Monday, September 25, 2023

ठाकुर का कुआ || अछूत पति पत्नी की व्यथा

 ठाकुर का कुआ || अछूत पति पत्नी की व्यथा 


साथियों गंगी और जोखू के मन में उठा था कि हम क्यों नीच हैं?

और ये लोग ऊँचे क्यों हैं साथियों विचारो की इस कहानी में ढेरो सवाल खड़े होते है यह कहानी स्वर्णों और अछूतो के भूतकाल से लेकर वर्तमान समय के विचारो पर आधारित है इसमें देश में समय समय पर दलितों के ऊपर होने वाली कई घटनाओं के विषय में भी जानकारी दी गई है 

अछूतों की गहन समस्या पर लेखक के विचार 

' जातिप्रथा के मूल कारणों पर कहीं न कहीं चोट



करने का प्रयास तो करते है लेकिन जिस धर्म के अधीन इस भेदभाव को मान्यता प्राप्त है

उसके विरोध में लेखक ने चुप्पी साध ली है। धार्मिक आडंबर पर गंगी ने चोट की है

'ये लोग गले में जनेऊ जेवड़ी तागा डाल लेते हैं। यहाँ तो जितने भी हैं, एक से बढ़ाकर एक छल

यें करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें । 

गंगी के इस कथन में यह सत्य छिपा है कि तथाकथित ऊँची जातिवालों को नीचता

के किसी भी काम को करने मे शर्म नहीं महसूस होती। जिस वर्ग के पास

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ता होगी, उन्हें ऐसे कार्यों से कोई भी बदल 

नहीं कर सकता, ना ही रोक सकता है, क्योंकि इनके द्वारा किए गये अपराध को

अपराध नहीं, बल्कि जन्मजात अधिकार माना जाता है। न्याय, धर्म, नीतिमूल्यों की

सुरक्षा करने वाली संस्थाओं पर भी इन्हीं का ही वर्चस्व है। केवल कथित ऊँची जाति

होने भर से इन्हें दूसरों पर अन्याय, अत्याचार करने और उनका शोषण करने का

अधिकार प्राप्त है जिसे आज भी हम देखते हैं कि कथित ऊँची जाति के बड़े से बड़े

अपराधी को कोई भी न्याय संस्था और राज्य जिसमें पुलिस, सरकारी तंत्र, कानूनी

व्यवस्था सजा देने में कामयाब नहीं हो पाती।वर्ष 1992 में राजस्थान के कुम्हेर का हत्याकांड़ इसका जीता जागता 

उदाहरण है। जिसमें पूरी की पूरी दलित बस्तियों को और उसमें रह रहे दलित चमार जाटव स्त्री,

पुरुष, बच्चों सहित आग लगाकर राख के ढेर में तब्दील कर दिया था। आंध्रप्रदेश के चुं दुर में हुई

दलितों की सामुहिक हत्याओं के लिए जिम्मेदार सवर्ण वर्ग कानूनी शिकंजे से आज भी बाहर आज़ाद घूम रहा है, क्योंकि अछूतों की हत्याओं के समय चुं दुर की पुलिस

सवर्णों के साथ ही हत्या के स्थान पर मौजूद थी। वहाँ की पुलिस, राजनीतिक सत्ता

और न्याय संस्थाओं ने सवर्ण अत्याचारियों को बचाने में पूरा कमाल दिखा दिया था। न्याय

उन्हें नहीं मिला जो असहाय और अछूत थे। 'ठाकुर का कुआं' में तत्कालीन युग के

सवर्ण वर्ग के अंतरंग संबंधों के इस घृणित चरित्र को लेखक प्रेमचंद ने

ईमानदारी से उघाडा है। "अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की एक भेड़

चुरा ली थी और बाद में उसे मारकर खा गया। इन्हीं पंडितो के घर में तो बारहों मास जुआ

होता है। यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। और हमसे फ्री में काम करा लेते हैं, मजूरी देते इनकी

नानी मरती है किस बात में हैं हमसे ऊँचे?” गंगी द्वारा उठाए गये सवाल तत्कालीन

सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों की वास्तविकता पर एक करारी चोट है। 

कहानी पानी की समस्या को लेकर गहन चिंता में डूबे अछूत पति-पत्नी, जोखू और

गंगी को लेकर शुरू होती है। जोखू और गंगी के अछूत होने के कारण ही पानी की

समस्या से वे जूझ रहे है। 'जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू

आयी।' “जोखू बोला- यह कैसा पानी है मारे बास के पिया नहीं जाता।” लम्बे समय

से बीमार जोखू प्यास के मारे तड़प रहा था। गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया

करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी तो उसमें

बदबू बिल्कुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया तो सचमुच बदबू

थी। ज़रूर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा।' गंगी के सामने पानी की

समस्या जैसे मुंह फाड़े खड़ी हो गई। वह अन्य गरीब सवर्ण महिलाओं जैसे सवर्णों के

कुएँ से पानी नहीं भर सकती थी। अछूतों को सवर्णों के कुएँ पर चढ़ने का अधिकार ही

नहीं था। मगर सवाल यह है कि 'दूसरा पानी आवे कहां से ? यह हमें नही भूलना चाहिए अछूतों की दयनीय आर्थिक दशा, उनकी निम्न सामाजिक प्रतिष्ठा और हर

रोज अस्पृश्यता के कारण अपमान जनक स्थितियों से गुजरने की पीड़ा की स्थिति को दर्शाता 

हैं। पानी के स्रोत ऊँची जातियों के अधिकार में होने और अछूतों के

साथ अस्पृश्यता का व्यवहार बरता जाने के कारण अछूत, ठाकुर-राजपूत या साहू के

कुओं से पानी नहीं ले सकते। जोखू के शब्दों में अछूतों की वास्तविक स्थिति को

प्रेमचंद अभिव्यक्त करते है : 'ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट

भगायेंगे। ‘साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ भी कौन पानी भरने

देगा? और कोई कुआं गाँव में है नहीं।' जोखू के इस बयान से यह साफ पता चलता

है कि अछूतों की आर्थिक दशा ऐसी नहीं कि वे अपने लिए कुआं बना सके,

मजबूरन सवर्णों के आगे पानी के लिए गिडगिड़ाने के सिवाए उनके पास कोई अन्य

विकल्प नहीं है। पानी जो मानव जीवन की नितांत जरूरत है, जिसके लिए एक

इन्सान को बेबस होना पड़े, और मनुस्मृति के विधानों का पालन करने में सवर्ण

समाज आज भी लज्जा महसूस न करें, अमानवीय अत्याचार करके जाति अंहकार की तुष्टि

करें, यह शायद संपूर्ण संसार में धार्मिक कट्टरता का एक अकेला उदाहरण है।

गंगी इतना तो जानती थी कि खराब पानी पीने से बीमारी बढ़ जायेगी लेकिन

अशिक्षा के कारण यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी चली जाती है। गंगी. बोली 'यह· पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन सा जानवर मरा है।

दूसरे कुएँ से मैं

साफ पानी लाये देती हूँ।' जोखू बहुत आश्चर्य में पड़ गया, 'लेकिन दूसरा पानी कहां

से आएगा’ गंगी कहती है “दो दो कुएँ हैं, एक लोटा पानी न भरने देंगे।" जोखू ने कहा

 'हाथ पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ जा चुपके से | ऐसा क्यों होगा?

क्योंकि 'ब्राह्मण देवता आशिर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे और साहुजी एक के पांच

करने में लगे रहेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है ? दर्द छोड़ें यहाँ तो मर भी जाए

तो द्वार पर कोई झांकने तक नहीं आएगा। कंधा देना तो बड़ी बात है। जोखू के इस

कथन में सदियों की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। वह यह तो नहीं समझ पा रहा कि ऊँची जातियों में आज 

तक असंवेदनशील क्यों हैं, उनके दुख में शामिल अन्य 

जातियाँ अछूतों के प्रति इस हद तक असंवेदनशील क्यों हैं, उनके दुख में शामिल

होने, उनकी गरीबी को हटाने या उनकी मृत्यु पर भी कोई क्यों नहीं साथ आता ?

 अछूतों की एक गहन समस्या

'पानी' की है जिसकी ओर सबसे प्रथम ध्यान आकर्षित किया है।

स्वाधीनता के राजनीतिक एजेंडे पर छुआछूत की समस्या को प्रथम बार शामिल किया

गया था क्योंकि डॉ. अम्बेडकर का दलित मुक्ति आंदोलन तब तक जोर पकड़ चुका

था। स्वयं गांधीजी भी इस समस्या से अवगत हो चुके थे फिर भी डॉ. आंबेडकर पर

मानसिक और राजनीतिक दबाव डालकर पूना पैक्ट द्वारा, अछूतों को मिले पृथक

निर्वाचन अधिकार से वंचित कर दिया। अछूतों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले

गांधी जी ने अछूतों को ऊपर उठाने के डॉ. आंबेडकर के प्रयासों को जबरदस्त बाधा

पहुँचाई। बाद में अछूतों के साथ सहभोजन और आंतरजातीय विवाह को अस्पृश्यता

निवारण कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा बनाने वाले गांधीजी अछूतों के प्रति अपनी निर्ममता

और असंवेदनशीलता और ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर चुके थे, क्योंकि

जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के वे कट्टर समर्थक रहे हैं।

गांधीवादी विचारों का प्रभाव तत्कालीन लेखकों की रचनाओं पर पड़ना स्वाभाविक था,

क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए छेड़े गए देशव्यापी संघर्ष के गांधी जी नेता थे।

 जातिप्रथा और ऊँच-नीच भेदभाव पर कमजोर सी प्रतिक्रिया गंगी के मार्फत

प्रेमचंद करते हैं, गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने

लगा - 'हम क्यों नीच हैं? और ये लोग क्यों ऊँचे है? गंगी का गुस्सा केवल शब्दों में

अभिव्यक्त होता है, यथार्थ में गंगी इनका मुकाबला नहीं कर पाती और अंततः ठाकुर

के कुएं से गंगी का संघर्ष किए बिना भागना सीधे-सीधे सवर्ण आधिपत्य के सामने

समर्पण दर्शाता है। क्योंकि 'ठाकुर का कुआँ' कहानी गंगी की ठाकुर के कुएँ से पानी

लेने की कोशिश करने की घटना के इर्द गिर्द ही घुमती है। “गंगी का विद्रोही दिल

रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा" प्रेमचंद का यह कथन जातिप्रथा

से उद्भूत छुआछूत की घिनौनी परंपरा के खिलाफ गंगी के मन में उठ रहे गुस्से को

दर्शाती है, इसलिए अगला प्रश्न भी गंगी के द्वारा उठाया गया है '

क्या ब्रिटिशकालीन शासन व्यवस्था भी ब्राह्मणवाद के सामने इतनी पंगु थी कि न्याय

के नाम पर वहाँ न्याय का मखौल उड़ाया जाता था ? अथवा सामंतवादियों द्वारा ब्रिटिश

शासन व्यवस्था के समर्थन के बदले उन्हें मिली हुई सुरक्षा थी। लेकिन गरीब, अछूत,

मजदूर और किसान पर तो पुलिस और ब्रिटिश शासन का मानो सदैव कहर टूट पड़ता

था। लगान न भरने पर खेत, घर बार निलाम हो जाते और अछूतों को बेगार न करने

पर जान तक गंवानी पडती जैसे “मंहगू को इतना मारा था कि महीनों खून थूकता

रहा।" और इसमें पुलिस बढ़चढकर पूंजीपति और साहुकारों, जमींदरों का साथ

थी। तब जुआघर चलाते पंडित, चोरी की गई भेड डकारने वाले ठाकुर और घी में तेल

की मिलावट करके बेचने वाले साहू को धोखाधड़ी अन्याय और अपराध करने पर भी,

सजा न होने की छूट कैसे मिलती रहीं है? इन सभी सवालों के जवाब हमें धर्म और

जातियों के कथित वर्चस्व के कारण सत्ताधारियों तथा न्याय व्यवस्था द्वारा अपनाई

दोगली नीतियों में मिलेंगे। भवरीबाई पर सवर्ण पुरुषों द्वारा किए गए बलात्कार की

घटना का निषेध अंतर्राष्ट्रीय मंच से सारे विश्व की महिलाओं ने एक साथ मिलकर

किया था। भवरीबाई की अस्मिता की सांझी लड़ाई देश के महिला आंदोलन ने लड़ी

थी। लेकिन राजस्थान की न्याय पालिका के एक पुरुष जज ने धर्म-जाति-वर्णवादी

और नारी विरोधी निर्णय देकर भंवरीबाई पर हुए अत्याचार के लिए न्याय के बदले

फिर अन्याय किया। यह अन्यायपूर्ण और जातिवादी निर्णय देते हुए कहा कि सवर्ण

पुरुष किसी दलित स्त्री पर बलात्कार नहीं कर सकते, यह धर्मसंगत नहीं है। इस

जाति अंहकार और पुरूष अहंकार से भरे जज के निर्णय ने देश की दलित महिलाओं

को फिर एक बार न्यायपालिका के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण न्याय से वंचित कर

दिया। यह इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे भारत में दलित महिला पर हुए जघन्य

