Sunday, December 10, 2023

झुग्गी में रहने वाली आशा बनी डीएम

झुग्गी में रहने वाली आशा बनी डीएम 

दलित लड़की आशा की कहानी

 प्यारे साथियों नमस्कार साथियों 

कहा जाता है कि सफलता का एक ही मंत्र होता है और वो है कड़ी मेहनत। इसी मंत्र को अपना कर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली कमली urf आसार ने जिलाधिकारी बनकर सफलता की इबारत लिखी थी 

आज आशा के दफ्तर का पहला दिन था. आशा तैयार होकर चाय पी रही थी तभी एक लाल बत्ती वाली गाड़ी दनदनाती हुई कमली की झुग्गी के बाहर आकर रुकी. आशा, दफ्तर जाने के लिए झुग्गी से निकली तो देखती है कि सुर्जा बाहर दहलीज पर बैठा है. बहुत समय बाद बेटी को देखकर सुर्जे के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. बाप-बेटी एक दूसरे के गले लगकर ख़ूब रोए. सुर्जे ने आशा के सर पे हाथ रखा और कहा, “बेटियां तो अपना नसीब खुद लिखना जानें हैं, लोग बेकार में लड़कियों की चिंता करते हैं”. पी.ए. की आवाज़ से आशा का ध्यान टूटा’ “मैडम वी आर गेटिंग लेट”. आशा डब-डबाई आँखों से गाड़ी में बैठ गई और शीशा नीचे कर बाहर देखने लगी. “अपना नसीब तो बदल लिया कमली, अब इस बस्ती और समाज का नसीब बदलने की बारी है”.



आइए साथियों कहानी शुरू करते है 

सूरज रोज़ की तरह अपनी रोशनी से संसार को रोशन कर रहा है. दिन चढ़ते-चढ़ते सूरज की लालिमा की ठंडक, अब चुभन में बदलने लगी है. बस्ती के लोग रोज़ की तरह अपने दैनिक कामों में व्यस्त हो चले हैं. झुग्गियों की चिमनियों से धुआं निकल कर सूखे आसमान में बादल बना रहा है. ऐसा लगता है मानो यह धुआं सूरज को चुनौती दे रहा हो कि मैं तुम्हे ढक कर तुम्हारे ताप से बस्ती को मुक्ति दिलाऊंगा. धुंए के बादल क्षणिक ही सही, पर सूरज के ताप को कुछ देर तो अपने भीतर समा ही लेते हैं. जुम्मन चाचा रोज़ की तरह फटा कुर्ता-पायजामा पहन कर मजदूरी पर चल पड़ें हैं. मजदूरी कभी मिलती है, कभी ऐसे ही शाम को खाली हाथ लौटना पड़ता है. कांख में एक छोटी सी पोटली में चाची ने दोपहर के लिए रोटी-प्याज और गुड़ बांध दिया है. साग-सब्जी कहाँ मय्यसर है. कभी साल-दो-साल में ब्याह-शादी में, सब्ज़ी-पूड़ी-मिठाई नसीब होती है. यहाँ बस्ती में सबका हाल जुम्मन चाचा जैसा है. तन ढांपने के लिए चीथड़े हैं और खाने के लिए सूखी रोटी-प्याज और गुड़, पीने के पानी के नाम पर गटर का पानी है. सिर्फ नाम के लिए नल हैं क्योंकि उनमें पानी महीने-दो महीने में एक-आध बार आता है, वो भी वक्त-बेवक्त. बिजली के खंभे एक सरकार ने चुनावी साल में लगवा दिए थे, फिर पिछली सरकार ने चुनावी साल में बिजली के बल्ब और एक-एक पंखा, बस्ती के हर घर में पहुंचा दिया. पर इन बल्बों की रोशनी और पंखे की हवा का इस्तेमाल, कभी बस्ती के लोग ढंग से नहीं कर पाए. क्योंकि चुनावी साल में बिजली ने नेताजी के साथ जो दौरा किया, फिर उसके बाद उसके दर्शन भी, नेताजी की तरह कभी नहीं हो पाए. एक पुराना बिजली का खंभा जरुर था जो किसी बूढ़े स्वतंत्रता सेनानी की तरह आज़ाद भारत की यह दुर्दशा अपनी आँखों से देखता, पर आंसू न बहा सकता था. शाम होते ही इस खंभे पर बल्ब जल जाता और सूरज की पहली किरण के साथ ही, फिर बस्ती के लोगों की ज़िन्दगी में उजाला करने के लिए शाम की प्रतीक्षा करता. सरकारों ने इस बस्ती की ओर कभी ध्यान नहीं दिया. यह एक दलित बस्ती है जिसकी दुनिया, बाकी शहर से अलग थी. यहाँ आज़ादी के 70 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं का टोटा है. बस्ती की याद नेताओं को सिर्फ चुनाव में आती है जब बस्ती की हवा में उड़ने वाली वोटों की खुशबू, इन नेताओं को अपनी तरफ खींच लाती है. इन्हीं विचारों में खोई हुई कमली की तन्द्रा अचानक टूटी, उसने देखा कि माई चाय लेकर खड़ी है. ‘ले कमली चा पी ले, आज तेरी जिनगी का सबसे जरूरी दिन है. “पुचकार कर माँ ने, कमली के सर पर हाथ फेरा, ‘जल्दी से तैयार हो जा कमली, तुझे जाना भी तो है, वो लोग आते ही होंगे.’

ठीक है माई’ कमली ने कहा. चाय पीती हुई कमली अतीत की धुंध में खो गयी.

सुर्जे के यहाँ चौथी लड़की पैदा हुई तो घर में किसी को ज्यादा ख़ुशी नहीं हुई. बेटी पैदा होने की खबर सुनकर सुर्जे का दिल बैठ गया. उसे भविष्य की चिंता सताने लगी. अम्मा ने सुर्जे के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘सुर्जे, क़िस्मत फूटी हुई है तेरी तो, कैसी लुगाई लायो है, चौथी भी लड़की जनी है या ने. यो तो अच्छा हुआ कि पहलकी तीन को राम जी ने अपने पास बुला लिया. नहीं तो तू बेचारा कहाँ से करता इतनी लड़कियों का’. “ कोई बात ना अम्मा, लड़की तो ठीक है ना? अब आ गई है तो.....”-सुर्जे ने अनमने भाव से अम्मा से कहा. “का ठीक है...इसे भी राम जी उठा ही लेता तो ठीक था स्यापा निबटता. चल अब उठ”- अम्मा ने गुस्से में कहा. “इसके ब्याह के खर्चे के पर्चे मेरी आँखों के सामने नाच रहे हैं. कहाँ से लाऊंगा इसे ब्याहने का खर्च”- रुआंसा होकर सुर्जे ने अम्मा से कहा.


दादी ने नई मेहमान का नाम ‘कमली’ रखा क्योंकि नन्ही परी की आँखों में नटखटपन कुछ ज्यादा था. सुर्जा थक-हार कर काम से लौटता तो नन्ही आँखों की चमक और उसकी किलकारियाँ, सुर्जे की पूरे दिन की थकान हर लेती. परंतु अगले ही पल सुर्जे को, उसकी शादी का ख्याल आ जाता और वह नन्ही परी को बिस्तर पर पटक कर, बीड़ी के सहारे कमली के ऊपर भविष्य में होने वाले खर्चों को भूलने की कोशिश करता. नज़रें चुरा-चुरा कर कमली को देखता. कभी-कभी जब कमली और सुर्जे की नज़रें मिल जाती तो ऐसा लगता कि मानों पूछ रही हो – “बापू, मेरा क्या कसूर ?. मैं तो तेरी हूँ, तेरा अपना खून. गिला तो उस जमाने से कर, जो बिना दहेज छोरी को ब्याह कर नहीं ले जाता”. कमली को अपने सवालों का जवाब कभी नहीं मिला. बहुत कोशिश के बाद भी सुर्जे की बीवी की गोद फ़िर कभी हरी नहीं हो पाई. सुर्जा अब निराश रहने लगा. सुर्जा अब झुग्गी में भीतर न घुसता था. रात में रोटी खा कर झुग्गी के बाहर ही बीड़ी फूंकता रहता और बीड़ी फूंकते-फूंकते ही सो जाता. सुबह जल्दी उठकर मजदूरी ढूंढने के लिए निकल जाता. कमली और बापू की मुलाकात को काफ़ी लंबा समय हो गया. कमली बड़ी हुई, उसने कभी अपने बापू को देखा ही नहीं क्योंकि कब बापू आते, कब चले जाते, उसे पता ही न चलता. बाकी बच्चों को उनके बापू के साथ खेलते, कंधे पर घूमते देखकर, अपने बापू की शक्ल का अंदाज़ा लगाने की कोशिश करती.


