ठाकुर का कुआ || अछूत पति पत्नी की व्यथा
साथियों गंगी और जोखू के मन में उठा था कि हम क्यों नीच हैं?
और ये लोग ऊँचे क्यों हैं साथियों विचारो की इस कहानी में ढेरो सवाल खड़े होते है यह कहानी स्वर्णों और अछूतो के भूतकाल से लेकर वर्तमान समय के विचारो पर आधारित है इसमें देश में समय समय पर दलितों के ऊपर होने वाली कई घटनाओं के विषय में भी जानकारी दी गई है
अछूतों की गहन समस्या पर लेखक के विचार
' जातिप्रथा के मूल कारणों पर कहीं न कहीं चोट
करने का प्रयास तो करते है लेकिन जिस धर्म के अधीन इस भेदभाव को मान्यता प्राप्त है
उसके विरोध में लेखक ने चुप्पी साध ली है। धार्मिक आडंबर पर गंगी ने चोट की है
'ये लोग गले में जनेऊ जेवड़ी तागा डाल लेते हैं। यहाँ तो जितने भी हैं, एक से बढ़ाकर एक छल
यें करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें ।
गंगी के इस कथन में यह सत्य छिपा है कि तथाकथित ऊँची जातिवालों को नीचता
के किसी भी काम को करने मे शर्म नहीं महसूस होती। जिस वर्ग के पास
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ता होगी, उन्हें ऐसे कार्यों से कोई भी बदल
नहीं कर सकता, ना ही रोक सकता है, क्योंकि इनके द्वारा किए गये अपराध को
अपराध नहीं, बल्कि जन्मजात अधिकार माना जाता है। न्याय, धर्म, नीतिमूल्यों की
सुरक्षा करने वाली संस्थाओं पर भी इन्हीं का ही वर्चस्व है। केवल कथित ऊँची जाति
होने भर से इन्हें दूसरों पर अन्याय, अत्याचार करने और उनका शोषण करने का
अधिकार प्राप्त है जिसे आज भी हम देखते हैं कि कथित ऊँची जाति के बड़े से बड़े
अपराधी को कोई भी न्याय संस्था और राज्य जिसमें पुलिस, सरकारी तंत्र, कानूनी
व्यवस्था सजा देने में कामयाब नहीं हो पाती।वर्ष 1992 में राजस्थान के कुम्हेर का हत्याकांड़ इसका जीता जागता
उदाहरण है। जिसमें पूरी की पूरी दलित बस्तियों को और उसमें रह रहे दलित चमार जाटव स्त्री,
पुरुष, बच्चों सहित आग लगाकर राख के ढेर में तब्दील कर दिया था। आंध्रप्रदेश के चुं दुर में हुई
दलितों की सामुहिक हत्याओं के लिए जिम्मेदार सवर्ण वर्ग कानूनी शिकंजे से आज भी बाहर आज़ाद घूम रहा है, क्योंकि अछूतों की हत्याओं के समय चुं दुर की पुलिस
सवर्णों के साथ ही हत्या के स्थान पर मौजूद थी। वहाँ की पुलिस, राजनीतिक सत्ता
और न्याय संस्थाओं ने सवर्ण अत्याचारियों को बचाने में पूरा कमाल दिखा दिया था। न्याय
उन्हें नहीं मिला जो असहाय और अछूत थे। 'ठाकुर का कुआं' में तत्कालीन युग के
सवर्ण वर्ग के अंतरंग संबंधों के इस घृणित चरित्र को लेखक प्रेमचंद ने
ईमानदारी से उघाडा है। "अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की एक भेड़
चुरा ली थी और बाद में उसे मारकर खा गया। इन्हीं पंडितो के घर में तो बारहों मास जुआ
होता है। यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। और हमसे फ्री में काम करा लेते हैं, मजूरी देते इनकी
नानी मरती है किस बात में हैं हमसे ऊँचे?” गंगी द्वारा उठाए गये सवाल तत्कालीन
सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों की वास्तविकता पर एक करारी चोट है।
कहानी पानी की समस्या को लेकर गहन चिंता में डूबे अछूत पति-पत्नी, जोखू और
गंगी को लेकर शुरू होती है। जोखू और गंगी के अछूत होने के कारण ही पानी की
समस्या से वे जूझ रहे है। 'जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू
आयी।' “जोखू बोला- यह कैसा पानी है मारे बास के पिया नहीं जाता।” लम्बे समय
से बीमार जोखू प्यास के मारे तड़प रहा था। गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया
करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी तो उसमें
बदबू बिल्कुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया तो सचमुच बदबू
थी। ज़रूर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा।' गंगी के सामने पानी की
समस्या जैसे मुंह फाड़े खड़ी हो गई। वह अन्य गरीब सवर्ण महिलाओं जैसे सवर्णों के
कुएँ से पानी नहीं भर सकती थी। अछूतों को सवर्णों के कुएँ पर चढ़ने का अधिकार ही
नहीं था। मगर सवाल यह है कि 'दूसरा पानी आवे कहां से ? यह हमें नही भूलना चाहिए अछूतों की दयनीय आर्थिक दशा, उनकी निम्न सामाजिक प्रतिष्ठा और हर
रोज अस्पृश्यता के कारण अपमान जनक स्थितियों से गुजरने की पीड़ा की स्थिति को दर्शाता
हैं। पानी के स्रोत ऊँची जातियों के अधिकार में होने और अछूतों के
साथ अस्पृश्यता का व्यवहार बरता जाने के कारण अछूत, ठाकुर-राजपूत या साहू के
कुओं से पानी नहीं ले सकते। जोखू के शब्दों में अछूतों की वास्तविक स्थिति को
प्रेमचंद अभिव्यक्त करते है : 'ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट
भगायेंगे। ‘साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ भी कौन पानी भरने
देगा? और कोई कुआं गाँव में है नहीं।' जोखू के इस बयान से यह साफ पता चलता
है कि अछूतों की आर्थिक दशा ऐसी नहीं कि वे अपने लिए कुआं बना सके,
मजबूरन सवर्णों के आगे पानी के लिए गिडगिड़ाने के सिवाए उनके पास कोई अन्य
विकल्प नहीं है। पानी जो मानव जीवन की नितांत जरूरत है, जिसके लिए एक
इन्सान को बेबस होना पड़े, और मनुस्मृति के विधानों का पालन करने में सवर्ण
समाज आज भी लज्जा महसूस न करें, अमानवीय अत्याचार करके जाति अंहकार की तुष्टि
करें, यह शायद संपूर्ण संसार में धार्मिक कट्टरता का एक अकेला उदाहरण है।
गंगी इतना तो जानती थी कि खराब पानी पीने से बीमारी बढ़ जायेगी लेकिन
अशिक्षा के कारण यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी चली जाती है। गंगी. बोली 'यह· पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन सा जानवर मरा है।
दूसरे कुएँ से मैं
साफ पानी लाये देती हूँ।' जोखू बहुत आश्चर्य में पड़ गया, 'लेकिन दूसरा पानी कहां
से आएगा’ गंगी कहती है “दो दो कुएँ हैं, एक लोटा पानी न भरने देंगे।" जोखू ने कहा
'हाथ पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ जा चुपके से | ऐसा क्यों होगा?
क्योंकि 'ब्राह्मण देवता आशिर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे और साहुजी एक के पांच
करने में लगे रहेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है ? दर्द छोड़ें यहाँ तो मर भी जाए
तो द्वार पर कोई झांकने तक नहीं आएगा। कंधा देना तो बड़ी बात है। जोखू के इस
कथन में सदियों की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। वह यह तो नहीं समझ पा रहा कि ऊँची जातियों में आज
तक असंवेदनशील क्यों हैं, उनके दुख में शामिल अन्य
जातियाँ अछूतों के प्रति इस हद तक असंवेदनशील क्यों हैं, उनके दुख में शामिल
होने, उनकी गरीबी को हटाने या उनकी मृत्यु पर भी कोई क्यों नहीं साथ आता ?