अत्याचार के प्रति न्यायपालिका द्वारा दिया गया भेदभावपूर्ण निर्णय था।

अछूतों के प्रति शासनतंत्र, न्यायपालिका और पुलिस कितनी असंवेदनशील और

जातिवादी है प्रेमचंद की यह कहानी स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि में सामाजिक

आर्थिक, धार्मिक स्थिति की सच्चाई को हमारे समक्ष खोल देती है। गंगी सोचती हुई

कुएँ पर पहुँची, कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। तो गंगी की छाती धक-धक

करने लगी। 'कहीं कोई देख ले तो गज़ब हो जाये ।'

गंगी जानती है कि उसे किसी ने देख लिया तो उसका बचना मुश्किल है। एक घड़े

पानी की कीमत जान गंवाकर चुकानी पड़ सकती है। उस स्थिति की कोई सवर्ण

स्त्री क्या कल्पना कर सकती है? कि पानी जो जीवन की जरूरत है, उसके लिए

अछूतों को इस कदर बेबसी का सामना क्यों करना पड़े? गंगी अभी कुएँ के पास

तक भी नहीं पहुँची थी, पेड़ों की आड़ में छुपकर वह ठाकुर का आंगन खाली हो जाने

का इंतजार करने लगी। इसी समय दो स्त्रियां आकर पानी भरने लगी।' जो आपस में

अपना दुख भी बांट रही थी एक स्त्री ने दूसरी से कहा 'खाना खाने चले और हुक्म

हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं। हम लोगों को आराम से

बैठे देखकर जैसे- मरदों को जलन होती है। हां, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर

भर लाते। बस हुकुम चला दिया कि पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं। दूसरी

स्त्री ने पहली की व्यथा सुनकर, स्त्री की सामाजिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से कहा 

और क्या हो तुम? रोटी कपड़ा नहीं पाती? दस-पांच रूपये

भी छीन झपटकर ले ही लेती हो और लौंडिया कैसी होती ' तथाकथित ऊँची जातियों मे

स्त्री अस्तित्व को नकारकर उसे केवल एक दासी अर्थात् गुलाम ही माना जाता है।

रोटी, कपडा और आश्रय देने भर से स्त्री को पुरूषों के अधीन मानने जैसी सामंतवादी

मान्यता हमारे समाज में आज भी मौजूद है। जो स्त्री शोषण को मान्यता देकर उसके

व्यक्तित्व को नकारती है।

'गंगी पेड़ की आड में छिपी हुई यह सब देख व सुन रही थी। दोनों पानी भरकर चली

गयीं तो गंगी पेड़ की आड़ से निकली और कुएँ के पास आयी, गंगी ने देखा सभी लोग चले गए 

ठाकुर भी दरवाजा बंद करके अंदर आंगन में सोने चला गया था गंगी ने

क्षणीक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ ।' गंगी को इतनी

सावधानी की जरूरत इसलिए पड़ रही थी क्यों कि अछूत स्त्री ठाकुर या किसी सवर्ण

के कुएँ पर चढ़कर पानी भरने का साहस कर रही थी। किसी अछूत द्वारा नियम को

तोड़ने पर हिंदू धर्म में इस अपराध के लिए बड़ी सख्त सजा का प्रावधान है। मनु स्मृति

द्वारा निर्धारित जाति के कानून बड़े कठिन थे। गंगी की स्थिति उस राजकुमार से भी

बदतर थी जो 'अमृत चुरा लाने के लिए किसी जमाने में गया था, वह

भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बुझकर न गया होगा।' 'उसने रस्सी

का फंदा घड़े में डाला । दाएँ-बाएँ चौकन्नी दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को

शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो । मगर इस समय पकड़ी गयी तो फिर उसके लिए

माफी या रियायत की रत्ती भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने

कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।

गंगी यह जानते हुए भी कि पकड़ी जाने पर उसे उसकी इस धृष्टता के लिए माफ

नहीं किया जायेगा बल्कि जातिप्रथा की परंपरा को तोड़ने जैसा अपराध करने और

परंपरागत हिंदू धर्म की रूढियाँ, सवर्णों की सत्ता, वर्चस्व और श्रेष्ठत्व, ब्राह्मणवाद

जैसी शक्तियों के खिलाफ जाने के का

रण कठोर से कठोर दंड दिया जा सकता था।

गंगी की पहल चाहे मजबूरी में ही क्यों न की गई है, लेकिन जातिव्यवस्था के

खिलाफ जाकर पानी लेने का साहस था। 

 घड़े को पानी में डालकर उसने बहुत ही आहिस्ते से

 उसे ऊपर खींचा जिससे कोई आवाज न हो और ठाकुर या अन्य कोई घर

का सदस्य जाग न जाए। 'घड़े ने पानी में गोता लगाया। बहुत ही अहिस्ता से। जरा भी

आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी जल्दी मारे । घड़ा कुएँ के मुंह तक पहुंचा।

कोई बड़ा पहलवान भी इतनी तेजी से उसे खींच न सकता था।

एक घड़े पानी के लिए गंगी जिस मानसिक व जातिगत दबाव को झेल रही थी और

साथ ही पकड़े जाने पर उसके सामने आने वाली स्थिति से भी अवगत थी। इसलिए

वह रस्सी को तेजी से खीचती चली गई । लेकिन गंगी द्वारा ली गई सावधानी दिखाई गई तेजी और

दृढ़ संकल्प का नतीजा कुछ नहीं निकला। क्योंकि ज्यों ही 'गंगी झुकी कि घड़े को

पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया।' प्रेमचंद ने

लिखा है 'शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।' गंगी इस स्थिति से जूझने के

लिए तैयार नहीं थी। वह तो चोरी छीपे एक घड़ा पानी लेकर चुपचाप चले जाना

चाहती थी, इसीलिए उसने देर तक छीपकर सभी के चले जाने का इंतजार भी किया

था। अब तक बंधा धैर्य टूट गया और 'गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी। रस्सी के साथ

घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा। और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनायी

देती रही।'

गंगी में इतना साहस कहां से आता कि वह धर्म का रक्षक बनकर अपनी पूरी क्रूरता

के साथ जातिप्रथा और अस्पृश्यता को बनाए रखने के लिए खड़े ठाकुर का डटकर

मुकाबला करें। साथियों इस कहानी में इतना ही इस कहानी का दूसरा भाग हम जल्द ही लेकर आयेंगे आप सभी का वीडियो देखने के लिए धन्यवाद 

Sunday, September 24, 2023

आस्तिक और नास्तिक की विचारधारा


आस्तिक और नास्तिक की विचारधारा 

साथियों कहना बड़ा आसान है 

कि तुम नास्तिक हो हम आस्तिक है 

नास्तिक वो होता है जिसे असली ज्ञान का बोध हो जाता है 

ज्ञान और समझ वह माध्यम है जिसमें किसी तथ्य, वस्तु एवं अवधारणा के रूप में समझा जा सकता है और आस्तिक वो होता है जिसमे चलती फिरती डर की दुकान होती है जो हमेशा डरा सहमा रहता है जो अंधविश्वास पर भरोसा करके चलता है जो किसी ने नहीं देखा 


You tube video link 🔗

जिसका कोई वजूद नहीं जो हमेशा 

धोखे में जीवन जीता है उसे ही आस्तिक कहा जाता है 

जो तथ्यों को नही समझ पाता हो 

जो गणित विज्ञान को नही समझ पाता 

वो ही आस्तिक होता है आगे बढ़ने से पहले एक छोटी सी खबर जो हमारे लिए बहुत बड़ी है के बारे में जानिए 

साथियों पेरियार की जयंती पर कुछ अपद्र्वियो ने कल अंबेडकर मेमोरियल दिल्ली में बाबा साहेब स्थल पर पूजा पाठ करने की कोशिश की है बाबा साहेब अंबेडकर के स्थलों पर पूजा पाठ करना और करवाना सबसे बड़ा कानूनी जुर्म है 

अंबेडकर साहेब के विचारो का यें लोग ब्राह्मणी करण करना चाहते है उनके विचारो को भी अंधविश्वास की भट्टी में झोंकना चाहते है बुद्ध से लेकर संत रविदास संत कबीर दास और तमिलनाडु के संत रामदास चमार के विचारो को भी इनके द्वारा ब्राह्मणी करण किया गया आज फिर से ये अंबेडकर के विचारो का ब्राह्मणी करण कर रहे है 

देखिए साथियों ev रामास्वामी पेरियार ने क्या कहा था

खुद ही विचार करें

ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में

किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता

नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के

लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास

की जरुरत पड़ती है. ये स्थिति

उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास

तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो.

पेरियार ई. वी. रामासामी नायकर 

साथियों कोई भी गणित का सवाल उठाए और उसे बिना नियमो के हल करके देखना आपको कोई भी सही जवाब नही मिलेगा विज्ञान भी इसी प्रकार है बिना तथ्यों और आंकड़ों के एक कदम भी व्यक्ति नहीं चल सकता 

साथियों एक भी आस्तिक का नाम बताओ जिसने कोई अविष्कार किया हो एक भी आस्तिक का नाम बताओ जिसके पास किसी देवी देवता आदि भगवान के होने के ठोस सबूत हो एक भी आस्तिक का नाम बताओ जिसने समाज सुधार के लिए कोई काम किए हो एक भी आस्तिक का नाम बताओ जिसने किसी प्रकार की खोज की हो एक भी ऐसे आस्तिक व्यक्ति का नाम बताओ जिसने पाखंडवाद अंधविश्वास को बढ़ावा न दिया हो या अंधविश्वास की भट्टी में झोंकने का काम न किया हो

 एक भी ऐसे देवी देवता का नाम बताओ जिसने कोई खोज की हो 

एक भी ऐसे देवी देवताओं के नाम बताओ जिसने किसी sc st obc के महापुरुषों की कोई हत्या ना की हो 

साथियों सभी भाइयों बहनों को सादर जय भीम साथियों आज हमने ऐसे विचारो को शामिल किया है जिनकी वजह से हमारी देश की अधिकांस महिलाए माताएं और बहनों sc sct obc की महिलाओं पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है इन महिलाओं की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी उनके बच्चे और परिवार के पुरुषो पर भी काफी गहरा प्रभाव पड़ता है बात सीधी सी है कि महिलाएं अक्सर डरी हुई रहती है उनको अपने बच्चो पति आदि का भय बना रहता है कि अरे कहीं किसी देवी देवता भूत प्रेत बाबाओं की वजह से हमारे परिवार पर कोई संकट न आ जाय घर में कोई बीमारी ना हो जाए घर में क्लेश न हो जाए इसी डर की वजह से ये लोग बाबाओं की शरण में मंदिरो की शरण में पाखंडियों की शरण में जितनी भी छोटी बड़ी दुकानें बाजार में सत्संगी महात्माओं की खुली है उनके पास अपनी सभी समस्याओं को लेकर जाना शुरू करती है जिसकी वजह से घर में और अधिक क्लेश रहने लगता है बेरोजगारी की शुरुआत होने लगती है बच्चो की शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ता है  आप दीनहीन होने लगते है अपने काम को छोड़कर बेवजह के झंझटो में पड़ने लगते है आपको और ज्यादा डराया जाने लगता है आप का समय और पैसा दोनो बरबाद होने लगता है आप निठल्ले हो जाते है आप कामचोर हो जाते है आप ये समझने लगते है कि भगवान की महिमा होगी तो सब ठीक हो जायेगा साथियों आपके सब कामों को ठीक करने के लिए आपको ही कदम उठाना पड़ेगा यहां कोई भगवान किसी के काम ठीक करने कराने नही आयेगा सब कुछ हमें और आपको खुद ही करना होगा 

इसकी दूसरी वजह क्या है साथियों घर में अधिकांश पुरुष वर्ग इन अंधविश्वासी बातो पर कभी विश्वास ही नहीं करना चाहता है क्योंकि उसे बाहरी समाज की जानकारी होती है कि देश में क्या चल रहा है लेकिन उसे मजबूरी में अपनी घर की महिलाओं के साथ मजबूरी में मानना पड़ता है न चाहते हुए भी हकीकत यहीं है यकिन नहीं तो आप अपने घर के पुरुषो से पूछो यदि वह झूठ न बोलें सच आपके सामने सीसे की तरह साफ दिखाई देगा 