कमली थोड़ी बड़ी हुई तो उसने देखा कि एक दिन अचानक, उसके साथ खेलने वाले बच्चे रवि, मोहन और सूरज ने उसके साथ खेलने आना बंद कर दिया. उनके घर जाने पर कमली को पता चला कि तीनों स्कूल जाने लगे हैं. अब वो कमली के साथ खेलने कभी न आएंगे. कमली ने घर आकर माँ की ओर सवाल उछाला, “माई, ये ईस्कूल का होवे है ?”, “ मोए का पता कमली, मैं तो कभी नहीं गई सकूल. कल कोई मास्टर साब आए थे, कहंवे थे- नुक्कड़ पे सकूल खुला है, बाल्कन को भेज दीजो”’ माँ ने जवाब दिया. बाल मन की अभिलाषा ने कमली को स्कूल की तरफ खींचा. कमली भागी-भागी नुक्कड़ पे पहुंची तो देखा कि दो कमरे बने हुए थे. कमरों के चारों ओर चबूतरा बना था. दोनों कमरों की दीवारें दूधिया रंग से रंगी हुई थी. स्कूल की दीवारों के बीचों-बीच, दो जगह चौकोर काले रंग की पट्टी बनी हुई थी. कमली चबूतरे पर चढ़कर चारों तरफ देखने लगी. खुली खिड़की से झाँका तो देखती है कि रवि, मोहन और सूरज, तीनों बढ़िया पोशाक पहन कर बैठे हुए थे. काले पुते हुए चौकोर पट्टी पर एक मोटे चश्मे वाला आदमी कुछ लिख रहा था और डंडा रखकर तीनों को कुछ बता रहा था. शायद यही मोटे चश्मे और सफ़ेद कुर्ते-पायज़ामे वाले ही मास्टर साब थे. जब तक कमली पर मास्टर साब की नजर नहीं गयी, कमली वहीं खड़ी रही और क्लास में खो गई . “ए लड़की, क्या देख रही हो खिड़की से इधर आओ”, मास्टर साब ने कड़क आवाज़ में कहा. कमली, मास्टर साब की कड़क आवाज़ से एकदम डर गई और चबूतरे से छलांग लगाकर भाग खड़ी हुई, पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपनी झुग्गी में जाकर ही साँस ली. झुग्गी में माई दोपहर का खाना बना रही थी. “ले खा ले, दिन भर भाग-दौड़, धमा-चौकड़ी. कुछ चूल्हे-चौके की अकल भी ले ले. कुछ सीख लेगी तो ससुराल में काम आवेगा”, माँ ने प्लेट में खाना डालते हुए कहा. खाना खा कर कमली सो गई. शाम को कमली सोकर उठी उसे बाहर वाले कमरे से कुछ आवाजें आ रही थीं. शायद कोई आया होगा. आँखें मलते हुए कमली ने दीवार के छेद से झाँका तो देखा कि मास्टर साब थे, माँ के साथ कुछ बात कर रहे थे. मास्टर साब लगातार कमली की माई को कुछ बताने की कोशिश कर रहे थे. गर्मागर्म बहस हो रही थी. पर किस बात पर ? कमली डर गई, कहीं उसकी शिकायत तो नहीं हो रही. कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगी. मास्टर साब, लगातार माई को, कमली को स्कूल भेजने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे, “कोई खर्च नहीं है. कॉपी, किताब, वर्दी सब सरकार की तरफ से मिलता है. बच्ची को सिर्फ स्कूल आना है और पढ़ना है”. कमली की माँ ने नकारात्मक मुद्रा में कहा, “ ए मास्साब के करेगी पढ़ कै, करना तो मेरी तरह चूल्हा-चौका ही है और लड़की की जात कहाँ अकेली जावेगी, कौन ध्यान रखेगौ. ना मास्साब, हमें ना भेजना सकूल-वकूल.” मास्टर साब भी ठानकर आए थे कि आज कमली की माँ को मनाकर ही उठेंगे. जिद पर अड़ गए, धरना दे दिया. कमली की माँ ने मुसीबत को टालने के लिए अनमने भाव से कह दिया, “ठीक है मास्साब, इसके बापू से पूछकर बता दूंगी, वो कहेंगे, फिर लिख लेना इसका भी नाम सकूल में.” रात को कमली की माँ ने सुर्जे का मन टटोला तो उसने दो-टूक कह दिया, “तेरी लड़की है, जो समझ में आए कर” और दूसरी तरफ मुँह करके सो गया.



अगले दिन से कमली, रवि, मोहन और सूरज चारों स्कूल जाने लगे. कमली ने गज़ब का तेज़ दिमाग पाया था. मास्टर साब के एक बार बताने पर ही कमली दिमाग में बिठा लेती. मास्टर साब की आंखों में उम्मीद की चमक बढ़ने लगी. कभी-कभी खुद पर गर्व भी महसूस होता क्योंकि उन्होंने बस्ती के कीचड़ से हीरा खोज निकाला था. मास्टर साब को कमली की मोटी-मोटी आँखों में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा दिखाई देने लगा. मास्टर साब की उम्मीद की पतंग बिना डोर के ही आसमान में उड़ चली. कमली का नाम, स्कूल के रजिस्टर में बदलकर ‘आशा’ कर दिया गया. परंतु हीरा जितना खूबसूरत होता है, उसकी खूबसूरती देखकर जलने वाले भी उतने ही ज्यादा होते हैं. कमली एक दिन रोती हुई स्कूल पहुंची. आंखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, आँखों से आंसुओं की झड़ी सी लगी थी. आँखों का गीलापन, गालों से होते हुए, पूरे चेहरे को भिगा रहा था. स्कूल का बस्ता और किताबें फट गई थीं. यह देखकर मास्टर साब का दिल दहल गया. दिमाग में हजारों सवाल, अनहोनी की आशंका, कुछ अप्रिय की आशंका से मास्टर साब का दिल बैठा जा रहा था. कमली के आँसू थे कि रुकने का नाम ही न लेते थे और मास्टर साब बार-बार पूछ रहे थे, “क्या हुआ आशा ? कुछ बोल, कुछ तो बोल मेरी बच्ची”. थोड़ा शांत होने पर कमली ने बताया, “बस्ती के बाहर दुकान चलाने वाले सूदखोर महाजन के लड़के और उसके दोस्तों ने....” कमली फिर रोने लगी, “उसके दोस्तों ने क्या मेरी बच्ची ?” “उन्होंने मेरे साथ धक्का-मुक्की की और मेरा बस्ता और किताबें फाड़ दी. मज़ाक भी उड़ाया. कहते थे ‘नीच जात कब से पढने लगी, उस पर भी नीच जात की लड़की’ वाह-भई-वाह, लगता है जमाना सच में बदल रहा है”. मास्टर साब ने चैन की साँस ली और कमली के सर पर हाथ फेरा, “मेरी बच्ची, मैंने तुम्हारा नाम ‘आशा’ इसलिए रखा है क्योंकि तुम उम्मीद की वो किरण हो जो समाज में सबसे दलित ‘स्त्री’ को कैद करने वाली चारदीवारी तोड़कर, स्त्री-मुक्ति की मिसाल बनोगी. औरत को नीच समझे जाने वाले नीचता के तिलिस्म को एक दिन तोड़ोगी. तुम इस समाज के लिए नई मिसाल बनकर उभरोगी और अगर तुम सशक्त बनोगी तभी इस गंदी बस्ती के लोगों के जीवन में कुछ बदलाव ला पाओगी. तुम बदलाव, संघर्ष और नई रोशनी की आशा हो. ये सब घटनाएँ तुम्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी. जैसे बाबा साहब ने अपने संघर्ष का लोहा पूरी दुनिया को मनवाया, तुम भी एक दिन उन्हीं की तरह अपनी बस्ती के लोगों के लिए संघर्ष करोगी, उनके जीवन में बदलाव लाओगी और अपने माँ-बाप का नाम रोशन करोगी. चलो अब पढ़ाई में जुट जाओ. मैं कल तुम्हें नया बस्ता, कॉपी और किताबें ला दूंगा. चल मेरी बच्ची”.


