाद उसे इतिहास में इसलिए दर्ज कर रहा हूं, क्योंकि कबीर साहेब के शब्दों में वह मुर्दों का गांव था– संवेदनहीन, पाषाणतुल्य, प्रतिरोध-विहीन, घोर अशिक्षित और घोर दयनीय। हालांकि, औरतें प्रतिरोध-विहीन नहीं थीं, वे खूब विरोध करती थीं और लड़ती भी थीं, लेकिन, मर्द उन्हें, पता नहीं क्यों, चुप करा देते थे। इसलिए वे लोग पलायन या विस्थापन को समाज-व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखते थे, बल्कि उसे अपने नसीब का खेल समझते थे।


चूंकि हिंदू समाज व्यवस्था में दलित-पिछड़ी जातियों के सारे काम-धंधे पैतृक समझे जाते हैं, इसलिए हमारी बस्ती के जाटव दूध या सब्जी बेचने-जैसा कोई काम नहीं कर सकते थे, क्योंकि अगर वे ऐसा करते, तो कोई भी उनसे यह सामान नहीं खरीदता। इसी का फायदा कारखाना-मालिक और साहूकार उठाते थे। मैं पीछे लिख चुका हूं कि कारखाना-मालिक कारीगरों को उधार में कच्चा माल देकर अपने कारखाने में ही उनसे जूते तैयार करवाते थे, और वही जूते वे उनसे सस्ते में खरीद कर अपना उधार काटकर, जो धन बचता था, वह उन्हें दे देते थे। कच्चा माल और जूते की कीमत कारखाना-मालिक ही तय करते थे। इस जाल में सारा लाभ मालिकों को ही मिलता था, कारीगरों के हाथ में उतना पैसा भी नहीं आता था, जिससे वे हफ्ते भर की दाल-रोटी चला लेते, या घर की कोई और जरूरत पूरी कर लेते। शोषण के इस जाल को वे इस खूबसूरती से बुनते थे कि उन भोले-भाले कारीगरों का उसे समझना मुश्किल था। फिर भी किसी प्रकार दाल-रोटी तो उनकी चल जाती थी, एकाध वक्त चूल्हा नहीं भी जलता था, तो उसे वे भगवान की मर्जी मानकर सब्र कर लेते थे, लेकिन इसके सिवा भी जीवन-निर्वाह की जरूरतें थीं, हारी-बीमारी थी, तीज-त्योहार थे, बरसात से पहले घर की मरम्मत और बच्चों के शादी-ब्याह की चिंता थी। हालांकि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई उन गरीबों की भी चिंता में नहीं थी, पर जिनकी चिंता में थी, उनके लिए घर चलाना और भी मुश्किल होता था। इन सारी जरूरतों को वे कर्ज लेकर पूरा करते थे, जो वे बनियों से लेते थे या अपने कारखाना-मालिकों से। कुछ लोग दोनों से कर्ज लेते थे। और उनकी पूरी जिंदगी उस कर्ज को चुकाते हुए ही गुजर जाती थी। वे बनिए का ब्याज देते रहते थे, और कारखाना-मालिक का तो जाल ही इतना मजबूत था कि वे उसमें बंधे रहते थे। ऐसे लोग इज्जत की नहीं, जिल्लत की जिंदगी जीते थे। कारखाने का मालिक और बनिए का मुनीम उनके साथ गारी-गुफ्तारी (गालियां) से लेकर मारपीट तक करता था।

 कुछ दिन काम करके उसने वहां के माहौल से डरकर काम छोड़ दिया था। इस अपराध की उसे भारी सजा दी गई। उसे पकड़कर कारखाने में लाया गया, और मुर्गा बनाकर उसके नीचे मोमबत्ती जला दी गई। जब मोमबत्ती की लौ उसके चूतड़ को जलाने लगी, तो उसकी चीखें शटरबंद हॉल के अंदर से बाहर तक जा रहीं थीं। पर, राह चलते किसकी हिम्मत थी कि वह शटर खुलवा कर देखता कि अंदर क्या हैवानियत चल रही थी? 


इस हैवानियत ने जाटवों के दिलों पर जख्म तो कर दिए थे, लेकिन उनमें विरोध करने का साहस नहीं हो रहा था। सबकी अपनी-अपनी कमजोरियां थीं, और सब ही उसके कर्जदार थे। वे कर्जा चुका नहीं सकते थे और कर्जे की राजनीति को जानते नहीं थे। वे पहली पीढ़ी के लोग थे, जिनकी दूसरी पीढ़ी भी उन जैसी ही थी, पर उसके अचेतन में गुस्सा जरूर जमा हो रहा था। फिर भी बिरादरी के कुछ जिम्मेदार लोग इस घटना पर विचार करने के लिए हमारी बस्ती में नेतराम के घर में इकठ्ठा हुए। इनमें बन्नीराम, रामसरन, प्यारेलाल, मुरारी लाल, नत्थूलाल और मेरे बाप थे। मेरे बाप ने धूमी खां से बात करने का सुझाव रखा था। वह हमारे मुहल्ले के करीब ही घेर नज्जू खां में रहते थे और कांग्रेस के नेता थे। पर रामसरन बोले, “हमें बात को बढ़ाना नहीं है। हमें इशरत मियां से जाकर शिकायत करनी चाहिए।” पर किसी ने भी यह कहने का साहस नहीं किया कि इस हैवानियत की रिपोर्ट प्रशासन में जाकर करनी चाहिए। अगर वे उस दिन पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत कर लेते, तो, भले ही ताकत के सामने वे हार जाते, पर जाटवों के प्रतिरोध का इतिहास बन जाता। लेकिन, जब मैंने अपने बाप से पूछा, “इशरत मियां ने क्या इंसाफ किया था?” तो उनका जवाब था कि “इशरत मियां के पास कोई गया ही नहीं था।” इतना खौफ था, उस समय के जाटवों में, कि अपने ऊपर हो रहे जुल्म का बदला लेना तो दूर, उसकी शिकायत भी वे नहीं कर सकते थे। लेकिन बाप ने बताया कि उस घटना के बाद, फिर कोई कारीगर वहां काम करने नहीं गया था, और वह कारखाना बंद हो गया था। यह भी एक प्रतिरोध ही था।

साथियों इस कहानी में इतना ही है आप सभी का वीडियो देखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया जय भीम नमस्कार साथियों