 साथियों अपवाद हर जगह होता कुछ महिलाए ऐसे भी होती कि वो इनमे बिलकुल भी विश्वास नहीं करती तथा कुछ पुरुष ऐसे भी होते है जो बहुत अधिक अंधविश्वास पर भरोसा करते है साथियों जबकि इनकी किसी भी समस्या का कोई हल इन बाबाओं के पास नही होता है यदि इनके पास इन सबका समाधान होता तो वो सबसे पहले खुद के उपर अप्लाई क्यों नही करते। अच्छा एक बात बताओ जब व्यक्ति बीमार पड़ता है तो वो डॉक्टर के पास दौड़ा दौड़ा क्यों जाता है वो मंदिर में , सत्संगी महात्माओं पुजारियों के पास क्यों नही जाते है क्यों अपना इलाज कराने डॉक्टर के पास जाते है अच्छी शिक्षा अच्छा रोजगार पाने के लिए स्कूलों में क्यों जाते हो अच्छी फसल उगाने के लिए क्यों किसान दिन रात शर्दी गर्मी बारिश धूप आदि में अपने खेतों में कड़ी मेहनत करके अच्छा अनाज पैदा करता है उसे अनाज पैदा करने की क्या जरूर पड़ेगी वो हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे कि भगवान तो है सबको सहरा देने वाले काम क्यों करना इसी भरोसे बैठा रहे तब देखना आपको भूखे न सड़ना पड़े तो कहना साथियों वैज्ञानिक लोग क्यों दिन रात कड़ी मेहनत करके नए नए आविष्कार करते है आज जिस फोन से आप ये वीडियो देख रहे हो टीवी देखते हो या अन्य प्रकार की तमाम सुविधाओं का लाभ ले रहे वो सब विज्ञान की देन है एक सुई और माचिस की तिल्ली से लेकर एक हवाई जहाज तक का अविष्कार करने वाले सभी वैज्ञानिक नास्तिक ही थे एक भी वैज्ञानिक का नाम बताओ जिसने अंधविश्वास का समर्थन किया हो या अंधविश्वास में विश्वास किया हो तमाम वैज्ञानिकों ने ईश्वरीय और देवी देवताओं के होने के संबंध को नकारा है सम्पूर्ण विश्व में एक मात्र बुद्ध को ही सत्य और विज्ञान की खोज कर्ता के रूप में जाना जाता है साथियों हमारे जितने भी महापुरुष हुए है चाहे महात्मा बुद्ध हो संत रविदास हो कबीरदास हो अंबेडकर फुले पेरियार हो साहेब कांशीराम हो या sc st obc के जितने भी महापुरुष हुए है उनके बारे में हमने कभी भी जानने की कोशिश नही की बल्कि उनकी विचारधारा के विपरीत चलने का काम किया है जहां पर शिक्षा रोजगार और आपके अधिकार की बात नहीं की जाती है वहां उस दलदल रूपी अंधविश्वास में आपको धकेला जा रहा है आपको मानसिक गुलाम बनाया जा रहा है साथियों हमारे महापुरुषों ने 

 हमेशा अंधविश्वास का पुरजोर विरोध किया है लेकिन हमारे अंदर सबसे बड़ी कमी ये रही कि हमने उनको पढ़ा नही और न ही उनके बारे में कभी जानने की कोशिश ही की बस किसी पड़ोसी या किसी रिश्तेदार ने जैसा अंधविश्वास हमे बताया तो हम उसी पर चलने लगे हमने कभी ये तक जानने की कोशिश नही की 

कि हमारे महापुरुषों ने हमे क्या बताया और नही हम जानना चाहते है बस अपनी जिंदगी को खाई में धकेल रहे है साथियों 

 दरअसल विज्ञान ही संपूर्ण ब्रह्मांड में मौजूद सभी तत्वों का निर्माण करता है इसके निर्माण में किसी ईश्वरीय शक्ति का होना 

कोई मायने नहीं रखता ईश्वर एक धोखा है और धोखा क्या होता है ये आप भलीभांति समझते हो यदि आपके साथ कोई धोखा करता है तो आप समझ सकते हो आपको उस पर कितना क्रोध आयेगा 

साथियों आगे हम जो बताने वाले है उसको भी आपको जानना चाहिए 

साथियों प्राचीन काल से लेकर आज तक दलितों पिछड़ों आदिवासियों को शिक्षा से दूर क्यों रखा गया है और आज भी शिक्षा से दूर करने का काम किया जा रहा देश की तमाम बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटी में देख लीजिए की दलितों पिछड़ों आदिवासियों के छात्रों पर जुल्म ज्यादती की सारी हदें पार की जाती रही है छात्रों को इतना टॉर्चर किया जाता है कि या तो पढ़ना लिखना छोड़ दे या फिर आत्म हत्या को मजबूर हो जाए ये सब आज से ही नहीं हो रहा ये सब सदियों से इन ब्राह्मणी ताकतों के द्वारा लगातार किया जा रहा है आप श्री कृष्ण राम द्रोणाचार्य भीम आदि को हो देख लीजिए और जान ले कि ये आपके भले में है या फिर आपके विरोधी है जिन्हे आप अपने हृदय से चिपका के रखते हो आइए सत्य घटना को जो मनुवादियों द्वारा लिखी गई है समझे कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा कटा था और श्री कृष्ण ने एकलव्य का सिर काट दिया था और भीम ने एकलव्य के पुत्र को मारा था और राम ने शाबुक ऋषि को तपस्या करते हुए मार डाला था इनके तथा कथित देवीदेवताओ ने दलितों शूद्रों आदिवासियों को पढ़ने लिखने पर उनकी हत्या करने का काम किया है और आज भी कर रहे है आइए महाभारत से ली गई इस कहानी को समझते है साथियों आपने स्कूलों की किताबो में देखा होगा कि एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य ने काट लिया था लेकिन किताबो में आपको देखने को नहीं मिलेगा की श्री कृष्ण ने अर्जुन को श्रेष्ठ साबित करने के लिए एक आदिवासी भील धनुर्धर एकलव्य की गर्दन काट कर हत्या कर दी साथियों 

एकलव्य अकेले सैकड़ो यदुववंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान भीम के हाथ मारा गया था।

एकलव्य की कुशलता महाभारत काल में प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चंदेरी आदि बड़े राज्यों के समकक्ष थी। पांच वर्ष की आयु से ही एकलव्य की रुचि अस्त्र-शस्त्र में थी।


युवा होने पर एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय धनुर्विद्या में गुरु द्रोण की ख्याति थी, पर वे केवल विशेष वर्ग को ही शिक्षा देते थे। पिता हिरण्यधनु को समझा-बुझाकर एकलव्य आचार्य द्रोण से शिक्षा लेने के लिए उनके पास पहुंचा, पर द्रोण ने दुत्कार कर उसे आश्रम से भगा दिया।एकलव्य हार मानने वालों में से न था। वह बिना शस्त्र-शिक्षा प्राप्त किए घर वापस लौटना नहीं चाहता था। इसलिए उसने वन में आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनाई और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली।


एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्यों और एक कुत्ते के साथ उसी वन में आए। उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ता एकलव्य को देख भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी, इसलिए उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाए थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ता द्रोण के पास भागा। गुरु द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य में पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर की खोज में लग गए। अचानक उन्हें एकलव्य दिखाई दिया। साथ ही अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद भी हो आई। द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी? इस पर उसने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा किया। द्रोण ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में एकलव्य के दाएं हाथ का अगूंठा मांग लिया। एकलव्य ने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुन : दक्षता प्राप्त कर ली। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने लगा। वह जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर कृष्ण की सेना का सफाया करने लगा। सेना में हाहाकार मचने के बाद श्रीकृष्ण जब स्वयं उससे लड़ाई करने पहुंचे, तो उसे सिर्फ चार अंगुलियों के सहारे धनुष-बाण चलाते हुए देखा, तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। कि एक शुद्र कैसे ये सब कर सकता है , इसलिए कृष्ण को एकलव्य का संहार करना पड़ा।

एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।

कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।गौरतलब है कि अर्जुन की जीत की राह में किसी तरह की बाधा न आए इसलिए श्रीकृष्ण ने छल किया और एकलव्य का वध करते हुए उनको अपने हाथों वीरगति प्रदान की.

जिन लोगों को सदाचारी और हमेशा धर्म की राह पर चलनेवाला बताया गया था उन्हीं लोगों ने महाभारत की कहानी में सबसे ज्यादा छल किया. और एकलव्य जैसे पारंगत धनुर्धारी के लिए सबसे ज्यादा क्रूर साबित हुए.

चाहे वो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो या फिर गुरू द्रोणाचार्य 

या फिर रामायण के राम हो इन सबका एक ही चरित्र है कि आगे बढ़ते हुए शुद्र को कैसे पीछे हटाया जाए चाहे डर से यार फिर हत्या से

 ये सब इनके लिए प्राचीनकाल की कहानियों से लेकर आज के समय की घटनाओं तक लगातार होता आ रहा है तो फिर किस उम्मीद से आप लोग इनके झूठे धर्मग्रंथों और कर्मकांडो में लिप्त हो रहे है ये लोग कभी आपके हित की बात नहीं करेंगे बल्कि जहां  पर इनका हित होगा। वहां पर अपनी बात करेंगे और हमेशा आपको उलझाए रखेंगे 

साथियों हमे आपके सपोर्ट की बहुत जरूरत है हमारे इस छोटे से कदम को बढ़ाने के लिए आपसे एक गुजारिश है कि 

साथियों इन विचारो को समाज के लोगो तक जरूर पहुंचाने का काम करें इस पेज  को ज्यादा से ज्यादा लोगो को शेयर करके  घर घर तक पहुंचा दें  ताकि समय रहते सोया हुआ समाज जाग जाए और चैनल को सब्सक्राइब करके लाइक और कमेंट जरुर कर दे 



चमार बाल्मिकी दलितों की दशा 25 चौका डेढ़ सौ कहानी ओमप्रकाश बाल्मिकी

 दलित चमार बाल्मिकी की अज्ञानता के कारण शिक्षित ना होने के चलते  साहूकार सेठ या दुकानदार  या अन्य किसी भी तरह के लेनदेन में होने वाली गड़बड़ी के चलते लोग इस समाज का किस तरह से फायदा उठाते है और एक बुजुर्ग 30 वर्षो तक एक सेठ के झूठ को सच मानकर उस सेठ की प्रसंसा का बखान पूरे गांव में करता रहता था लेकिन उसी झूठ के चलते बचपन में उसके बेटे को जब शिक्षक अनपढ़ चूड़ा चमार साले मादर चो आदि गलियां देता है   तो 30 वर्ष के बाद उस अनपढ़ पिता को जब हकीकत पता चलती है तो एक पिता किस तरह से उस सेठ को कोसता है साथियो आप भी इस कहानी को सुनकर हैरान हो जाएंगे 

कि आखिर हमारे समाज को किस प्रकार लोगो ने प्रताड़ित किया और आज भी किया जाता है  साथियों यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है 

आप ने यदि इस कहानी को पूरा नहीं देखा तो आपने जीवन के सबसे बड़े कड़वे सच को अपनी जिंदगी से दूर कर दिया

 जिंदगी की असली हकीकत गरीबी अशिक्षा दरिद्रता को कैसे दूर करें और एक नई सोच को पैदा करने वाली इस कहानी में जीवन के बहुमूल्य अंश विद्धमान है आइए कहानी शुरू करते है 



पहली तनख्वाह के रुपये हाथ में थामे सुदीप अभावों के

गहरे अंधकार में रोशनी की उम्मीद से भर गया था। एक

ऐसी खुशी उसके जिस्म में दिखाई पड़ रही थी, जिसे पाने

के लिए उसने असंख्य कँटीले झाड़ों के बीच अपनी

राह बनाई थी। मुट्ठी में बंद रुपयों की गर्मी उसकी रग-

रग में उतर गई थी। पहली बार उसने इतने रुपये एक साथ

देखे थे

वह वर्तमान में जीना चाहता था। लेकिन भूतकाल उसका

पीछा नहीं छोड़ रहा था। हर पल उसके भीतर भूतकाल समय की चहल कदमी चल रही थी  अभावों ने कदम-

कदम पर उसे छला था। फिर भी उसने स्वयं को किसी

तरह बचाकर रखा था। इसीलिए उसकी ये मामूली सी नौकरी भी

उसके लिए बड़ी अहमियत रखती थी।

नई-नई नौकरी लगी थी इसलिए छुट्टी मिलना भी बहुत मुश्किल था

इसी कारण  उसे भी

आसानी से छुट्टी नहीं मिली थी। उसने रविवार की छुट्टियों

में अतिरिक्त काम किया था, जिसके बदले उसे दो दिन का

छुट्टी मिल गई थी । वह पहली तनख्वाह मिलने की

खुशी अपने माँ-बाप के साथ बाँटना चाहता था।

स्कूल की पढ़ाई और नौकरी के बीच समय और हालात

की गहरी खाई को वह पाट नहीं सकता था।  सुख-दुःख

के चन्द लम्हे आपस में बाँटकर पीड़ा कुछ कम हो जाती है। उसने इस

पल के इंतजार में एक लम्बा सफर तय किया था। ऐसा

सफर, जिसमें दिनरात और मान-अपमान के बीच अंतर ही

नहीं था।

शहर से गाँव तक पहुँचने में दो से-ढाई घंटे  का

समय लग जाता था, इसीलिए वह सुबह ही निकल पड़ा

था। बस अड्डे पर आते ही उसे बस मिल गई थी। बस में

काफी भीड़ थी। बड़ी मुश्किल से उसे बैठने की जगह मिल

पाई थी।


कंडक्टर किसी यात्री पर बिगड़ रहा था, "इस सामान को

उठाओ। छत पर रखो। आने-जाने का रास्ता बन्द ही कर

दिया है। किसका है यह सामान ?” कंडक्टर ने ऊँचे और

कर्कश स्वर में पूछा।

एक दुबला-पतला-सा ग्रामीण धीमे स्वर में बोला, “जी, मेरा

है।"

कंडक्टर ने ग्रामीण के वजूद को तौलते हुए आवाज सख्त

करके लगभग दहाड़ते हुए कहा, “तेरा है तो इसे अपने पास

रखले । यहाँ रास्ते में अड़ा दिया है? उठा इसे ।”