इसके बाद फिर कमली ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. फिर तो क्या दिन, क्या रात. कमली नुक्कड़ पर लगे खंभे की रोशनी में देर रात तक पढ़ती रहती. कब सुबह से शाम, शाम से रात और फिर अगले दिन का सूरज निकल आता, कमली को पता ही न चलता. समय पंख लगाकर उड़ता गया और कमली ने अपनी पढाई पूरी कर ली. अपनी पढ़ाई के बीच आने वाली सभी मुसीबतों का बड़ी ही बहादुरी के साथ, डटकर मुकाबला किया. कमली ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा, प्रथम प्रयास में ही अच्छे अंकों के साथ पास कर ली और जिलाधिकारी के रूप में कमली को इसी ज़िले में नियुक्ति मिल गई.


आज आशा के दफ्तर का पहला दिन था. आशा तैयार होकर चाय पी रही थी तभी एक लाल बत्ती वाली गाड़ी दनदनाती हुई कमली की झुग्गी के बाहर आकर रुकी. आशा, दफ्तर जाने के लिए झुग्गी से निकली तो देखती है कि सुर्जा बाहर दहलीज पर बैठा है. बहुत समय बाद बेटी को देखकर सुर्जे के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. बाप-बेटी एक दूसरे के गले लगकर ख़ूब रोए. सुर्जे ने आशा के सर पे हाथ रखा और कहा, “बेटियां तो अपना नसीब खुद लिखना जानें हैं, लोग बेकार में लड़कियों की चिंता करते हैं”. पी.ए. की आवाज़ से आशा का ध्यान टूटा’ “मैडम वी आर गेटिंग लेट”. आशा डब-डबाई आँखों से गाड़ी में बैठ गई और शीशा नीचे कर बाहर देखने लगी. “अपना नसीब तो बदल लिया कमली, अब इस बस्ती और समाज का नसीब बदलने की बारी है”.