अछूतों की एक गहन समस्या
'पानी' की है जिसकी ओर सबसे प्रथम ध्यान आकर्षित किया है।
स्वाधीनता के राजनीतिक एजेंडे पर छुआछूत की समस्या को प्रथम बार शामिल किया
गया था क्योंकि डॉ. अम्बेडकर का दलित मुक्ति आंदोलन तब तक जोर पकड़ चुका
था। स्वयं गांधीजी भी इस समस्या से अवगत हो चुके थे फिर भी डॉ. आंबेडकर पर
मानसिक और राजनीतिक दबाव डालकर पूना पैक्ट द्वारा, अछूतों को मिले पृथक
निर्वाचन अधिकार से वंचित कर दिया। अछूतों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले
गांधी जी ने अछूतों को ऊपर उठाने के डॉ. आंबेडकर के प्रयासों को जबरदस्त बाधा
पहुँचाई। बाद में अछूतों के साथ सहभोजन और आंतरजातीय विवाह को अस्पृश्यता
निवारण कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा बनाने वाले गांधीजी अछूतों के प्रति अपनी निर्ममता
और असंवेदनशीलता और ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर चुके थे, क्योंकि
जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के वे कट्टर समर्थक रहे हैं।
गांधीवादी विचारों का प्रभाव तत्कालीन लेखकों की रचनाओं पर पड़ना स्वाभाविक था,
क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए छेड़े गए देशव्यापी संघर्ष के गांधी जी नेता थे।
जातिप्रथा और ऊँच-नीच भेदभाव पर कमजोर सी प्रतिक्रिया गंगी के मार्फत
प्रेमचंद करते हैं, गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने
लगा - 'हम क्यों नीच हैं? और ये लोग क्यों ऊँचे है? गंगी का गुस्सा केवल शब्दों में
अभिव्यक्त होता है, यथार्थ में गंगी इनका मुकाबला नहीं कर पाती और अंततः ठाकुर
के कुएं से गंगी का संघर्ष किए बिना भागना सीधे-सीधे सवर्ण आधिपत्य के सामने
समर्पण दर्शाता है। क्योंकि 'ठाकुर का कुआँ' कहानी गंगी की ठाकुर के कुएँ से पानी
लेने की कोशिश करने की घटना के इर्द गिर्द ही घुमती है। “गंगी का विद्रोही दिल
रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा" प्रेमचंद का यह कथन जातिप्रथा
से उद्भूत छुआछूत की घिनौनी परंपरा के खिलाफ गंगी के मन में उठ रहे गुस्से को
दर्शाती है, इसलिए अगला प्रश्न भी गंगी के द्वारा उठाया गया है '
क्या ब्रिटिशकालीन शासन व्यवस्था भी ब्राह्मणवाद के सामने इतनी पंगु थी कि न्याय
के नाम पर वहाँ न्याय का मखौल उड़ाया जाता था ? अथवा सामंतवादियों द्वारा ब्रिटिश
शासन व्यवस्था के समर्थन के बदले उन्हें मिली हुई सुरक्षा थी। लेकिन गरीब, अछूत,
मजदूर और किसान पर तो पुलिस और ब्रिटिश शासन का मानो सदैव कहर टूट पड़ता
था। लगान न भरने पर खेत, घर बार निलाम हो जाते और अछूतों को बेगार न करने
पर जान तक गंवानी पडती जैसे “मंहगू को इतना मारा था कि महीनों खून थूकता
रहा।" और इसमें पुलिस बढ़चढकर पूंजीपति और साहुकारों, जमींदरों का साथ
थी। तब जुआघर चलाते पंडित, चोरी की गई भेड डकारने वाले ठाकुर और घी में तेल
की मिलावट करके बेचने वाले साहू को धोखाधड़ी अन्याय और अपराध करने पर भी,
सजा न होने की छूट कैसे मिलती रहीं है? इन सभी सवालों के जवाब हमें धर्म और
जातियों के कथित वर्चस्व के कारण सत्ताधारियों तथा न्याय व्यवस्था द्वारा अपनाई
दोगली नीतियों में मिलेंगे। भवरीबाई पर सवर्ण पुरुषों द्वारा किए गए बलात्कार की