ग्रामीण ने गिड़गिड़ाकर अजीब-सी आवाज में कहा,

“साहब.मुझे तो... नजदीक ही उतरना है।”

सुदीप जब भी किसी को गिड़गिड़ाते देखता है तो उसे अपने

पिताजी की छवि याद आने लगती है, ऐसे में उसका पोर-

पोर चटखने लगता है। जैसे कोई धीरे-धीरे उसके जिस्म

पर आरी चला रहा हो ।। उसने कण्डक्टर की ओर देखा ।

कण्डक्टर की तोंद शरीर के कपड़े फाड़कर बाहर आने

वाली थी । जंगली  सुअर की तरह उसके चेहरे पर

पान से रंगे दाँत, उसकी बदसूरत को बढ़ा रहे थे ।

सुदीप को लगा जंगली सुअर बस की भीड़ में घुस आया है।

उसने सहमकर दूसरे यात्रियों की ओर देखा, जो निरपेक्ष भाव से

अपने ख्यालों में गुम थे। सुदीप ने  ग्रामीण पर नजर डाली,



जिसे देखकर उसके भीतर पिताजी की छवि आकार लेने लगी । उसे अपने बीते दिनो की बस में बैठे बैठे याद आने लगी 

जब पिताजी मुझे लेकर स्कूल में

दाखिला कराने ले गए थे। उनकी बस्ती के बच्चे स्कूल नहीं

जाते थे। पता नहीं पिताजी के मन में यह विचार कैसे आया होगा

कि मुझे स्कूल में भर्ती कराया जाए, जबकि पूरी बस्ती में

पढ़ाई-लिखाई की ओर किसी का ध्यान नहीं था।

पिताजी लम्बे-लम्बे डग भरकर चल रहे थे। मुझे पिताजी के साथ

चलने में दौड़ना पड़ता था। मैने मैली-सी एक बदरंग

कमीज और पटीदार नेकरनुमा कच्छा पहन रखा था।

जिसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद ऊपर खींचना पड़ता था।

स्कूल के बरामदे में पहुँचकर पिताजी पल भर के लिए

ठिठके। फिर धीर-धीरे चलकर इस कमरे से उस कमरे में

झाँकने लगे। हर एक कमरे में अँधेरा था, जिसमें बच्चे पढ़

रहे थे। मास्टर कुर्सियों पर उकडू बैठे बीड़ी पी रहे थे और

ऊँघ रहे थे। पिताजी फूल सिंह मास्टर को ढूँढ रहे थे। दो-

तीन कमरों में झाँकने के बाद एक छोटे से कमरे की ओर

मुड़े। उस कमरे में अन्य कमरों से ज्यादा अँधेरा था। फूल

सिंह मास्टर अकेले बैठे बीड़ी पी रहे थे ।

उन्हें दरवाजे पर देखकर फूल सिंह मास्टर खुद ही बाहर

आ गए थे। पिताजी ने मास्टर जी को देखते ही दयनीय स्वर


में गिड़गिड़ाकर कहा, “मास्टर जी म्हारे  (बच्चे) कू

अपणी सरण में ले लो। दो अच्छर पढ़ लेगा तो थारी दया ते

यो बी आदमी बंण जागा | म्हारी जिनगी में बी कुछ सुधार

जागा।”

सुदीप पिता जी की उस मुद्रा को भूल नहीं पाया। वे हाथ

जोड़कर झुके खड़े थे। फूल सिंह मास्टर ने बीड़ी का टोंटा

अँगूठे के इशारे से दूर उछाला और पिताजी को लेकर

हेडमास्टर के कमरे में चले गए।

सुदीप का दाखिला हो गया था। पिताजी खुश थे। उनकी

खुशी में भी वही गिड़गिड़ाहट झलक रही थी। वे बार बार 

झुककर मास्टर फूल सिंह को सलाम कर रहे थे।

साथियों बस  हिचकोले खा-खाकर रेंग रही थी। 

मुझे स्कूल के दिन एक के बाद एक लौटकर याद 

आने लगे। दूसरी कक्षा तक आते आते मैं अच्छे विद्यार्थियों

में गिना जाने लगा था। तमाम सामाजिक दबावों और

भेदभावों के बावजूद मैं पूरी लगन से स्कूल जाता रहा।


सभी विषयों में मैं ठीक-ठाक था। गणित में मेरा मन

कुछ ज्यादा ही लगता था।

मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने चौथी कक्षा के बच्चों से पन्द्रह

तक पहाड़े याद करने के लिए कहा था। लेकिन मुझे 

चौबीस तक पहाड़े पहले से ही अच्छी तरह याद थे। मास्टर

शिवनारायण मिश्रा ने शाबासी देते हुए पच्चीस का पहाड़ा

याद करने के लिए सुदीप से कहा।

स्कूल से घर लौटते ही सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा याद

करना शुरू कर दिया। वह जोर-जोर से ऊँची आवाज में

पहाड़ा कंठस्थ करने लगा। पच्चीस एकम पच्चीस, पच्चीस

दूनी पचास, पच्चीस तियाँ पचहत्तर, पच्चीस चौका सौ ...?


पिताजी बाहर से थके-हारे लौटे थे। उसे पच्चीस का पहाड़ा

रटते देखकर उनके चेहरे पर सन्तुष्टि के-भाव तैर गए थे ।

थकान भूलकर वे सुदीप के पास बैठ गए थे। वैसे तो उन्हें

बीस से आगे गिनती भी नहीं आती थी, लेकिन पच्चीस का

पहाड़ा उनकी जिन्दगी का अहम् पड़ाव था, जिसे वे अनेक

बार अलग-अलग लोगों के बीच दोहरा चुके थे। जब भी

उस घटना का जिक्र करते थे, उनके चेहरे पर एक अजीब-

सा विश्वास चमक उठता था।


सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा दोहराया और जैसे ही पच्चीस

चौका सौ कहा, उन्होंने टोका।


“नहीं बेट्टे... पच्चीस चौका सौ नहीं... पच्चीस चौका डेढ़

सौ.होते है..” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

सुदीप ने चौंककर पिताजी की ओर देखा। समझाने के

लहजे में बोला, “नहीं पिताजी, पच्चीस चौका सौ..होते है . ये देखो

गणित की किताब में लिखा है। "

“बेट्टे, मुझे किताब क्या दिखावे है। मैं तो हरफ (अक्षर) बी

ना पिछाणूं। मेरे लेखे तो काला अच्छर भैंस बराबर है।

फिर वी इतना तो जरूर जाणुं कि पच्चीस चौका डेढ़ सौ

होवे हैं।” पिताजी ने सहजता से कहा।

“किताब में तो साफ-साफ लिखा है पच्चीस चौका सौ..होते है .

सुदीप ने पिताजी को मासूमियत से कहा।लेकिन पिताजी कहते है 

“तेरी किताब में गलत बी तो हो सके नहीं तो क्या चौधरी

झूठ बोल्लेंगे? तेरी किताब से कहीं ठड्डे (वड़े) आदमी हैं

चौधरी जी। उनके धोरे (पास) तो ये मोट्टी-मोट्टी किताबें है  ...

वह जो तेरा हेडमास्टर है वो बी उनके पाँव छुए है चौधरी जी के

पड्डेर भला वो गलत बतायेंगे मास्टर से कहणा वो सही-सही

पढ़ाया करे...।” पिताजी ने उखड़ते हुए कहा

“पिताजी... किताब में गलत थोड़े ही लिक्खा है ।” सुदीप

रुँआसा हो गया।

“तू अभी दस साल का बच्चा है। तू क्या जाणे दुनियादारी ।  


“तू अभी बच्चा है। दस साल

पहले की बात है। तेरे होणे से पहले तेरी मां को बीमारी

हो गई  थी। बचने की कोई उम्मीद ना थी। सहर के बड़े बड़े डाक्दर से

इलाज करवाया था। सारा खर्च चौधरी ने ही तो दिया था।

पूरा सौ का पत्ता... ये लम्बा लीले (नीले) रंग का (नोट)

था। डाकदर की फीस, दवाइयाँ सब मिलाकर सौ रुपये

बणे थे। जिब तेरी माँ ठीक-ठाक हो- क चालण-फिरण

लागी तो, तो मैं चार ( महीने) बाद चौधरी जी की

हवेली में गया। दुआ सलाम के बाद मैन्ने चौधरी जी ते कहा

'चौधरी जी मैं तो गरीब आदमी हूँ, थारी मेहरबान्नी से मेरी

लुगाई की जान बच गई, वह जी गई, वर्ना मेरे जातक

वीरान हो जाते। तमने सौ रुपये दिए । उनका हिसाब

बता दो। मैं थोड़ा-थोड़ा करके सारा कर्ज चुका हूँगा । एक

साथ देणे की मेरी हिम्मत ना है चौधरी जी।' चौधरी जी ने

कहा, ‘मैन्ने तेरे बूरे बखत में मदद करी तो ईब तू ईमानदारी

ते सारा पैसा चुका देना। सौ रुपये पर हर महीने पच्चीस

चौका डेढ़ सौ । तू अपणा आदमी है तेरे से ज्यादा क्या

लेणा। डेढ़ सौ में से वीस रुपये कम कर दे। बीस रुपये

तुझे छोड़ दिए। बचे एक सो तीस । चार महीने का व्याज

एक सौ तीस अभी दे दें। बाकी रहा मूल जिव होगा दे देणा,

महीने-के-महीने व्याज देते रहणा ।”

“ईव बता बेट्टे पच्चीस चौका डेढ़ सौ होते हैं या नहीं।

चौधरी भले और इज्जतदार आदमी हैं, जो उन्होंने बीस 


रुपये छोड़  दिए थे । नहीं तो भला इस जमाने में कोण रूपये छोड्डे है ?

अपणे शिवनारायण मास्टर के बाप को ही

देख लो। एक धेल्ला बी ना छोड़े। ऊपर ते विगार (वेगार )

अलग ते करावे है। जैसे विगार उनका हक है। दिन भर में

गोड्डे टूट जां। मजूरी के नाम पे खाल्ली हाथ। अपर ते गाली

अलग। गाली तो ऐसे दे है जैसे बेद मन्तर पढ़ रहे हों । "

||

सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा दोहराया । पच्चीस एकम

पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तिया पचहत्तर,

पच्चीस चौका डेढ़ सो... अगले दिन कक्षा में मास्टर

शिवनारायण मिश्रा ने पच्चीस का पहाड़ा सुनाने के लिए

सुदीप को खड़ा कर दिया। सुदीप खड़ा होकर उत्साह में

पहाड़ा सुनाने लगा।


“पच्चीस एकम पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तिया

पचहत्तर, पच्चीस चौका डेढ सौ ।”


मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने उसे टोका, “पच्चीस चौका

सौ।”

मास्टर जी के टोकने से सुदीप अचानक चुप हो गया और

खामोशी से मास्टर का मुँह देखने लगा। मास्टर

शिवनारायण मिश्रा कुर्सी पर पैर रखकर उकडू बैठे थे।

बीड़ी का सुट्टा मारते हुए बोले, “अबे ! चूहड़े के, आगे बोलता

क्यूं नहीं? भूल गिया क्या?”


सुदीप ने फिर पहाड़ा शुरू किया। स्वाभाविक ढंग से

पच्चीस चौका डेढ़ सौ कहा। मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने

डाँटकर कहा, “अबे! कालिये, डेढ़ सौ नहीं सौ... सौ!”