Saturday, December 9, 2023

दलित लड़की की कहानी inter caste marriage syory

दलित लड़की और जाट लड़के की कहानी  

inter caste marriage syory

Inter caste love marriage story 

नमस्कार साथियों साथियों आज की यह कहानी बड़ी ही मार्मिक हृदयस्पर्शी है इस कहानी ने जाति के संरक्षकों को चुप करा दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया   यह कहानी एक दिल छू लेने वाली कहानी है जो प्यार की मूक शक्ति के बारे में हर कहावत की गवाही देती है।  क्षेत्र के युवा भली-भांति समझते हैं कि अंतरजातीय विवाह उन्हें गंभीर संकट में डाल सकता है, फिर भी एक गांव के एक जाट युवक और एक छोटे शहर में रहने वाली एक दलित लड़की में प्यार हो गया। उनमें दुर्लभ अनुकूलता और आराम का स्तर था। वे चुपचाप अपने विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान करते थे। चुपचाप प्यार पनप गया. कुछ ही समय में, दोनों को यह स्पष्ट हो गया कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और उनके रिश्ते को शादी तक पहुंचना चाहिए  अपनी मातृभूमि में अस्थिर जातिय समीकरण को देखते हुए, यह कहना जितना आसान था, करना उतना आसान नहीं था। क्योंकि, एक जाट का दलित से शादी करना अराजकता को निमंत्रण देने के समान है। सबसे पहले, परिवार सहमत नहीं होंगे. दूसरे, अगर परिवारों को किसी तरह से मना भी लिया जाए, तो नापसंद समुदाय से कैसे निपटा जाए?  सौभाग्य से सुशील जाट और दलित लड़की नीलम रानी के मामले में समाज ने अपनी नाक नहीं उठाई। जैसा कि आज तक होता आया  है, ये दोनों सुनने और बोलने में अक्षम हैं यानि दोनो ही दिव्यांग है ।  यहां वे समान विकलांगता वाले एक अलग तरह से सक्षम जोड़े थे, जो एक-दूसरे के साथ उस तरह से संबंध बनाने और सहानुभूति रखने में सक्षम थे, जिस तरह से वे शायद किसी और के साथ नहीं कर सकते थे। ऐसे दो लोगों के लिए एक-दूसरे में सांत्वना पाना दुर्लभ और सुखद है, जिससे जाति के स्व-नियुक्त संरक्षक दूर रह गए। इस 2 जुलाई को, युवा जोड़े ने अपने परिवार के आशीर्वाद से एक मंदिर में एक सादे और गंभीर समारोह में शादी कर ली। 23 साल के सुशील ने 10+2 तक पढ़ाई की है और वह भिवानी जिले के गारनपुर गांव में रहते हैं। 21 साल की नीलम ने स्कूल छोड़ दिया है और वह सुशील के गांव से बमुश्किल 30 किलोमीटर दूर भिवानी शहर में रहती थी। समय-समय पर, सुशील के माता-पिता उसकी शादी का मुद्दा सांकेतिक भाषा में उठाते थे जिसके वे आदी हो चुके थे और सुशील अपने खुले हाथों को आसमान की ओर उठा देता था, अनिवार्य रूप से इसे भगवान पर छोड़ देता था। अब, जैसा कि प्रतीत होता है, नीलम बिल्कुल वैसा ही करती थी जब उसकी माँ इस विषय पर बात करती थी: तो वो भी हाथ आसमान की ओर कर दिया करती थी  फरवरी महीने में हिसार में सुनने और बोलने में अक्षम लोगों की एक बैठक में दोनों की पहली मुलाकात हुई थी। रेडक्रॉस सोसायटी और हिसार प्रशासन हर महीने दिव्यांगों को कौशल प्रदान करने के लिए इन बैठकों का आयोजन करता है। दोनों लंबे समय से संगठन से जुड़े हुए हैं, लेकिन फरवरी में पहली बार ये स्टार-क्रॉस प्रेमी एक-दूसरे से मिले। उन्होंने इसे तुरंत शुरू कर दिया और लगभग 20 मिनट तक सांकेतिक भाषा में एक-दूसरे से बात की।   घर लौटने पर, सुशील ने नीलम को फेसबुक पर पाया और उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। दोनों हिंदी और हरियाणवी में बातचीत करते हुए बातचीत करने लगे। यह एक महीने तक जारी रहा क्योंकि उनका बंधन बढ़ता रहा।   सुशील ने उसे बाइक, यात्रा और घर के बने खाने के प्रति अपने प्यार के बारे में बताया। नीलम ने कहा कि वह एक घरेलू लड़की है और लोगों के साथ घुलने-मिलने में उन्हें समय लगता है। उसने उसे बताया कि उसे अपनी माँ से इतना प्यार और देखभाल मिला कि उसके पिता की जल्दी मृत्यु के बावजूद, उसका बचपन सुखद अकेलेपन में बीता। उनकी बोलने और सुनने की क्षमता में कमी के बारे में सुशील ने उन्हें बताया कि जब वह आठ महीने का था, तो उसे राजस्थान में उसकी दादी के घर ले जाया गया, जहां तेज बुखार के कारण उसकी सुनने और बोलने की क्षमता दोनों चली गई। नीलम की कहानी छोटी थी; वह इन विकलांगताओं के साथ पैदा हुई थी। एक दिन, नीलम ने उसे एक संदेश भेजा। उसने सुशील से किसी विशेष बात के लिए अग्रोहा मंदिर में आकर मिलने को कहा। तब तक प्यार में पागल सुशील मुलाकात के लिए तेजी से पहुंचने से अपने पैरों को रोक नहीं सका। नीलम अकेली नहीं थी. उनकी माँ भी वहाँ थीं, जिनसे सुशील का परिचय "मेरे जीवन साथी" के रूप में कराया गया।  तीनों के बीच बातचीत शुरू हो गई क्योंकि नीलम की मां चन्नो देवी नीलम और सुशील की तरह ही सांकेतिक भाषा सीख सकती थीं। चन्नो ने नीलम की पसंद के जीवनसाथी को मंजूरी दे दी, लेकिन जब उसे बताया गया कि सुशील जाट है तो वह चुप हो गई। हरियाणा में जाति की सीमाओं को लांघना बड़ा ही मुस्किल  काम है।  उस शाम जब सुशील घर लौटा, तो उसके पिता दलबीर महला, जो एक पूर्व सैनिक थे, ने पूछा कि वह कान से कान तक क्यों मुस्कुरा रहा है  उस रात बाद में, प्रेमी युवक ने यह राज़ अपनी माँ को बता दिया। उस दिन को याद करते हुए दलबीर ने कहा कि उनके बेटे ने अपनी मां से कहा था कि उसे अपना जीवनसाथी मिल गया है और वह उसी लड़की से शादी करेगा।  महला ने तुरंत लड़की के बारे में पूछताछ की और उसकी जाति जानने के बाद वे दंग रह गए। दलबीर ने कहा, "हम सुशील के लिए अपनी जाति में लड़की ढूंढ रहे थे लेकिन वह हर लड़की को अस्वीकार कर देता था। वह उसी विकलांगता वाली लड़की से शादी करना चाहता था।"  इस बीच चन्नो देवी अपना काम कर रही थीं. उसने अपने जीजा सतबीर जांगड़ा को फोन किया और सारी बात बताई। बहुत सोचने के बाद, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जाति आम लोगों के लिए एक मुद्दा हो सकती है, लेकिन समाज को नीलम और सुशील के प्रति दयालु होना चाहिए।  “वे दोनों पहले से ही अपनी कमज़ोरियों के कारण बहुत कष्ट झेल रहे हैं। उनके परिवारों को सुखी वैवाहिक जीवन जीने के उनके अधिकार से इनकार करके उनके प्रति क्रूर नहीं होना चाहिए, ”उन्होंने चन्नो देवी से कहा।  सुशील के घर पर भी उनके परिवार ने अंतिम फैसला लेने के लिए बैठक की. सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं. वैसे भी, परिवार की एक महिला सदस्य पहले से ही घबराई हुई थी। “पड़ोसी क्या कहेंगे!” उसने पूछा।  “बैठक तीन घंटे से अधिक समय तक चली। परिवार के सभी सदस्यों ने अपनी-अपनी बात कही। वे गठबंधन के लिए सहमत हो गए लेकिन संशय में रहे, ”दलबीर ने कहा। “यह मेरा निर्णय था। मैं फौजी हूं. सेना में सभी को एक आँख से देखने की ट्रेनिंग दी जाती है। यह मेरे खून में है. मैं अपने ही बेटे के साथ अन्याय कैसे कर सकता हूँ!”   दलबीर ने नीलम की मां को फोन किया। उनकी मुलाकात सुशील के घर पर हुई. सुशील के परिवार ने चन्नो देवी को आश्वासन दिया कि नीलम को सुशील के घर में वही प्यार, देखभाल और सम्मान मिलेगा जो उसे अपने घर में मिलता है। युवा प्रेमी जोड़े सिवानी मंदिर में सादे समारोह में शादी के बंधन में बंध गए। न दहेज, न दिखावा.   नीलम रानी को अपने मायके में घूंघट उठाने की आजादी दे दी गई है। “दुनिया के लिए वह हमारी बहू होगी लेकिन हमारे लिए वह हमारी बेटी है,” उसकी सास ने कहा।  जैसा कि परिवारों को उम्मीद थी, अंतरजातीय विवाह के लिए उन्हें समाज से किसी भी तरह की शत्रुता का सामना नहीं करना पड़ा। इसके बजाय, लोग साहसिक कदम उठाने और प्रतिगामी प्रथाओं पर अपने बच्चों की खुशी को प्राथमिकता देने के लिए उनकी सराहना करते हैं।   अब, सुशील ने एक प्रोविजनल स्टोर शुरू किया है और नीलम उसे इसे चलाने में मदद करती है। इस असाधारण जोड़े के लिए, उनकी शादी वास्तव में उनके "हमेशा खुश रहने" की शुरुआत थी।  दिव्यांग होने के कारण कई मोर्चों पर समझौता करने के बाद, यह जोड़ी इस बात से सहमत है कि जीवन उनके लिए तब दयालु था जब यह सबसे अधिक मायने रखता था। एक सांकेतिक भाषा दुभाषिया के माध्यम से, सुशील ने व्यक्त किया कि वह नीलम को पाकर कितना आभारी है, उसका चमकता हुआ चेहरा सांकेतिक भाषा की तुलना में उसकी भावनाओं को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकता है।   उन्होंने बताया कि कैसे मैचमेकर शारीरिक या दृष्टिबाधित लड़कियों के प्रस्ताव लेकर उनके पिता के पास आते थे, जबकि वह स्पष्ट थे कि वह किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करना चाहते हैं जो उनकी स्थिति को साझा करता हो। उन्हें एक ऐसे जीवनसाथी की ज़रूरत थी जो उनकी पीड़ा और सीमाओं को समझ सके। उन्होंने कहा कि जब वह नीलम से मिले तो उन्हें वह सब कुछ मिला जिसकी उन्हें उम्मीद थी।  बेशक, भावनाएँ परस्पर हैं। नीलम ने कहा, "जब मैंने उसे हिसार रेड क्रॉस सेंटर में देखा, तो यह पहली नजर का प्यार जैसा था। जब उसने मुझे फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी तो यह एक सपने के सच होने जैसा था।"  प्रभावित होते हुए, उसने खुलासा किया कि पहले वह सुशील के साथ संबंध बनाने के बारे में अनिश्चित थी क्योंकि "वह किसी भी लड़की को प्रभावित करने के लिए काफी स्मार्ट और सुंदर दिखता था।"  उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि किस्मत को उनके लिए ऐसा जीवन साथी मिलेगा। चमकती दुल्हन ने कहा कि उसकी माँ उससे अधिक खुश है, क्योंकि वह हमेशा उसके भविष्य और उसकी शादी के बारे में चिंतित रहती है।  युवा जोड़े ने स्वीकार किया कि यह कितना चमत्कार है कि उनका रिश्ता जाति की सख्त संरक्षित सीमाओं को पार कर विवाह में तब्दील हो सका। सुशील ने कहा कि उन्होंने अपने गांव या आस-पास के किसी भी स्थान पर ऐसा कोई जोड़ा नहीं देखा है जहां प्यार में पागल दो लोगों को इतनी आसानी से माता-पिता की अनुमति से शादी करने की अनुमति दी गई हो।  "मैं कभी-कभी भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि उन्होंने मुझे विकलांग बना दिया, वरना शायद हमारे रिश्ते को समाज स्वीकार नहीं करता।" साथियों इस कहानी में इतना ही यदि आपको कहानी अच्छी लगी हो तो इसे शेयर करना मत भूलना लाइक कमेंट भी जरूर करें और साथ में चैनल को subscribe जरूर कर ले आपका बहुत बहुत धन्यवाद नमस्कार दोस्तो

Wednesday, December 6, 2023

Ambedkar biography in hindi

 Ambedkar biography in hindi

6 दिसंबर 1956. इस दिन बाबा साहेब अंबेडकर का निधन हो गया था. भारत के शोषितों और कमज़ोर तबक़ों के संरक्षक डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का जाना उनके लिए बहुत बड़ा झटका था.