घटना का निषेध अंतर्राष्ट्रीय मंच से सारे विश्व की महिलाओं ने एक साथ मिलकर
किया था। भवरीबाई की अस्मिता की सांझी लड़ाई देश के महिला आंदोलन ने लड़ी
थी। लेकिन राजस्थान की न्याय पालिका के एक पुरुष जज ने धर्म-जाति-वर्णवादी
और नारी विरोधी निर्णय देकर भंवरीबाई पर हुए अत्याचार के लिए न्याय के बदले
फिर अन्याय किया। यह अन्यायपूर्ण और जातिवादी निर्णय देते हुए कहा कि सवर्ण
पुरुष किसी दलित स्त्री पर बलात्कार नहीं कर सकते, यह धर्मसंगत नहीं है। इस
जाति अंहकार और पुरूष अहंकार से भरे जज के निर्णय ने देश की दलित महिलाओं
को फिर एक बार न्यायपालिका के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण न्याय से वंचित कर
दिया। यह इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे भारत में दलित महिला पर हुए जघन्य
अत्याचार के प्रति न्यायपालिका द्वारा दिया गया भेदभावपूर्ण निर्णय था।
अछूतों के प्रति शासनतंत्र, न्यायपालिका और पुलिस कितनी असंवेदनशील और
जातिवादी है प्रेमचंद की यह कहानी स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि में सामाजिक
आर्थिक, धार्मिक स्थिति की सच्चाई को हमारे समक्ष खोल देती है। गंगी सोचती हुई
कुएँ पर पहुँची, कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। तो गंगी की छाती धक-धक
करने लगी। 'कहीं कोई देख ले तो गज़ब हो जाये ।'
गंगी जानती है कि उसे किसी ने देख लिया तो उसका बचना मुश्किल है। एक घड़े
पानी की कीमत जान गंवाकर चुकानी पड़ सकती है। उस स्थिति की कोई सवर्ण
स्त्री क्या कल्पना कर सकती है? कि पानी जो जीवन की जरूरत है, उसके लिए
अछूतों को इस कदर बेबसी का सामना क्यों करना पड़े? गंगी अभी कुएँ के पास
तक भी नहीं पहुँची थी, पेड़ों की आड़ में छुपकर वह ठाकुर का आंगन खाली हो जाने
का इंतजार करने लगी। इसी समय दो स्त्रियां आकर पानी भरने लगी।' जो आपस में
अपना दुख भी बांट रही थी एक स्त्री ने दूसरी से कहा 'खाना खाने चले और हुक्म
हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं। हम लोगों को आराम से
बैठे देखकर जैसे- मरदों को जलन होती है। हां, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर
भर लाते। बस हुकुम चला दिया कि पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं। दूसरी
स्त्री ने पहली की व्यथा सुनकर, स्त्री की सामाजिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से कहा
और क्या हो तुम? रोटी कपड़ा नहीं पाती? दस-पांच रूपये
भी छीन झपटकर ले ही लेती हो और लौंडिया कैसी होती ' तथाकथित ऊँची जातियों मे
स्त्री अस्तित्व को नकारकर उसे केवल एक दासी अर्थात् गुलाम ही माना जाता है।
रोटी, कपडा और आश्रय देने भर से स्त्री को पुरूषों के अधीन मानने जैसी सामंतवादी
मान्यता हमारे समाज में आज भी मौजूद है। जो स्त्री शोषण को मान्यता देकर उसके
व्यक्तित्व को नकारती है।
'गंगी पेड़ की आड में छिपी हुई यह सब देख व सुन रही थी। दोनों पानी भरकर चली
गयीं तो गंगी पेड़ की आड़ से निकली और कुएँ के पास आयी, गंगी ने देखा सभी लोग चले गए
ठाकुर भी दरवाजा बंद करके अंदर आंगन में सोने चला गया था गंगी ने