सुदीप ने डरते-डरते कहा, “मास्साहब! पिताजी कहते हैं

पच्चीस चौका डेढ़ सौ होवे हैं। "

मास्टर शिवनारायण गुस्से से उखड़ गया। खींचकर एक

थप्पड़ उसके गाल पर रसीद किया। आँखे तरेरकर चीख़ा,

“अबे, तेरा बाप इतना बड़ा बिदवान है तो यहाँ क्या अपनी

माँ.. (एक क्रिया -जिसे सुसंस्कृत लोग साहित्य में त्याज्य

मानते हैं) ..आया है। साले, तुम लोगों को चाहे कितना भी

लिखाओ, पढ़ाओ रहोगे वहीं-के- वहीं... दिमाग में कूड़ा-

करकट जो भरा है। पढ़ाई-लिखाई के संस्कार तो तुम

लोगों में आ ही नहीं सकते। चल बोल ठीक से... पच्चीस

चौका सौ। स्कूल में तेरी थोड़ी-सी तारीफ क्या होने लगी,

पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। ऊपर से जबान चलावे है।

उलटकर जवाब देता है। "

सुदीप ने सुबकते हुए पच्चीस चौका सौ कहा और एक

साँस में पूरा पहाड़ा सुना दिया। उस दिन की घटना ने

उसके दिमाग में उलझन पैदा कर दी। यदि मास्साब सही

कहते हैं तो पिताजी गलत क्यूँ बता रहे हैं। यदि पिताजी

सही हैं तो मास्टर साब क्यूँ गलत बता रहे हैं। पिताजी

कहते हैं चौधरी बड़े आदमी हैं, झूठ नहीं बोलते। उसके


हृदय में बवण्डर उठने लगे।

नर्म और मासूम बालमन पर एक खरोंच पड़ गई थी, जो

समय के साथ-साथ और गहरा गई थी। किसी ने ठीक ही

कहा है, मन में गाँठ पड़ जाए तो खोले नहीं खुलती। सोते-

जागते, उठते-बैठते, पच्चीस चौका डेढ़ सौ उसे परेशान

करने लगा।

बालमन की यह खरोंच ग्रंथि बन गई थी। जब भी वह

पच्चीस की संख्या पढ़ता या लिखता, उसे पच्चीस चौका

डेढ़ सौ ही याद आता। साथ ही याद आता पिताजी का

विश्वास भरा चेहरा और मास्टर शिवनारायण मिश्रा का

गाली-गलौज करता लाल-लाल गुस्सैल चेहरा । सुदीप

दोनों चेहरे एक साथ स्मृति में दबाए पच्चीस चौका डेढ़ सौ

की अंधेरी दुर्गम गलियों में भटकने लगा। जैसे-जैसे बड़ा

होने लगा, कई सवाल उसके मन को विचलित करने लगे,

जिनके उत्तर उसके पास नहीं थे।

बस अड्डे से थोड़ा पहले एक बड़ा सा गति अवरोधक था,

जिसके कारण अचानक ब्रेक लगने से बस में बैठे यात्रियों

को झटका लगा। कई लोग तो गिरते-गिरते बचे झटका

लगने से सुदीप की विचार तन्द्रा भी टूट गई, उसने जेब को

छूकर देखा। तनख्वाह के रुपये जेब में सही सलामत थे।

बस गाँव के किनारे रुकी। बस अड्डे के नाम पर दो एक

दुकानें पान-बीड़ी की, एक पेड़ के तने से टिकी पुरानी-सी


मेज पर बदरंग आईना रखकर बैठा गाँव का ही बदरू नाई,

नाई से थोड़ा हटकर दूसरे पेड़ तले बैठा गाँव का मोची,

एक केले-अमरूदवाला। बस यही था बस अड्डा

सुदीप ने बस से नीचे उतरकर आसपास नजरें दौड़ाई, बस

अड्डे पर कोई विशेष चहल-पहल नहीं थी । इक्का-दुक्का

लोग इधर-उधर बैठे थे। वह सीधा घर की ओर चल पड़ा।

गाँव के पश्चिमी छोर पर तीस-चालीस घरों की बस्ती में

उनका घर था।

दोपहर हाने को आई थी। सूरज काफी ऊपर चढ़ गया था।

उसने तेज-तेज कदम उठाए । लगभग महीने भर बाद गाँव

लौटा था। जानी-पहचानी चिर परिचित गलियों में उसे

अपने बचपन से अब तक बिताये हुए पल गुदगुदाने लगे।

इससे पहले उसने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। एक

अनजाने से आत्मीय सुख से वह भर गया था। अपना गाँव,

अपने रास्ते, अपने लोग। उसने मन-ही-मन मुस्कुराकर

कीचड़ भरी नाली को लाँघा और बस्ती की ओर मुड़ गया।

गाँव और बस्ती के बीच एक बड़ा-सा जोहड़ था, जिसमें

जलकुम्भी फैली हुई थी।

 उसने जोहड़ के

किनारे-किनारे चलना शुरू कर दिया 


पिताजी आँगन में पड़ी एक पुरानी चारपाई की रस्सी कस

रहे थे। सुदीप को आया देखकर वे उसकी ओर लपके

“अचानक.. क्या बात है... लगता है सहर में जी नहीं

लगता।”

25 चौका डेढ़ सौ 


कुछ रुपये हाथ में लेकर बाकी के रुपए अपनी मां को दे दिए और 

गम्भीर स्वर में बोला, “पिताजी, मुझे आपसे एक बात

कहनी है।”

“क्या बात है बेटे? ... कुछ चाहिए?” पिताजी ने जिज्ञासावश

पूछा।

“नहीं पिताजी कुछ नहीं चाहिए। मैं आपको कुछ बताना

चाहता हूँ।”

पिताजी गुमसुम होकर उसकी ओर देखने लगे। कुछ देर

पहले की खुशी पर धुंध पड़ने लगी थी। तरह-तरह की

आशंकाएँ उन्हें झकझोरने लगी थी। वे अचानक बेचैनी

महसूस करने लगे थे। सुदीप ने पच्चीस-पच्चीस रुपये की

चार ढेरियाँ लगाईं, 

पिताजी से कहा अब आप इन्हे गिनिए 

पिताजी चुपचाप सुदीप की ओर देख रहे थे। उनकी समझ

में कुछ भी नहीं आ रहा था। असहाय होकर बोले, “बेटे,

मुझे तो बीस ते आग्गे गिनना बी नी आत्ता । तू ही गिणके

बता दे।”

सुदीप ने धीमे स्वर में कहा, “पिताजी, ये चार जगह

पच्चीस-पच्चीस रुपये हैं, अब इन्हें मिलाकर गिनते हैं...

चार जगह का मतलब है पच्चीस चौका।”

कुछ क्षण रुककर सुदीप ने पिताजी की ओर देखा । फिर

बोला, “अब देखते हैं पच्चीस चौका सौ होते हैं या डेढ़

सौ..।”

पिताजी आवाक होकर सुदीप का चेहरा देखने लगे।

उनकी आँखों के आगे चौधरी का चेहरा घूम गया। तीस-

पैंतीस साल पुरानी घटना साकार हो उठी। यह घटना, जिसे

वे अब तक न जाने कितनी बार दोहराकर लोगों को सुना

चुके थे। आज उसी घटना को नए रूप में लेकर बैठ गया

था सुदीप।


सुदीप रुपये गिन रहा था बोल-बोलकर, सौ पर जाकर

रुक गया। बोला, “देखो, पच्चीस चौका सौ हुए, पिताजी 

डेढ़ सौ

नहीं।”होते 


पिताजी ने उसके हाथ से रुपये ऐसे छीने, जैसे सुदीप उन्हें

मूर्ख बना रहा है। वे रुपये गिनने का प्रयास करने लगे।

लेकिन बीस पर जाकर अटक गए। सुदीप ने उनकी मदद

की। सौ होने पर पिताजी की ओर देखा। उन्हें विश्वास ही

नहीं हो रहा था। उन्होंने फिर एक से गिनना शुरू कर

दिया। बीस पर अटक गए। उलट-पलटकर रुपयों को देख

रहे थे, जैसे कुछ उनमें कम हैं। सुदीप ने फिर गिनकर

दिखाए। पिताजी को यकीन ही नहीं आ रहा था। सुदीप ने

हर बार उनकी शंका का समाधान किया, हर प्रकार से।


आखिर पिताजी को विश्वास हो गया। सुदीप ठीक कह रहा

है पच्चीस चौका सौ ही होते हैं। झूठ-सच सामने था।

पिताजी के हृदय में जैसे अतीत जलने लगा था। उनका

विश्वास, जिसे पिछले तीस-पैंतीस सालों से वे अपने सीने में

लगाए चौधरी के गुणगान करते नहीं अघाते थे, आज

अचानक काँच की तरह चटककर उनके रोम-रोम में समा

गया था। उनकी आँखों में एक अजीब-सी वितृष्णा पनप

रही थी, जिसे पराजय नहीं कहा जा सकता था, बल्कि

विश्वास में छले जाने की गहन पीड़ा ही कहा जाएगा।

उन्होंने अपनी मैली चीकट धोती के कोने से आँख की कोर

में जमा कीचड़ पोंछा और एक लम्बी साँस ली।शाहुकार के रुपये

सुदीप ने लौटा दिए। उनके चेहरे पर पीड़ा का खंडहर उग

आया था, जिसकी दीवारों से ईंट, पत्थर और सीमेंट

भुरभुराकर गिरने लगे थे। उनके अन्तस में एक टीस उठी,

जैसे कह रहे हों, “कीड़े पड़ेंगे चौधरी... कोई पानी देने वाला

भी नहीं बचेगा । ”

Tuesday, September 19, 2023

शुद्र चलता फिरता शमशान है मनुस्मृति


 शुद्र चलता फिरता शमशान है मनुस्मृति

देश का एक ऐसा गांव जो मनुस्मृति की चपेट में आ गया है पूरे गांव में मनुस्मृति लागू कर दी गई मनुस्मृति से देश चलेगा शुरुआत हो चुकी है मनुस्मृति का प्रयोग शुरू हो चुका है इंतजार करो कि मनुस्मृति के नियम आप लोगो के दरवाजे तक कब तक पहुंचने वाले है आज कुम्हार का नंबर आया है कल चमार जाटव बलाहर की बारी आएगी उसके बाद कश्यप पाल कोरी नाई धोबी खटीक जुलाहा जाट गुर्जर यादव कुर्मी आदि सबका नंबर लगने वाला है बस हम सबको इसी तरह थोड़ा सा इंतजार और करना चाहिए कुछ वर्षो के बाद सबकुछ आपके सामने होगा आपके जीते जी होगा धैर्य और विश्वास से घर बैठे इंतजार करते रहिए जो होगा देखा जायेगा क्योंकि हमे तो अपनी बारी का इंतजार करने में बड़ा मजा आता है हम ऐसे सोच कर बैठ जाते है कि 

YouTube video link 

https://youtube.com/watch?v=HCs8L4gBnZc&si=nJcHhpKI2JMwyJ-D




हमें क्या जिसको परेशानी होगी है वो झेले ? साथियों ऐसा सोचना आप सबको एक बड़ी मुसीबत की ओर लेकर जा रहा है 

यहां हम जो मुद्दा लेकर आए है यह मुद्दा केवल किसी जाति विशेष का नही है यह मुद्दा भारत के मूलनिवासियों का है sc st obc सबका मुद्दा है सबको सोचना होगा सबको जागना होगा वरना बहुत देर हो चुकी होगी 

 साथियों हाल ही में एक घटना सामने आई है जो कि दिल दहला देने वाली घटना है साथियों बीजेपी शासित मध्यप्रदेश के जिले  दमोह की घटना है जो कि सिंगपुर गांव में घट रही है जिसमे मनुस्मृति को मनुवादी ठाकुरों ने लागू कर दिया है किसी भी शुद्र को किसी भी दुकान से कोई भी सामान लेने की पूरी पाबंदी लगा दी गई कोई डॉक्टर कुम्हार को बीमारी में दवाई नही देगा सेन समाज के नाई कुम्हार के बाल तभी काट सकता है जब तक वह कुर्सी से नीचे बैठकर बाल नही कटवायेग जब नीचे नही बैठेगा तब तक उसके बाल नही काटे जायेंगे पंचायत का खुला फरमान जारी हुआ सोचो क्या होने वाला है साथियों देश संविधान से चल रहा तब ये हाल है जब मनुस्मृति लागू होगी तो क्या होगा साथियों 

दमोह के सिंगपुर में कुम्हार समाज का हुक्का पानी बंद करने का मामला सामने आया है। यहां कुम्हार समाज के लोगों को दुकानदार सामान तक नहीं दे रहे हैं। वहीं सेन समाज का कहना है कि वे कुर्सी पर बैठाकर बाल नहीं काटेंगे। 

अब समाज के लोगों को गांव की किसी भी दुकान से राशन पानी नहीं मिल रहा है 

सभी साथियों को जय भीम जय मूलनिवासी जय संविधान साथियों आपको पता चल ही गया होगा कि ये एक शुरुआत मात्र है यदि मनुस्मृति देश में लागू होती है तो सोचो हम सब लोगो का क्या हश्र होने वाला है एक नजर में मनुस्मृति के मनुवादी 

सिद्धांत को जरूर सुन कर देख कर जाना और समझना कितना बुरा दौर होगा साथियों मनुस्मृति महाभारत और 

चाणक्य के सिद्धांत क्या कहते है आप भी देखिए सुनिए और समझिए क्या मनुस्मृति आपके लिए सही हैं या फिर संविधान सही है फैसला आपको करना है 

तो शुरू हो जाइए 


- ब्रह्मसूत्र 1/3/38 पर शंकरभाष्य

शूद्र को न वेद सुनने का अधिकार है और न पढ़ने का न उस के अर्थ समझने का अधिकार है और न उस के अनुसार अनुष्ठान ( यज्ञ आदि  करने का. यदि  (शूद्र) वेद पढ़ने वालों के पास जा कर उस ( वेद को  सुन ले तो उस के दोनों कानों में सीसा ( रांगा ) और लाख पिघला कर भर देनी चाहिए शूद्र चलताफिरता

श्मशान होता है, अतः उस के समीप वेद नहीं पढ़ना चाहिए 

वेद का उच्चारण करने पर शूद्र की जीभ काट देनी चाहिए 

और वेद को सुन कर कंठस्थ कर लेने पर उस

का शरीर चीर देना चाहिए. शूद्र को ज्ञान नहीं देना चाहिए यानि शुद्र को सुनने पढ़ने लिखने का अधिकार तक नही है 

१- पुत्री, पत्नी, माता या कन्या, युवा, व्रुद्धा किसी भी स्वरुप में नारी स्वतंत्र नही होनी चाहिए. -मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-२ से ६ तक.में दिया है ये सभी समाज के लोगो की माताओं बहनों पर ही लागू होता है 