अपना अस्तित्व बचाने और पढ़ाई के लिए डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का संघर्ष, दलितों के उत्थान के लिए उनके प्रयास और आज़ाद भारत के संविधान के निर्माण में उनका योगदान बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है.


उनके लिए ये सफ़र बहुत मुश्किल रहा था. इस पूरे सफ़र के दौरान, बाबासाहेब कई बीमारियों से जूझते रहे थे. वो डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर, न्यूराइटिस और आर्थराइटिस जैसी लाइलाज़ बीमारियों से पीड़ित थे.


डाइबिटीज़ के चलते उनका शरीर बेहद कमज़ोर हो गया था. गठिया की बीमारी के चलते वो कई कई रातों तक बिस्तर पर दर्द से परेशान रहते थे.


जब हम बाबासाहेब आंबेडकर की ज़िंदगी के आख़िरी कुछ घंटों के बारे में बात करते हैं तो पता चलता है कि उनकी सेहत किस क़दर बिगड़ी हुई थी. 

बाबासाहेब ने 6 दिसंबर 1956 को सुबह के वक़्त सोते हुए आख़िरी सांस ली थी. इस लेख में हम, इस बात का पता लगाने की कोशिश करेंगे कि उससे एक दिन पहले यानी पांच दिसंबर 1956 को क्या हुआ था.


उसस पहले हम उस आख़िरी सार्वजनिक कार्यक्रम के बारे में समझने की कोशिश करेंगे, जिसमें अपनी मौत से पहले बाबासाहेब ने शिरकत की थी.

डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का आख़िरी सार्वजनिक कार्यक्रम राज्यसभा की कार्यवाही में शिरकत करने का था. नवंबर के आख़िरी तीन हफ़्तों के दौरान बाबासाहेब दिल्ली से बाहर थे. 12 नवंबर को वो पटना होते हुए काठमांडू के लिए रवाना हुए थे. 14 नवंबर को काठमांडू में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ था.


इस सम्मेलन का उद्घाटन नेपाल के राजा महेंद्र ने किया था. नेपाल के राजा ने बाबासाहेब से मंच पर अपने पास बैठने को कहा था. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. इसी से बौद्ध धर्म में बाबासाहेब के कद का अंदाज़ा हो जाता है. काठमांडू में अलग-अलग जगहों पर तमाम लोगों से मिलने के बाद बाबासाहेब बहुत थक गए थे.


भीमराव आंबेडकर की पत्नी सविता आंबेडकर जिन्हें माईसाहेब आंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी जीवनी 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' में इस बारे में विस्तार से लिखा है.


माईसाहेब के अनुसार, "भारत लौटते वक़्त बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म के तीर्थस्थलों का दौरा किया. वो नेपाल में महात्मा बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी गए. उन्होंने पटना में अशोक की मशहूर लाट भी देखी और बोध गया का दौरा भी किया. इस लंबे और थकाऊ दौरे के बाद, जब बाबासाहेब 30 नवंबर को दिल्ली लौटे तो वो सफ़र की थकान से निढाल हो रहे थे.


दिल्ली में संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका था. हालांकि, अपनी ख़राब सेहत के कारण बाबासाहेब इस सत्र में हिस्सा नहीं ले पा रहे थे. इसके बाद भी 4 दिसंबर को बाबासाहेब ने राज्यसभा की कार्यवाही में शामिल होने की ज़िद की. बाबासाहेब के साथ डॉक्टर मालवंकर भी थे.


उन्होंने बाबासाहेब की सेहत जांची और कहा कि अगर बाबासाहेब, संसद की कार्यवाही में शामिल होने चाहते हैं, तो उन्हें कोई एतराज़ नहीं. 4 दिसंबर को बाबासाहेब संसद गए. राज्यसभा की कार्यवाही में हिस्सा लिया और दोपहर बाद लौट आए. लंच के बाद वो सो गए. ये बाबासाहेब का संसद का आख़िरी दौरा था.

मुंबई में धर्म परिवर्तन समारोह की योजना बनाना

माईसाहेब आंबेडकर ने अपनी जीवनी में लिखा है ,'' राज्यसभा से लौटकर बाबासाहेब ने कुछ देर आराम किया. दोपहर बाद सविता आंबेडकर (माई साहेब) ने उन्हें जगाया और कॉफी पिलाई.


26, अलीपुर रोड के बंगले के लॉन में बैठकर बाबासाहेब और माईसाहेब ने कुछ बातें कीं. उसी वक़्त नानकचंद रत्तू आ वहां आ गए.


16 दिसंबर 1956 को मुंबई (उस वक़्त बंबई) में धर्म परिवर्तन के एक समारोह का आयोजन होना था. मुंबई के नेता चाहते थे कि बाबासाहेब मुंबई में भी नागपुर जैसा ही धर्म परिवर्तन कार्यक्रम आयोजित करें. इस कार्यक्रम में बाबासाहेब और माईसाहेब, दोनों को शामिल होना था.

नानकचंद रत्तू कौन थे?

नानकचंद रत्तू, पंजाब के होशियारपुर ज़िले के रहने वाले थे. वो काम की तलाश में दिल्ली आए थे और यहां वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर से मिले. बाद में वो हमेशा बाबासाहेब के साये की तरह उनके साथ रहे.


1940 में नानकचंद ने बाबासाहेब के सचिव के तौर पर काम करना शुरू किया. बाबासाहेब की ज़िंदगी के आख़िरी दिन यानी 6 दिसंबर 1956 तक नानकचंद उनके सचिव रहे थे. नानकचंद ने बाबासाहेब के लेखों को टाइप करने में भी मदद की थी. बाद में नानकचंद ने बाबासाहेब की याद में दो किताबें भी लिखी थीं.


नानकचंद रत्तू का जन्म 6 फरवरी 1922 को हुआ था. 5 सितंबर 2002 को अस्सी बरस की उम्र में उनका निधन हो गया था.


बाबासाहेब ने रत्तू से 14 दिसंबर को मुंबई जाने के टिकट के बारे में पूछा, ताकि वो मुंबई में होने वाले धर्म परिवर्तन के समारोह में शामिल हो सकें.


माईसाहेब की 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' जीवनी के अनुसार, बाबासाहेब की ख़राब सेहत को देखते हुए, उन्हें हवाई जहाज़ से मुंबई जाने की सलाह दी गई. उसके बाद बाबासाहेब ने नानकचंद रत्तू से कहा कि वो विमान से उनके मुंबई जाने की व्यवस्था करें.


"उसके बाद बाबासाहेब, काफ़ी देर तक नानकचंद रत्तू को बोलकर कुछ लिखवाते रहे. बाद में रात के क़रीब साढ़े ग्यारह बजे बाबासाहेब सोने चले गए और चूंकि रात बहुत हो चुकी थी, तो नानकचंद रत्तू भी उनके बंगले में ही सो गए."



बाबासाहेब की ज़िंदगी के आख़िरी 24 घंटे

माईसाहेब आखिरी वक्त तक बाबासाहेब के साथ ही थीं. उन्होंने अपनी जीवनी में उनके इस आखिरी वक्त के बारे बहुत ही विस्तार से लिखा है.


निधन से एक दिन पहले यानी 5 दिसंबर को बाबासाहेब सुबह 8.30 बजे सोकर उठ गए थे. माईसाहब चाय की ट्रे लेकर उनके कमरे में गईं और उन्हें जगाया. दोनों ने साथ ही चाय पी. इसी बीच नानकचंद रत्तू जो दफ़्तर जाने वाले थे, उनके पास आए. नानकचंद ने भी चाय पी और वो चले गए.


माईसाहेब ने बाबासाहेब को सुबह के रोज़मर्रा के काम निपटाने में मदद की. उसके बाद वो उन्हें नाश्ते की टेबल पर ले आईं. उसके बाद तीनों लोगों यानी, बाबासाहेब, माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर ने साथ में नाश्ता किया और बंगले के बरामदे में बैठकर कुछ बातें कीं.