क्षणीक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ ।' गंगी को इतनी
सावधानी की जरूरत इसलिए पड़ रही थी क्यों कि अछूत स्त्री ठाकुर या किसी सवर्ण
के कुएँ पर चढ़कर पानी भरने का साहस कर रही थी। किसी अछूत द्वारा नियम को
तोड़ने पर हिंदू धर्म में इस अपराध के लिए बड़ी सख्त सजा का प्रावधान है। मनु स्मृति
द्वारा निर्धारित जाति के कानून बड़े कठिन थे। गंगी की स्थिति उस राजकुमार से भी
बदतर थी जो 'अमृत चुरा लाने के लिए किसी जमाने में गया था, वह
भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बुझकर न गया होगा।' 'उसने रस्सी
का फंदा घड़े में डाला । दाएँ-बाएँ चौकन्नी दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को
शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो । मगर इस समय पकड़ी गयी तो फिर उसके लिए
माफी या रियायत की रत्ती भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने
कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
गंगी यह जानते हुए भी कि पकड़ी जाने पर उसे उसकी इस धृष्टता के लिए माफ
नहीं किया जायेगा बल्कि जातिप्रथा की परंपरा को तोड़ने जैसा अपराध करने और
परंपरागत हिंदू धर्म की रूढियाँ, सवर्णों की सत्ता, वर्चस्व और श्रेष्ठत्व, ब्राह्मणवाद
जैसी शक्तियों के खिलाफ जाने के का
रण कठोर से कठोर दंड दिया जा सकता था।
गंगी की पहल चाहे मजबूरी में ही क्यों न की गई है, लेकिन जातिव्यवस्था के
खिलाफ जाकर पानी लेने का साहस था।
घड़े को पानी में डालकर उसने बहुत ही आहिस्ते से
उसे ऊपर खींचा जिससे कोई आवाज न हो और ठाकुर या अन्य कोई घर
का सदस्य जाग न जाए। 'घड़े ने पानी में गोता लगाया। बहुत ही अहिस्ता से। जरा भी
आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी जल्दी मारे । घड़ा कुएँ के मुंह तक पहुंचा।
कोई बड़ा पहलवान भी इतनी तेजी से उसे खींच न सकता था।
एक घड़े पानी के लिए गंगी जिस मानसिक व जातिगत दबाव को झेल रही थी और
साथ ही पकड़े जाने पर उसके सामने आने वाली स्थिति से भी अवगत थी। इसलिए
वह रस्सी को तेजी से खीचती चली गई । लेकिन गंगी द्वारा ली गई सावधानी दिखाई गई तेजी और
दृढ़ संकल्प का नतीजा कुछ नहीं निकला। क्योंकि ज्यों ही 'गंगी झुकी कि घड़े को
पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया।' प्रेमचंद ने
लिखा है 'शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।' गंगी इस स्थिति से जूझने के
लिए तैयार नहीं थी। वह तो चोरी छीपे एक घड़ा पानी लेकर चुपचाप चले जाना
चाहती थी, इसीलिए उसने देर तक छीपकर सभी के चले जाने का इंतजार भी किया
था। अब तक बंधा धैर्य टूट गया और 'गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी। रस्सी के साथ
घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा। और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनायी
देती रही।'
गंगी में इतना साहस कहां से आता कि वह धर्म का रक्षक बनकर अपनी पूरी क्रूरता
के साथ जातिप्रथा और अस्पृश्यता को बनाए रखने के लिए खड़े ठाकुर का डटकर
मुकाबला करें। साथियों इस कहानी में इतना ही इस कहानी का दूसरा भाग हम जल्द ही लेकर आयेंगे आप सभी का वीडियो देखने के लिए धन्यवाद