ऋगवेद के सूत्र 10/९0 में चतुर वर्ण का उल्लेख किया गया है, जिसमें ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण का जन्म हुआ, दोनों हाथों से क्षत्रिय का, जांघों से वैश्य का तथा दोनों पैरों से शूद्र का जन्म हुआ। यही चतुर वर्ण जातियों का जन्मदाता है क्योंकि वर्ण के आधार पर ही जातियों का वर्गीकरण हुआ या यूं कहें कि सभी जातियों को चार समूहों में बांट दिया गया, लेकिन इस व्यवस्था में महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्राह्मण वर्ण में केवल एक ही जाति ब्राह्मण है, जबकि दूसरे वर्णों में सात हजार से अधिक जातियां हैं। इस व्यवस्था का मूल उद्देश्य ब्राह्मण जाति को श्रेष्ठ स्थान दिलाना था।  यही प्रथा हमारे पिछड़ेपन का कारण भी है।हिंदू धर्म शास्त्र वर्ण व्यवस्था के तहत ही जातियों का गान करते हैं।महाभारत शास्त्र के अनुसार जब एकलव्य नाम के एक जनजातीय बालक ने गुरू द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या में शिक्षा लेनी चाही तो उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि वह क्षत्रिय नहीं है, बल्कि जनजाति भील है अर्थात शूद्र वर्ण का है। इस पर बालक एकलव्य ने गुरू द्रोणाचार्य को मन ही मन अपना गुरू मान लिया और उसकी प्रतिमा स्थापित करके उसी के आशीर्वाद से अपना अभ्यास शुरू कर दिया और वह एक दिन धनुर्विद्या में इतना निपुण हो गया कि कुत्ते की आवाज की तरफ उसने अपने बाण छोड़े और कुत्ते के पूरे मुंह को बाणों से बींध दिया, जिससे उसका भौंकना बंद हो गया। इतिफाक से जब द्रोणाचार्य अचानक उधर से गुजरे तो उन्होंने मालूम किया कि यह धनुषधारी कौन था। इस पर एकलव्य प्रकट हुआ और उसने गुरू द्रोणाचार्य को गुरू दक्षिणा देनी चाही तो इसके बदले में गुरू द्रोणाचार्य ने उसके दायें हाथ के अंगूठे को गुरू दक्षिणा के रूप में ले लिया। इससे स्पष्ट है कि उस संत के दिल में शूद्रो के प्रति गहरी नफरत थी और उसने आशीर्वाद देने की बजाय निर्ममता से एकलव्य का अंग काट दिया। यह था जातिवाद का एक घिनौना प्रदर्शन। धर्मग्रंथ रामायण में लिखा है कि उत्तराखंड में एक दलित शंबुक नाम के बालक ने 12 वर्ष तक एक पेड़ पर उल्टा लटककर तपस्या की तो उसी समय वहां एक ब्राह्मण बालक का देहांत हो गया, जिसका पिताजी जीवित था। इस घटना का इल्जाम शंबुक पर लगाया गया कि उसने दलित होते हुए तपस्या की, जिस कारण ब्राह्मण बालक का देहांत हो गया। इस बात की शिकायत ब्राह्मण बालक के साथियों ने मर्यादा पुरूषोत्तम राम से की, जिन्होंने वहां जाकर उस शूद्र बालक शंबुक की गर्दन धड़ से अलग कर दी। यह था मर्यादा पुरूष राम का दलितों के प्रति व्यवहार चरित्र और अंधविश्वास भी। धर्मशास्त्र गीता में भगवान श्रीे कृष्ण कहते हैं कि यह चार प्रकार की वर्ण व्यवस्था उन्होंने ही योग्यता एवं काम के आधार पर तैयार की थी 

(तमिलनाडू) में ताड़ी निकालने वालों को ब्राह्मण जाति की शाखा माना गया, लेकिन ब्राह्मणों से बात करने के लिए उन्हें 24 कदम दूर रहने को कहा गया। नायक जाति के लोगों को, जोकि खेतीहर किसान हैं, नमूदरी ब्राह्मण के पैर छूने का अधिकार नहीं था। केवल दूर से ही बात कर सकते थे। तायन जाति के लोगों को ब्राह्मणों से 36 कदम दूर से बात करने को कहा गया, लेकिन इससे भी बढक़र पुलायन जाति के लोगों को ब्राह्मण से 96 कदम दूर से बात करने को कहा गया। वहीं दूसरी ओर तायन जाति के लोगों को नायक जाति के लोगों से 12 कदम दूर से बात करने को कहा गया। इस प्रकार इस वर्ण व्यवस्था ने एक इंसान को दूसरे इंसान से बिल्कुल अलग कर दिया।महाराष्ट्र में महार जाति के लोगों को रास्ते पर कहीं भी थूकने की मनाही थी और इसके लिए उनको अपने गले में हांडी या कोई बर्तन टांगकर रखना पड़ता था। यदि रास्ते में किसी ब्राह्मण का आना होता तो उन्हें अपने पद्चिन्हों को मिटाने के लिए उन्हें अपनी कमर से झाडू बांधकर रखनी पड़ती थी। किसी भी दलित की ब्राह्मण पर छाया पडऩा अपराध था। यह सब वर्ण व्यवस्था की करामात थी। तीनीविली जिले में पुरादा समूह के लोगों को दिन के समय बाहर निकलने का अधिकार नहीं था क्योंकि उनके देखने से ही वातावरण को दूषित होना समझा जाता था। इसीलिए इन बेचारों को सारे कार्य रात में ही करने पड़ते थे अर्थात् उनको सूर्य के दर्शन करने का भी अधिकार नहीं था। मैसूर राज्य में दलित और छोटी जातियों की औरतों को अपनी छाती ढंकने का अधिकार नहीं था और न ही वे उच्च जातियों की स्त्रियों के समान बाल संवार सकती थीं और न ही अच्छे कपड़ों को पहन सकती थी। यह था इंसान का इंसान के प्रति धर्म।इतिहास में चाणक्य उर्फ कौटिल्य की बड़ी प्रशंसा की जाती है। लेकिन उनके द्वारा बनाए गए कानून पूरी तरह जातिवादी थे क्योंकि सभी ब्राह्मणों को करमुक्त कर दिया गया था। क्षत्रियों को तीन प्रतिशत कर, वैश्य को चार प्रतिशत तथा शूद्रों को पांच प्रतिशत कर के रूप में देना पड़ता था। अर्थात् सबसे गरीब शूद्र को सबसे अधिक कर देना पड़ता था। यही थी चाणक्य की न्याय प्रणाली। सातवीं शताब्दी में सिंध के आलौर रियायत पर सियासी राय मोर गौत्र के जाट का राज्य था। लेकिन चच नाम के ब्राह्मण ने षड्यंत्र के तहत उसका राज्य हथिया लिया और जिस प्रकार की पाबंदियों का पिछे वर्णन किया गया है, ऐसी पाबंदियां जाटों पर लगाई गईं तथा चचनामे में जाटों को चांडाल जाति लिखा है। (अन्य धर्मशास्त्रों के अनुसार)मनुस्मृति(100) : पृथ्वी पर जो भी है, वह सब ब्राह्मण का है। मनुस्मृति(101) : दूसरे लोग ब्राह्मणों की दया के कारण पदार्थों का भोग करते हैं। मनुस्मृति(127) ब्राह्मण तीनों वर्णों से बलपूर्वक धन छीन सकता है। मनुस्मृति(165-66) : जान-बूझकर क्रोध से भी ब्राह्मण को तिनके से जो मारता है, तो 21 जन्मों तक वह बिल्ली की योनि में जन्म लेता है। मनुस्मृति(64) : अछूत जातियों के छूने पर स्नान करना चाहिए। मनुस्मृति(8, 21 व 22) : ब्राह्मण चाहे अयोग्य भी हो, उसे न्यायाधीश बनाना चाहिए। मनुस्मृति(8, 267) : यदि कोई  ब्राह्मण को दुर्वचन कहेगा तो भी वह मृत्यु का अधिकारी है। मनुस्मृति 270) : यदि कोई ब्राह्मण पर आक्षेप करे तो उसकी जीभ काटकर दंड दें। शतपथ ब्राह्मण : यदि किसी की भी हत्या होती है, तो वास्तविक हत्या ब्राह्मण की मानी जाएगी। यदि कोई ब्राह्मण शूद्र की हत्या करता है तो वह किसी बिल्ली, चूहे, मेंढक, छिपकली, उल्लू व कौए के समान मानी जाएगी। किसी राजा को ब्राह्मण को सजा देने का अधिकार नहीं है। ब्राह्मण की हत्या से बड़ा कोई अपराध नहीं है। गौतम धर्म सूत्र : यदि शूद्र किसी वेद को सुन ले तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा या लाख भर देनी चाहिए। बृहद्हरित स्मृति : बौद्ध भिक्षु तथा मुंडे हुए सिर वालों को देखने की मनाही है। सत्यार्थ प्रकाश(पेज नंबर 20, 53, 54, 60, 76 तथा 184) स्वामी दयानंद को एक महान समाज सुधारक माना गया है और उन्होंने मूर्ति पूजा का खंडन करके एक महान कार्य किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था से वे भी अपना पीछा नहीं छुड़वा पाए। उन्होंने दलितों को जनेऊ पहनने तथा वेद सुनने का अधिकार तो दिया, लेकिन उनसे पका हुआ भोजन लेने से मना किया। पुनर्विवाह के बारे में उन्होंने लिखा है कि ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय की लडक़ी विधवा हो जाती है और उसका संयोग नहीं हुआ है तो उसका पुनर्विवाह कर देना चाहिए, अन्यथा नहीं। लेकिन शूद्र संयोग होने पर भी बेटी का पुनर्विवाह कर सकता है। स्वामी जी ने संत कबीर, गुरू नानक जी तथा संत रामदास की बुराई करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।  इसी प्रकार आजाद भारत में पंडित नेहरू ने जाति प्रथा को और मजबूत कर दिया। : यह जाति प्रथा भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों, जैसे कि मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, मणीपुर व अरूणाचल, जो सभी जनजाति बाहुल्य है, को भी प्रभावित किए बगैर नहीं रह सकी। इन राज्यों में आज तक कभी छूआछूत नहीं रही, लेकिन जातीय प्रथा पूर्णरूप से उभरकर सामने आई, जैसे कि मिजो जाति के लोगों ने रियांग जाति के लोगों को मिजोरम से पूर्णतया भगा दिया और वे आज त्रिपुरा में शरणार्थी जीवन बिता रहे हैं। इसी प्रकार में चकमा और बोम जातियां सुरक्षा बलों के संरक्षण में जी रही हैं। मणीपुर में वर्तमान में 34 उग्रवादी संगठन हिंदू और ईसाई जातीय आधार पर काम कर रहे हैं। नागालैंड की नागा जाति को एक नस्ल कहा जाता है, लेकिन इनमें भी 16 जातियां हैं, जिनको उनके पहनावे से पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार अरूणाचल में 150 से अधिक जनजातियां हैं। मेघालय राज्य में खासी और जयंती जातियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि आज भी हमारे पूरे देश में जाति प्रथा कायम है और पूरे भारत वर्ष में कोई भी ऐसी जाति नहीं है, जिसका अपना जातीय संगठन न हो। पूरे देश में जाति के आधार पर स्कूल, कॉलेज, धर्मशालाएं व अन्य संस्थाएं बनी हुई हैं, जिनके समारोह में नेता लोग मुख्यातिथि के तौर पर सम्मिलित होकर इस प्रथा को और भी बलशाली बना रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां जातीय आधार पर टिकट बांटती हैं और मंत्री बनाती हैं। कुछ लोगों को गलतफहमी है कि प्रेम विवाह से जातीय प्रथा समाप्त हो जाएगी। हमें याद रखना चाहिए कि हजारों साल पहले सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया उर्फ हेलन चंद्रगुप्त मौर्य से प्रेमविवाह किया था और उसके बाद भी प्रेम विवाह होते रहे हैंं। भारतीय संविधान बनने के समय दबे कुचले लोगों का सामाजिक स्तर उठाने के लिए इन्हीं चार वर्णों के लोगों को चार समूहों में बांट दिया गया, जैसे कि अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा और सामान्य जाति। लेकिन जाति प्रथा अपने पूरे शवाब पर आज भी भारतवर्ष में कायम है संविधान को आज तक भी लागू नहीं किया गया 


Friday, September 15, 2023

अछूत एक चमार की कहानी || अछूत चमार और पंडित || चमारों की कहानी #चमार

 अछूत एक चमार की कहानी || अछूत चमार और पंडित || चमारों की कहानी #चमार

सभी साथियों को हमारी ओर से जय भीम जय बहुजन जय संविधान बाकि जिसको जो पसंद हो हमारी ओर से स्वीकार करें  साथियों आज की इस कड़ी में हमने अछूत कहानी को सामिल किया है जो एक गरीब चमार की कहानी है यह कहानी बड़ी ही मार्मिक ह्रदयस्पर्शी, हृदयविदारक घटना पर आधारित है जिसे सुनकर  आप भी शॉक्ड हो जायेंगे मेरे हिसाब से इस कहानी को आप पूरा सुने तो ज्यादा अच्छा होगा बाकि आपकी मर्जी है साथियों 