बाबासाहेब ने अख़बार पढ़े. उसके बाद माईसाहब ने उन्हें दवाएं और इंजेक्शन दिए और फिर काम निपटाने रसोई में चली गईं. बाबासाहेब और डॉक्टर मालवनकर बरामदे में बैठकर बातें करते रहे.

डॉक्टर मालवनकर कौन थे?

डॉक्टर माधव मालवनकर, मुंबई के एक मशहूर डॉक्टर थे. उनका क्लीनिक गिरगांव में था. वो फ़िज़ियोथेरेपी के माहिर डॉक्टर थे. डॉक्टर मालवनकर पूरी मुंबई में एक प्रतिष्ठित और विशेषज्ञ फ़िज़ियोथेरेपिस्ट के तौर पर मशहूर थे. वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के डॉक्टर और दोस्त थे.


अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद माईसाहेब, डॉक्टर मालवनकर की सहायक और जूनियर डॉक्टर बन गई थीं. वहीं उनकी मुलाक़ात बाबासाहेब से हुई थी. पांच दिसंबर 1956 के दिन क़रीब साढ़े बारह बजे माईसाहेब ने बाबासाहेब को लंच करने के लिए बुलाया. उस वक़्त बाबासाहेब लाइब्रेरी में बैठकर पढ़-लिख रहे थे. वो उस वक़्त अपनी किताब 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना लिख रहे थे.


माईसाहेब के अनुसार, बाबासाहेब को दोपहर का खाना खिलाया गया. खाना खाने के बाद बाबासाहेब सोने चले गए.


दिल्ली में माईसाहेब अपने घर की ख़रीदारी ख़ुद करती थीं. बाबासाहेब के सोने के बाद वो खाने-पीने का सामान और किताबें लाने बाज़ार चली गईं. माईसाहेब ख़रीदारी करने के लिए उसी समय जाती थीं, जब बाबासाहेब या तो संसद चले जाते थे या फिर सो रहे होते थे.


पांच दिसंबर को भी जब बाबासाहेब लंच लेकर सोने चले गए, तो माईसाहेब ख़रीदारी के लिए बाज़ार चली गईं. डॉक्टर मालवनकर, पांच दिसंबर की रात को ही विमान से मुंबई जा रहे थे. वो भी मुंबई जाने से पहले अपने लिए कुछ सामान ख़रीदना चाह रहे थे. तो डॉक्टर मालवनकर भी माईसाहेब के साथ ख़रीदारी के लिए बाज़ार चले गए.


चूंकि बाबासाहेब सो रहे थे, तो वो बिना बताए ही बाज़ार चले गए, जिससे उनकी नींद में ख़लल न पड़े. माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर, दोपहर को क़रीब ढाई बजे बाज़ार गए थे और वो दोनों शाम लगभग साढ़े पांच बजे बाज़ार से घर लौटे. उस वक़्त बाबासाहेब बेहद ग़ुस्से में थे.

बाबासाहेब का गुस्सा

माईसाहेब ने इस बात का ज़िक्र अपनी किताब, 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' में किया है. उन्होंने लिखा है, "बाबासाहेब का ग़ुस्सा होना कोई नई बात नहीं थी. अगर उनकी कोई किताब अपनी जगह पर नहीं मिलती थी, या क़लम कहीं और होता था, तो बाबासाहेब ग़ुस्से से भड़क उठते थे. अगर उनकी इच्छा के बग़ैर कोई छोटा सा काम भी हुआ, या उम्मीद के मुताबिक़ न हआ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता था."


इसमें आगे लिखा गया है, "बाबासाहेब का ग़ुस्सा तूफ़ान की तरह था. लेकिन, वो बस वक़्ती तौर पर नाराज़ होते थे. जो किताब, नोटबुक या काग़ज़ वो तलाश रहे होते थे, वो मिल जाता था, तो अगले ही पल उनकी नाराज़गी काफ़ूर हो जाती थी."


बाज़ार से लौटकर माईसाहेब सीधे बाबासाहेब के कमरे में गईं. बाबासाहेब ने कहा कि वो इंतज़ार कर रहे थे. उनका ग़ुस्सा शांत करने के बाद माईसाहेब, बाबासाहेब के लिए कॉफी बनाने सीधे रसोई में चली गईं.


रात आठ बजे जैन पुजारियों का एक प्रतिनिधिमंडल और उनके प्रतिनिधियों को बाबासाहेब से मिलने आना था. बंगले के लिविंग रूम में बाबासाहेब और उस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के बीच बौद्ध और जैन धर्म को लेकर बातचीत हुई.


डॉक्टर आंबेडकर के साथी रहे चांगदेव खैरमोडे ने उन पर 12 खंडों में किताब लिखी. किताब के 12वें भाग में उन्होंने इस घटना के बारें में लिखा है, उस प्रतिनिधिमंडल ने ये इच्छा जताई कि बाबासाहेब को 6 दिसंबर को होने वाले जैन सम्मेलन में आना चाहिए.


प्रतिनिधिमंडल ने अपील की कि बाबासाहेब वहां आकर जैन धर्म के भिक्षुओं के साथ बहस मुबाहिसा करें, ताकि जैन और बौद्ध धर्म के बीच एकता क़ायम हो सके.

जंगल की आग की तरह फैली निधन की खबर

बाबासाहेब के निधन की ख़बर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. उनके देहांत की ख़बर सुनकर देश भर में उनके समर्थकों सदमे में आ गए.


हज़ारों लोग एक साथ दिल्ली के 26 अलीपुर रोड बंगले की ओर रवाना हो गए. चंगदेव खैरमोड़े अपनी आत्मकथा में लिखते हैं 'माईसाहेब ज़िद कर रही थीं कि बाबासाहेब का अंतिम संस्कार सारनाथ में किया जाए.' हालांकि, अपनी आत्मकथा में माईसाहेब ने लिखा है कि 'उन्होंने बाबासाहेब का अंतिम संस्कार मुंबई में करने के लिए कहा था.'


लेकिन, बाद में यही तय हुआ कि बाबासाहेब का अंतिम संस्कार मुंबई में किया जाए. इसके बाद 26 अलीपुर रोड के बंगले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और केंद्र सरकार के और मंत्री, संसद के दोनों सदनों के सांसद और बाबासाहेब के अनुयायी जमा होने लगे.


बाबासाहेब के पार्थिव शरीर को मुंबई ले जाने के लिए जगजीवन राम ने एक विमान की व्यवस्था की और उसके बाद बाबासाहेब का पार्थिव शरीर नागपुर होते हुए मुंबई ले जाया गया. फिर मुंबई, बाबासाहेब के अभूतपूर्व अंतिम संस्कार की गवाह बनी.


बुद्धम शरणम् गच्छामि' का पाठ

जब बाबासाहेब जैन धर्म के नुमाइंदों के साथ बातचीत में मशगूल थे, तो डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो गए. जैसा कि माईसाहेब ने अपनी किताब में लिखा है कि डॉक्टर मालवनकर ने मुंबई जाने के लिए बाबासाहेब से इजाज़त ले ली थी और वो हवाई अड्डे रवाना हो गए.


हालांकि चंगदेव खैरमोड़े ने बाबासाहेब की जीवनी में लिखा है, 'जब डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो रहे थे, तो उन्होंने बाबासाहेब से एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा.' बाद में जैन धर्म के प्रतिनिधिमंडल ने भी बाबासाहेब से इजाज़त लेकर विदा ली. बाबासाहेब ने उनसे कहा कि 'अगले रोज़ (6 दिसंबर के लिए) मेरे सचिव से शाम का वक़्त ले लेना. फिर हम बात करेंगे.'