साथियों इस कहानी में बताई गई घटना से हजारों सालों से लेकर वर्तमान समय में भी यह सब देखने को मिलता है साथियों  अछूत कही जाने वाली सभी जातियों में सबसे ज्यादा उत्पीड़ित जाति है जो आज भी हर वर्ग के निशाने पर रहती है  

चाहे गलती किसी दूसरे की ही क्यों ना हो 

लेकीन कमी हमेशा हमारे समाज के लोगों की ही निकलती है हमारे समाज के लोग चाहे नौकरी करते हों या फिर कोई काम धंधा करते हो उसी स्थान पर उनके साथ आज भी भेदभाव देखा जाता है और उनका लगातार उत्पीडन किया जाता है या तो वो खुद ही काम छोड़कर भाग जायेगा या उस पर तरह तरह के इल्जाम लाग दिए जाते रहे है ताकि वह अपना काम छोड़कर चला जाए कई बार ऐसे मामले देखने को मिलते है जिसकी वजह से दुखी होकर बहुत से दलित भाइयों ने अपनी जान तक दे दी या फिर उनकी जान तक ले ली गई  

साथियों मैंने भी इस तरह की प्रताड़ना को झेला है  साथियों तो चलो कहानी शुरू करते है और समझते है कि क्या वास्तव में चमार इसी तरह की घृणा और नफरत का शिकार हमेशा होता रहेगा जो नफरत की इस खाई को इन्होंने खड़ा किया है उसे भरने का काम कौन करेगा कौन लोग इसके जिम्मेदार है जो इस तरह की बदसलूकी और अत्याचार करने का काम करते है क्या ये लोग जातिवादी मानसिकता के शिकारी नही है तो और क्या है जानिए इस वीडियो में 

साथियों                       

अछूत कहानी एक ऐसे पंडित ब्राह्मण सेठ की कहानी है, जिसके यहाँ काम करते हुए एक चमार जाति के मज़दूर की जान चली जाती है। चमार मज़दूर के मरने पर सेठ क़ानूनी कार्रवाई से बचने के लिए आनन-फ़ानन में उसकी लाश को अपने यहाँ से उठवा देता है। एक दिन की बात है 

शकुरवा चमार अपनी झोंपड़ी में बैठा नारीयल पी रहा था। पास में ही उसका इकलौता लड़का ‘बेनी’ खेल रहा था। बेनी के सिवा शकुरवा का इस दुनिया में कोई न था। वही लड़का अब उस के बुढ़ापे का सहारा था। दिन-भर मेहनत मज़दूरी से जो कुछ मिल जाता था उसी में दोनों का ख़र्च चलता था। लेकिन दो दिन से वो गांव के ज़मींदार पण्डित राम प्रशाद के यहां बेगार यानि मजदूरी  कर रहा था। ज़मींदार को सरकार ने राय साहिब के ख़िताब से नवाजा था। 

जिसकी ख़ुशी में जश्न मनाया जा रहा था। दिन-भर की  बेगार यानि मजदूरी से फ़ुर्सत पाकर थोड़ी ही देर में शकुरवा ने अपनी झोंपड़ी में जब क़दम रखा था।तो बेटे बेनी ने बाप के गले से लिपट कर कहा, “बाबा मुझको नई धोती मंगा दो ना” 


शकुरवा ने ठंडी सांस भर कर कहा, “मालिक के यहां  काम ख़त्म हो जाये और कुछ इनाम मिले तो उसी से तुझको धोती मंगा दूंगा।” बेनी ने बाल हट से काम लिया, नही नही  मैं तो अभी लूँगा। मालिक के यहां सब लोग अच्छे-अच्छे कपड़े पहनते हैं। मैं भी पहनूँगा।” 


शकुरवा ने कहा, “पागल न बन हम ग़रीब है वो लोग अमीर है। हमारा उनका क्या मुक़ाबला?” बेनी ने भोलेपन से कहा, “हमें ग़रीब और उनको अमीर किस ने बनाया है?” 


शकुरवा ने क़हक़हा मार कर कहा, “तू बड़ा पागल है। भगवान बनाता हैं और कौन बना सकता है!” 

साथियों बच्चें को क्या मालूम होता है कि अमीर गरीब क्या होते है। साथियों कड़ी मेहनत लगन और परिश्रम के बल पर इंसान इस गरीबी को अपने जीवन से दूर कर सकता है इसके पीछे किसी भगवान का कोई हाथ नहीं होता है भगवान नाम से तो केवल पांडे पुजारी या ब्राह्मण लोग ही अमीर होते है बाकी सबको  

परिश्रम करना पड़ता है  लेकिन पिता अपने बच्चे को कैसे समझा सकता है

 साथियों 

बच्चा बेनी अपनी मासूमियत से बोला     

“तो भगवान ने हमको अमीर क्यों नहीं बनाया?” 


“अब राम जानें पिछले जन्म में हमसे कोई ग़लती हो गई होगी। उसी की सज़ा मिली है।” 


“अगर भगवान हमसे ख़ुश हो जायें तो क्या वो हमको अमीर कर देंगे?” 


“और नहीं तो क्या? भगवान के हाथ में तो सब कुछ है।” 


“ तो भगवान कैसे ख़ुश होते हैं?” 


“पूजापाट से।” 


“तो हम पूजापाट करेंगे।” 


“लेकिन हम मंदिर में नहीं घुस सकते।” 


“क्यों?” 


“हम लोग अछूत हैं। पण्डित लोग कहते हैं कि हमारे घुसने से मंदिर नापाक हो जाएगा।” 


“तो क्या, भगवान मंदिर में ही रहते हैं और कहीं क्यों नहीं?” 


“नहीं भगवान तो हर जगह हैं।” 


“तो मैं भी अपनी झोंपड़ी में एक छोटा सा मंदिर बनाऊँगा और भगवान की पूजा किया करूँगा।” 


“लेकिन बग़ैर किसी पण्डित की मदद के पूजा नहीं मानी जाएगी।” 


बेनी का दिल टूट सा गया और इससे ज्यादा कुछ और पूछ ही न सका।

 इतने में किसी ने बाहर से आवाज़ दी, “अबे शकुरवा!” बाहर निकल 

शकूरवा ने बाहर निकलकर देखा कि ज़मींदार का प्यादा,

बाहर दाता दीन खड़ा है। शकुरवा ने अदब से पूछा, “महाराज का हुक्म?” 

तुम्हे मालिक ने बुलाया है 

“अबहिन, हाँ अभी!” 


“सरकार अभी  तो दिन-भर की बेगार से वापस आया हूँ।” 


“मैं कुछ नहीं जानता। मैंने तुझे मालिक का हुक्म सुना दिया है। अगर तू अभी स्टेशन पर नहीं जायेगा तो फिर तेरी ख़ैर नहीं।” ये कह कर महाराज दाता दीन तो अकड़ते हुए चल गए और शकुरवा आसमान की तरफ़ हसरत से देखता रह गया। दिन-भर बेगार में रहा। समझता था कि रात को आराम मिलेगा, मगर ग़रीबों की क़िस्मत में आराम कहाँ? कुछ चने अपने बेटे बेनी को देकर उसे गुदड़ी पर लिटा दिया और ख़ुद स्टेशन की तरफ़ रवाना हो गया। 


राय साहिब राम प्रशाद के मकान के सामने एक आ’लीशान शामियाने में पंडितों को भोज दे रहा था। पण्डित कौन थे? जो बाहर से आए हुए ग़रीब ब्रह्मन बने हुए थे, लेकिन जिनके घरों में सोना बरसता था। जो दा’वतें खा-खा कर इतने मोटे हो गये थे कि दो क़दम चलना भी मुश्किल था। इसी तरह के ब्राह्मण आज ता’ल्लुक़ेदार के यहाँ आव भगत सत्कार से मिठाईयां खा रहे थे। उनसे  चंद दूर भूखों मरने वाले बेगारी मज़दूर 

जिन्हें पंडितों ने अछूत का ख़िताब दे रखा है, हसरत भरी नज़रों से पंडितों की तोंद को देख रहे थे। 


शकुरवा चमार को रात-भर स्टेशन पर रहना पड़ा। वो थोड़ी देर बाद  मेहमानों का सामान लेकर गांव में वापस आया था, और अब तक उसे घर जाने की इजाज़त न मिली थी। वो एक तरफ़ लंगोटी बाँधे चुप-चाप खड़ा था कि एक तिलक धारी पण्डित शिबू शंकर लुटिया में गंगा जल लिये खड़ाऊँ पहने राम-राम की माला जपते हुए उस तरफ़ से निकले। ज़मीन कुछ ऊंची नीची थी। पंडितजी लड़खड़ाए और उनका बदन शकुरवा चमार से छू गया। बात मा’मूली थी। पंडितजी अपने घर की मरम्मत अछूतों से ही कराते थे। महराजिन का डोला यानि स्त्रियों की एक सवारी जिसे कहार  और कहीं कही चमार भी  ढोते हैं ,  लेकिन इस वक़्त उनके हाथ में गंगा जल था। वही गंगा माई का जल जिससे सारी दुनिया सैराब यानि कि जलथल होती है। जिसमें भंगी, चमार, ब्राहम सब स्नान करते हैं। वही ब्राह्मण गंगा जल लुटिया में भर कर ख़ुद को देवता से भी बढ़कर समझने लगे। ग़लती थी अपनी लेकिन क़सूर बताया गया था शकुरवा चमार का। जब उसने पंडितजी को अपने पास से गुज़रते हुऐ देखा तो हटा क्यों नहीं। भरी सभा में उसने जान-बूझ कर पंडितजी की बैजती की है  अब उनको फिर से स्नान करना पड़ेगा। इसी किस्म की बातें सोच कर पंडितजी शकुरवा चमार पर बरस पड़े।“ पापी चण्डाल। बदमाश है तू”पूरी तरह से ग़रज़ कर पंडितजी को जितनी गालियां याद थीं वो सुना कर ख़त्म कर दीं। ता’ल्लुक़ेदार साहिब सौर सराबा सुनकर दौड़े आये और पंडितजी से पूछा, “महाराज क्या बात है?” 


महाराज ने बिगड़ कर कहा, “जहां पंडितों को भोज दिया जाता है वहां चमारों का क्या काम? देखिए  इस पापी ने जान-बूझ कर मुझे छू लिया। अब आप ही बताईए मुझे ग़ुस्सा क्यों न आये। राम-राम! आपने चमारों को बहुत सर चढ़ा रखा है।” महाराज के आख़िरी जुमले ने ता’ल्लुक़ेदार को आग बगूला कर दिया। उन्होंने शकुरवा चमार से पूछने की ज़रूरत ही न समझी। प्यादे को इशारा कर दिया कि “मार साले को,” वहां तो हुक्म की देर थी। शकुरवा भूख  के मारे यूंही मरा जा रहा था। मार पड़ी तो ज़मीन पर गिर कर लोटने लगा। प्यादे ने समझाया कि तूने ऐसा क्यों किया  तुझे पंडित से दूर हटना था  उसने कस कर शकुरवा चमार को एक जोर की लात दे मारी। चोट तली पर लगी और वो फट गई और देखते ही देखते शकुरवा ने दम तोड़ दिया। जश्न में ऐसी बदशगुनी यानि अपशगुन हुआ , कि सब लोग बहुत घबरा गये। थोड़ी देर के लिए ता’ल्लुक़ेदार साहिब भी परेशान हो गये। उनको इसका तो कोई गम और डर ना था कि एक ग़रीब की हत्या हो गई। बल्कि इसका सदमा था कि कम्बख़्त आज ही क्यों मरा। सब ब्रह्मण खा पी चुके थे, वो सब राम-राम कहते हुए चलने के लिए तैयार हो गये। वो ऐसे पाप की जगह पर कैसे रह सकते थे। बिरादरी उनको छोड़ देती। लेकिन ता’ल्लुक़ेदार के पास पंडितों को राम राम करने का नुस्ख़ा मौजूद था। लक्ष्मी देवी उन पर मेहरबान थीं दौलत मंद जो ठहरे थे । ऐसी सूरत में उन्होंने चमारों को बुला कर हुक्म दिया कि “शकुरवा की लाश को ले जा कर फ़ौरन जला दो।” साथ ही धमकी दी कि अगर किसी ने पुलिस में मार पीट की ख़बर दी तो उसके हक़ में अच्छा न होगा। 


शकुरवा को मरे बीस साल हो चुके थे। ता’ल्लुक़ेदार राय साहिब राम प्रशाद ज़िंदा थे। लेकिन जीवन के इस अंतिम मोड़ पर यानि बुढ़ापे की उम्र में भी जब परगने का हाकिम उनके इ’लाक़े में आता तो राय साहिब फ़ौरन हाकिम के सलाम के लिए हाज़िर होते। एक दिन राय साहिब ने सुना कि एक नये हाकिम मिस्टर डेविड उनके इलाक़े में आये हैं। फ़ौरन पड़ाव पर पहुंचे। सबसे पहले पेशकार से मिले। वो राय साहिब के पुराने सलाह मशविरा देने वालों में से एक था  उसने राय साहिब से कहा, “ये साहिब रईसों से बहुत कम मिलते हैं। आप उनसे ना मिलें तो बेहतर है।” 


“तो क्या मुझसे भी न मिलेंगे?” 