उसके बाद बाबासाहेब ने मन में ही 'बुद्धम शरणम् गच्छामि' का पाठ करना शुरू कर दिया. माईसाहेब लिखती हैं कि जब भी बाबासाहेब बेहद अच्छे मूड में हुआ करते थे, तो वो बुद्ध वंदना और कबीर के दोहे पढ़ा करते थे. कुछ देर के बाद जब माईसाहेब ने ड्रॉइंग रूम में झांका, तो देखा कि बाबासाहेब, नानकचंद रत्तू को रेडियोग्राम पर बुद्ध वंदना का रिकॉर्ड बजाने को कह रहे थे.


उसके बाद रात के खाने के वक़्त, बाबासाहेब ने थोड़ा सा खाना खाया. उनके खाने के बाद माईसाहेब ने खाना खाया. बाबासाहेब, माईसाहेब के खाना ख़त्म करने का इंतज़ार करते रहे. उसके बाद उन्होंने कबीर का दोहा, 'चलो कबीर तेरा भवसागर डेरा' बड़े सुर में गाया. बाद में छड़ी का सहारा लेकर वो बेडरूम की तरफ़ चल पड़े. उनके हाथ में कुछ किताबें भी थीं.


बेडरूम की तरफ़ बढ़ते हुए ही, बाबासाहेब ने अपनी किताब 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना की एक कॉपी और एस. एम. जोशी और आचार्य अत्रे के नाम लिखी चिट्ठियां भी सौंपीं और नानकचंद से कहा कि वो ये सब उनकी मेज़ पर रख दें. अपना काम ख़त्म करने के बाद नानकचंद रत्तू भी अपने घर चले गए. माईसाहेब अपना काम निपटाने रसोईघर में चली गईं.



और फिर बाबासाहेब का महापरिनिर्वाण हो गया

जैसा कि माईसाहब ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बाबासाहेब को देर रात तक लिखने-पढ़ने की आदत थी. अगर वो रम जाते, तो सारी-सारी रात पढ़ते-लिखते रहा करते थे. लेकिन माईसाहेब अपनी जीवनी में लिखती हैं कि पांच दिसंबर की रात, नानकचंद रत्तू के अपने घर रवाना होने के बाद, बाबासाहेब ने 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना में फिर से बदलाव किया.


इसके बाद उन्होंने एस. एम. जोशी और आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे के अलावा ब्राह्मी सरकार के नाम लिखी अपनी चिट्ठियों पर भी फिर एक नज़र डाली. उसके बाद वो रोज़मर्रा के उलट साढ़े ग्यारह बजे ही सोने चले गए.


उस रात के बारे में बहुत जज़्बाती होते हुए माईसाहेब ने लिखा है कि पांच दिसंबर की रात, बाबासाहेब की ज़िंदगी की आख़िरी रात साबित हुई. 6 दिसंबर की सुबह, जिसकी शुरुआत 'सूर्यास्त' से हुई थी


छह दिसंबर 1956 को माईसाहेब रोज़ की तरह सुबह उठीं. चाय बनाने के बाद, वो ट्रे लेकर बाबासाहेब को जगाने उनके कमरे में गईं, उस वक़्त सुबह के साढ़े सात बज रहे थे. माईसाहेब लिखती हैं, '' मैं जैसे ही कमरे में दाख़िल हुई, मैंने देखा कि बाबासाहेब का एक पैर तकिए पर पड़ा था. मैंने बाबासाहेब को दो या तीन बार आवाज़ दी. लेकिन उनके बदन में कोई हरकत नहीं हुई. मैंने सोचा कि वो गहरी नींद में सो रहे हैं तो मैंने उन्हें हिलाया और उन्हें जगाने की कोशिश की और...'


सोते हुए ही बाबासाहेब के प्राण पखेरू उड़ चुके थे. माईसाहेब को ज़बरदस्त धक्का लगा. वो रोने लगीं. उस वक़्त बंगले में केवल दो लोग थे. माईसाहेब और उनके सहायक सुदामा. माईसाहब ने रोते-रोते ही सुदामा को आवाज़ दी.

इसके बाद माईसाहेब ने डॉक्टर मालवनकर को फोन किया और पूछा कि अब क्या किया जाना चाहिए. डॉक्टर मालवनकर ने उन्हें बताया कि वो बाबासाहेब को 'कोरामाइन' का इंजेक्शन दें. लेकिन, तब तक बाबासाहब का देहांत हुए कई घंटे गुज़र चुके थे. इसलिए, वो इंजेक्शन भी नहीं दिया जा सकता था. माईसाहेब ने सुदामा से कहा कि वो जाकर नानकचंद रत्तू को बुला लाए.


सुदामा कार लेकर गए और नानकचंद रत्तू को उनके घर से बुला लाए. उसके बाद लोगों ने बाबासाहेब के बदन की मालिश करनी शुरू कर दी. किसी ने मुंह से सांस देने की कोशिश की. लेकिन, कोई तरकीब काम नहीं आई. बाबासाहेब ये दुनिया छोड़कर जा चुके थे.


नानकचंद रत्तू ने बाबासाहेब के क़रीबी अहम लोगों को फ़ोन करके बाबासाहेब के निधन की जानकारी दी. फिर नानकचंद रत्तू ने सरकार के विभागों, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, यूएनआई और आकाशवाणी के केंद्र को भी फोन करके बाबासाहेब के निधन की सूचना दी.

 साथियों आज की इस कड़ी में हमने बाबा साहेब अंबेडकर जी के जीवन पर आधारित कुछ खास घटनाओं को सामिल करने का प्रयास किया है जो बाबा साहेब अंबेडकर जी के जीवन और उनकी छोटी बड़ी घटनाओं को याद दिलाने का काम करेगी साथियों से निवेदन है कि वीडियो में बने रहे एक बार फिर से सभी साथियों को हृदय की गहराइयों से सादर जय भीम आपसे हमे उम्मीद है कि जो साथीगण अभी तक चैनल को subscribe नहीं किए है वें सभी साथी चैनल को subscribe करके हमे सपोर्ट करते हुए अपना बहुमूल्य योगदान दे 

साथियों सबसे पहले हम बात करेंगे एक मुस्लिम महिला मुमताज़ शेख की 

बाबा साहब आंबेडकर के बचपन के जर्जर होते स्कूल की जिसमे आज भी गरीब बच्चे पढ़कर बाबा साहेब के कारवां को बढ़ाने में लगे हुए है 

उसके बाद भीमा कोरेगांव और बाबा साहेब की घटना की 

इसी कर्म में आगे गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर जी के कुछ खास fact पर विचार 

6 दिसंबर 1956. की वह घटना जब सारा देश रोया था बाबा साहेब अंबेडकर कुछ खास पहलू 





आंबेडकर और मैं: 'कभी जय भीम बोलने में भी शर्म आती थी' 

"मैं बाबा साहेब के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती थी. बस उतना ही पता था जो स्कूली किताबों में सीखा था. पहले तो मैं जय भीम कहने में भी शर्म महसूस करती थी. मुझे लगता था कि वह दलितों के 'कोई' हैं जिन्होंने दलितों के लिए संविधान लिखा है. लेकिन अब मैं गर्व के साथ जय भीम बोलती हूं. और मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं."


ये शब्द उस महिला के हैं जिन्होंने तमाम दुश्वारियों को झेलते हुए अपनी और अपने जैसी कई महिलाओं की ज़िंदगियों में बदलाव लाने की कोशिशें कीं.


इनका नाम मुमताज़ शेख है.


एक ग़रीब मुस्लिम परिवार में जन्म लेने वाली मुमताज़ शेख जब सिर्फ सात साल की थीं तो उनका परिवार काम की तलाश में मुंबई आ गया.


इसके बाद नौवीं कक्षा तक पढ़ाई के बाद बस 15 साल की उम्र में मुमताज़ शेख़ की शादी कर दी गई.

मुमताज़ बताती हैं, "मैं नौवीं कक्षा में फेल हो गई. इसके बाद 15 साल की होते ही मेरी शादी हो गई. अगले ही साल मैंने एक बेटी को जन्म दिया. मैं हमेशा सोचती हूं कि मेरी ज़िंदगी की कहानी कितनी फ़िल्मी रही है. मतलब...मेरी शादी हो गई, बेटी हो गई और मुझे लगा कि अब ये हैप्पी एंडिंग होगी. लेकिन ऐसा होना नहीं लिखा था."