“नहीं आप जैसे रईस से तो ज़रूर मिलेंगे लेकिन जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ। उनसे मिलकर आपकी तबीयत ख़ुश न होगी।” 


“मैंने तो सुना है कि ये नीच ज़ात वालों से भी मिलते हैं। फिर मुझसे क्यों न मिलेंगे।” 


“हाँ ये साहिब अछूतों से बहुत मिलते हैं और उनको कुर्सी पर बिठाते हैं लेकिन रईसों से सीधे मुँह बात भी नहीं करते।” 


“ईसाई है ना, लेकिन अब तो मैं आ गया हूँ, मिल कर ही के जाऊँगा। मेरी इत्तिला  तो कर दीजिए ।” 


“जैसे आपकी मर्ज़ी।” इतना कह कर पेशकार, डेविड साहिब के खे़मे में दाख़िल हुआ और इत्तिला की हजूर राय साहिब राम प्रशाद मिलने के लिए आये हैं। 


डेविड साहिब ने कुछ सोच कर कहा, “अच्छा अंदर भेज दो।” राय साहिब ने खे़मे में दाख़िल हो कर निहायत अदब से साहिब को झुक कर सलाम किया और फिर हमेशा की तरह, रीति के अनुसार, दस्तूर के हिसाब से  हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़े लेकिन डेविड साहिब ने उनसे हाथ न मिलाया और कहा, “मा’फ़ कीजिए मैं आप जैसे  ऊंचे घराने वाले और अमीरज़ादे पंडितों से हाथ नहीं मिला सकता हूं  क्योंकि मैं अछूत हूँ।” राय साहिब बोले, “हुज़ूर ऐसी बातें न करें।  हम हजूर को ईश्वर का साया समझते है 


डेविड बोला “लेकिन मैं तो अछूत हूँ।” 


“वो कैसे?” 


“ये आपको बहुत जल्द मा’लूम हो जायेगा। हाँ ये तो बताइये आपके गांव में कोई शकुरवा रहता था?” 


शकुरवा का नाम सुनकर पंडितजी को बीस बरस पहले की बातें याद आगईं। डर के मारे उनका चेहरा फीका पड़ गया  उन्होंने दबी ज़बान से कहा, “जी हाँ मेरा एक नौकर  इस नाम का ज़रूर था लेकिन उसको मरे हुए बीस साल हो गये।” 


डेविड साहिब ने कहा, “मैंने सुना है आपने उसको जान से मरवा डाला था।” 


राय साहिब तन गये, “झूट, बिल्कुल झूट। भला कहीं ऐसी जीव हत्या हो सकती है?” 


“जी हाँ, आप जैसे बेदर्द कपटी धर्मांध दृष्टि वाले लोगों से जीव हत्या हो सकती है! राय साहिब इधर देखिए। जिसको इस वक़्त आप हुज़ूर कह कर पुकार  रहे हैं, जिसको सलाम करने आप यहां हाज़िर हुए हैं, वो उसी बदनसीब शकुरवा चमार का लड़का बेनी है।” राय साहिब ये सब सुनकर बेहोश हो गये। डेविड साहिब ने उन्हें घर भेज दिया, ब्राह्मण सेठ यह बात बर्दाश्त नहीं कर पाया है जहां वो इस सदमे से उबर न सका और गिरकर मर गया ।

 जब उनकी अर्थी डेविड साहिब के कैंप से गुज़री तो वो “राम नाम सत है”, की आवाज़ सुन रहे थे  

साथियों जो दूसरों के लिए खाई खोदने का काम करता है एक ना एक दिन उसके साथ भी अंजाम बुरा ही होता है साथियों चाहे कोई गरीब हो मजदूर हो दलित हो लाचार हो या मजबूर हो हमे उसके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम खुद के लिए चाहते है सबको मानव प्रेम करना चाहिए और जाति भेद भाव की नीति का सभी को  त्याग करना चाहिएं 

वीडियो देखने के लिए आपका शुक्रिया जानकारी अच्छी लगी हो तो चैनल को सब्सक्राइब करके लाइक और कमेंट करे और अपने सभी साथियों तक वीडियो को शेयर जरूर कर दें जय भीम साथियों dhanywad 


Wednesday, September 13, 2023

माधव चमार की गरीबी और कफन || चमारों के हालात की असली वजह || चमारों की आँखें खोल देने वाली कथा

 


साथियों दो बाप बेटों की कहानी है घिसू चमार और माधव चमार दोनो ही निकम्मे थे उनके घर में एक औरत जो माधव की पत्नी थी साथ में ही रहती थी 

दोनों की ही काम करने की फितरत नहीं थी इसी वजह से लोग उनसे नफरत करते थे कहानी बड़ी ही हृदय विदारक है यानि शोक उत्पन करने वाली घटना है इस कहानी की स्थिति आज भी अपनी छाप छोड़ देती है कहीं कही आज भी दलितों में ऐसा देखने को मिल ही जाता हैं

साथियों कहानी में बताई घटना का असर आज भी दलितों में देखने को मिल जाता है नशा गरीबी को बढ़ावा देता है और व्यक्ति की मान प्रतिष्ठा को भी चूर चूर कर देता दलितों में अधिकांस लोग शराब या अन्य नशे को बहाना बना कर पीते है कि आज हमारे घर में शादी है आज बच्चे का जन्म दिन है आज कथा है आज घर में मेहमान आए है आज मैं बहुत दुखी हूं आज मैं गम भूलना चाहता हूं आज मैं बड़ा ही खुश हूं इसलिए मैं शराब पी रहा हूं साथियों हम अपनी सुध बुध खो रहे है अपना विवेक और अपनी समझ आदि को समाप्त कर रहे है पैसे की बरबादी और समय की बरबादी कर रहे है हमे ज्ञान होना चाहिए कि पैसे हमारी जरूरत है और पैसे ही हमे हमारे दुखों को दूर करता है हमारी जिंदगी के कष्टों का निवारण करता है हमे नई जिंदगी देता है हमे मेहनत से काम करना चाहिए और लगन करके आगे बढ़ना चाहिए साथियों जिनमे हौसला और जज्बा होता है वहीं लोग नई बुलंदियों को छूते है आसमा भी उनका स्वागत करता है आप कहानी को पूरा सुने वास्तव में आपको एक हकीकत नजर आएगी की हमारे समाज कैसी जिंदगी जीने पर मजबूर था और आज भी हम लोग किस तरह अपनी जिंदगी को काट रहे है हम पशुओं के भांति ही अपनी जिंदगी को ढौ रहें है हमे अपने जीवन में बहुत से बदलाव लाने ही होंगे तभी हम अन्य समाज के लोगो की बराबरी कर सकेंगे जिसने इस कहानी को अपने भीतर उतार लिया वो अपनी जिंदगी में कभी मार नही खा सकता है और जो इस कहानी को कहानी की तरह सोचने की भूल कर बैठेगा मैं समझता हूं कि वो अपनी जिंदगी में कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा इस कहानी से हमे अपने समाज के लोग प्रेरणा देते है कि तुम हम जैसे मत बनो अपनी हिंदी में कुछ नया करके दिखाओ और नशे और गरीबी को घर से ही नही समाज से उखाड फेंको ताकि तुम्हे एक कफन के लिए भीख तक न मांगनी पड़े 

तो साथियों आइए कहानी का भरपूर आनंद लीजिए और अपनी जिंदगी की एक नई शुरुआत करने की कसम लीजिए कि हम और हमारा समाज इस बीमारी को जड़ से खत्म करें ताकि आगे। आने वाली पीढ़ी इस बुरे दौर से ना गुजरे हमने कहानी को बड़ी ही सूझ बुझ से चुना है ताकि समाज में एक नया परिवर्तन पैदा हो सके सभी साथियों को हमारी ओर से सादर जय भीम जय गुरु जी और जय संविधान सभी मूलनिवासी महापुरुषों की जय तो कहानी थोड़ी लंबी होगी लेकिन आपके द्वारा बिताए गए स्माय की भरपूर कीमत जरूर देगी कहानी को अंत तक देखना ना भूले साथियों कहानी इस प्रकार से है

आइए देखते है


 चमारों का एक कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम था। घिसु एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर अनाज था दोनो काम करना नही चाहते थे जब तक अनाज है तब तक काम पर जाने का कोई मतलब नहीं था। जब दो-चार फांके ही रह जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाज़ार में लकड़ियां बेच आता था और जब तक वे पैसे रहते, तो दोनों इधर-उधर बैठते फिरते थे। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर किसान इन दोनों को उसी वक्त बुलाते थे, जब जमीदार को कोई मजदूर ना मिलता और कोई चारा न होता। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं थी फटे चिंथड़ों से अपने तन को ढक लेते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त थे कर्ज़ से लदे हुए थे । गालियाँ भी खाते थे और मार अलग से पड़ती थे। फिर भी यारो को कोई गम न थी। दीन इतने थे कि कहीं से भी पैसे आदि मिलने की कोई आशा न थी फिर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज़ दे देते थे। मटर आलू की फसल के दौरान दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते थे या दस-पाँच और आलू उखाड़ लाते और उन्हें रात में खा लेते थे। घीसू ने इसी तरह अपनी जिंदगी के करीब साठ साल काट लिए थे और माधव भी एक सच्चे बेटे की तरह बाप के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोद कर लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन पहले देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से माधव की पत्नी आयी थी, तब से उसने इस ख़ानदान में बदलाव की नींव डाल दी थी और इन दोनों बाप बेटों का पेट भी भरने लगी थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई इन्हे काम पर बुलाता, तो दुगुनी मजदूरी माँगते थे एक दिन 

झोपड़े के द्वार पर दोनो बाप बेटा एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे थे और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना से परेशान थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल दहला देने वाली आवाजे निकलती थी, कि दोनों ही अपना कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई थी, सारा गाँव अन्धकार में डूबा हुआ था।

घीसू ने कहा-मुझे तो ऐसा लगता है कि बचेगी नहीं मार जायेगी सारा दिन दौड़ते हो गए, जा देख तो आ।

माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?

‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई कर रहा है


‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’


वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह कब मरे तो आराम से सोयें।



घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो ले, क्या दशा होगी उसकी माधव बोला चुड़ैल का फिसाद होगा और क्या यहाँ तो ओझा भी झाड़ने का एक रुपया माँगता है

माधव अपने बाप से बोला 

तुम्हीं जाकर देखो न?’

घीसू बोला

‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं था और फिर वो मुझसे लजाएगी भी तो जिसका कभी मुँह नहीं देखा,उसे आज इस हाल में देखूं उसे अपने तन की सुध भी तो न होगी? 


‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’


‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’

हमारे समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ ज्यादा अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की मण्डली में जा मिला था।हां उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजो के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहा उसकी मण्डली के लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, इसीलिए घीसू पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसल्ली तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों के जैसी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती,और उसकी सरलता और गरीबी की वजह से दूसरे लोग बेवजह फ़ायदा तो नहीं उठाते है! दोनों बाप बेटे आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे।


 कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर गर्म आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा जल्दी इसी बात की थी कि किसी तरह जल्दी पेट में पहुंचे । इसलिए दोनों जल्दी से जल्दी निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते थे


घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक़ बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भुलाया जाता । तब से आज तक उस तरह का भरपेट खाना नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं,छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और वो भी असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसे स्वभाव का था वह ठाकुर!


माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।


‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको बचत की पड़ी है। सादी-ब्याह में खर्चा मत करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है इनकी और हाँ, खर्च में बचत की सूझती इन्हें है!’


आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर कुंडलियां मारे पड़े हों।


और बुधिया जो माधव की पत्नी है वो अभी तक कराह रही थी।

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी पत्नी ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।


माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।


मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में से माँस?


बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। जमींदार इन दोनों की सूरत से ही नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।


घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा यह कि वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।


जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।


जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।


गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।


बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!


माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।


‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’


‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’


‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’


‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’


‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’


दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस की दूकान पर गये, तो कभी उसकी दूकान पर!गए तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।


उसके बाद कुछ चखना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।


कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।


घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जायेगा।


माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, यूहीं लोग ब्राह्मणों को हजारों रुपये क्यों दान दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!


‘बड़े आदमियों के पास धन है, हमारे पास लास फूँकने को भी धन नहीं है?’


‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’


घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।


माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!


आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे थे


दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।


घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?


माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।


एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?


घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।


‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’


‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’


‘पूछेगी तो जरूर!’


‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’


माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो मैंने सिंदूर डाला था।


‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’


‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अब दिया है। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’


‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।


वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा था। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।


और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के शाली हैं! पूरी बोतल बीच में है।


भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।


घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!


माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। 

कफ़न 2

माधव चमार की गरीबी और कफन 

पियक्कड़ों की आँखें खोल देने वाली कथा


मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ा

श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की ख़ासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।


माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने ज़िन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!


वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर रोने लगा ।


घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।


और दोनों खड़े होकर गाने लगे- ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।


पियक्कड़ों की आँखें ।इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े सभी साथियों इस पेज को ज्यादा से ज्यादा लोगो के पास शेयर करे 

साथियों हमारी ओर से जय भीम