जब एक एनजीओ ने बदली ज़िंदगी

मुमताज़ बताती हैं, "ये साल 2000 की बात है. हम सहयाद्रि नगर इलाके में रहते थे और वहीं कोरो (कमेटी ऑफ़ रिसॉर्स ऑर्गनाइजेशन) नाम की एक एनजीओ किसी सर्वे के लिए आई थी. मैं उन्हें अपने घर की खिड़की से देखा करती थी. मुझे बिना पूछे घर से निकलने की इज़ाजत नहीं थी, पानी लाने या शौचालय के लिए भी नहीं. मैं जानना चाहती थी कि आख़िर ये एनजीओ वाले लोग कर क्या रहे हैं. और फिर एक दिन मैं चुपके से उनकी मीटिंग अटेंड करने पहुंच गई."


जब मुमताज इस मीटिंग में पहुंची तो उन्होंने एक समाजसेवी को ये कहते सुना कि वह मुमताज की बस्ती में पानी और बिज़ली की समस्या का समाधान करने जा रहे हैं.

मैंने जब महेंद्र रोकाडे को ये कहते सुना तो मैं अचरज में पड़ गई कि ये हमारी बस्ती है तो ये क्यों काम कर रहे हैं. और मैंने ये सवाल पूछ भी लिया. इसके जवाब में उन्होंने कहा कि आप भी काम कर सकती हैं."


मुमताज कहती हैं कि ये लगता है कि ये कल की बात हो और इससे उनके जीवन को एक चुनौती मिली. इसके बाद उन्होंने परिवार की ओर से सामने आने वाली तमाम परेशानियों से जूझते हुए नौवीं से आगे की पढ़ाई करना शुरू किया.


जब पता चला कि संविधान क्या होता है?

इस संस्था के साथ काम करते हुए मुमताज को भारतीय संविधान और उसमें महिलाओं को मिले अधिकारों के बारे में पता चला.


वह बताती हैं, "संविधान में लिखा है कि सभी (महिला-पुरुष) एक समान हैं और इस बात ने उन्हें अपनी ज़िंदगी को देखने का एक नया नज़रिया दिया."

मेरी संस्था ने मुझे शिकायतों को सुलझाने की ज़िम्मेदारी दी थी. वहां पर एक परिवार आया जिनमें पति-पत्नी के बीच तनाव चल रहा था. मैंने उनसे कहा कि आपको एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए, किसी तरह की हिंसा नहीं होनी चाहिए. हम सब एक बराबर हैं. इतने में पति बोल उठा कि तुम हमें क्या समझा रही हो, अपने घर में देखो क्या हो रहा है. इस कमेंट ने मेरे तन बदन में आग लगा दी. मैं गुस्सा थी लेकिन मुझे पता था कि वो सही हैं. क्योंकि अगर मैं खुद अपने घर में इसका पालन नहीं कर सकती तो दूसरों को क्या सलाह दूं."


यही वो मोड़ था जब मुमताज़ शेख के असली युद्ध की शुरुआत हुई.

जब तलाक़ ही बचा रास्ता

उन्होंने अपने परिवार को समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई कुछ न माना. उनके ससुराल वाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि जिस लड़की ने बचपन से घरेलू हिंसा पर कुछ नहीं कहा, वो अब क्यों अपनी आवाज़ उठा रही है.


इस बीच उन्होंने खुला जैसी परंपरा के रास्ते तलाक लेने के बारे में विचार किया. इसके एक साल बाद उन्होंने अपने पति से तलाक़ ले लिया.

इसके बाद कुछ समय बाद उन्होंने अपने साथ काम करने वाले एक साथी कर्मचारी से शादी कर ली.

आंबेडकर बने प्रेरणा स्रोत

मुमताज़ शेख ने इस संस्था में काम करते हुए कई परियोजनाओं में काम किया. लेकिन जिस काम से उन्हें प्रसिद्धि मिली वो राइट-टू-पी प्रोजेक्ट था. इस काम के तहत उन्होंने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के लिए संघर्ष किया.


मुमताज़ मानती हैं कि उनके अब तक सफर की प्रेरणा बाबा साहेब आंबेडकर रहे हैं.


वह कहती हैं, "मैंने उनकी कई तस्वीरें देखी हैं लेकिन मेरे पास एक तस्वीर है जो आपको उनकी शख़्सियत से इश्क करने पर मजबूर कर देती है. इस तस्वीर में उनकी बोलती हुई आंखें हैं. वह सब कुछ देखती है और मुझे संघर्ष करने की शक्ति देती हैं. मेरे पास बोलने की जो भी शक्ति है वो आंबेडकर की वजह से हैं."


आपने देखा आंबेडकर का जर्जर होता स्कूल?

7 नवंबर 1900 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पहली कक्षा में दाख़िला लिया था.


डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 7 नवंबर 1900 को सतारा के सरकारी स्कूल मे दाख़िला लिया था. यह दिन महाराष्ट्र सरकार द्वारा स्कूल प्रवेश दिन के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन पर बीबीसी द्वारा फोटो फ़ीचर की ख़ास पेशकश. आज ये स्कूल प्रताप सिंह हाई स्कूल नाम से जाना जाता है. उस वक्त यह स्कूल पहली से चौथी तक था. चौथी कक्षा तक आंबेडकर इसी स्कूल में पढ़े.



सतारा सरकारी स्कूल राजवाडा इलाके में एक हवेली (वाडा) में चलता था. आज भी ये हवेली इतिहास की गवाह है. 1824 में छत्रपती शिवाजी महाराज के वारिस प्रताप सिंह राजे भोसले ने इसे बनावाया था. उस वक्त राजघराने की लड़कियों को पढ़ाने के लिए यहां स्कूल खोला गया. 1851 में यह हवेली स्कूल के लिए ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दी गई.



डॉ. आंबेडकर के पिताजी सुभेदार रामजी सकपाल आर्मी से रिटायर्ड होने के बाद सतारा में बस गये थे. वहीं पर 7 नवंबर 1900 को 6 साल के भिवा (आंबेडकर का बचपन का नाम) ने सातारा गवर्नमेंट स्कूल में दाखिला लिया. सुभेदार रामजी ने स्कूल में दाखिल करते वक्त आंबेडकर का सरनेम आंबडवे गांव के नाम से आंबडवेकर लिख दिया. उस स्कूल में कृष्णाजी केशव आंबेडकर शिक्षक थे. उनका सरनेम आंबेडकर उनको दिया गया.



स्कूल के रजिस्टर में भिवा आंबेडकर ऐसा नाम दर्ज है. रजिस्टर में 1914 इस नंबर के आगे उनका हस्ताक्षर है. यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ स्कूल में संरक्षित करके रखा गया है.

स्कूल को 100 साल पूरे होने पर 1951 में इस स्कूल का नाम छत्रपति प्रताप सिंह हाई स्कूल रखा गया.

10वीं कक्षा में पढ़ने वालीं पल्लवी रामचंद्र पवार कहती हैं, “भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर जिस स्कूल में पढ़े उसी स्कूल में मैं पढ़ रही हूं इसका मुझे अभिमान है. हर साल स्कूल में आंबेडकर जयंती, स्कूल प्रवेश दिन जैसे प्रोग्राम होते हैं. इन प्रोग्राम में मेहमान भाषण में बताते हैं कि बाबा साहेब किन मुश्किल हालातों मे पढ़े. मैं भी वह हालात समझ सकती हूं. मेरी माँ घरेलू कामकाज करती हैं और पिताजी पेंटर हैं. मुझे बड़ा होकर डीएम बनना है.”

विराज महिपती सोनावाले 10वी कक्षा में पढ़ते हैं. वह कहते हैं, “मैं सुबह अख़बार बेचकर स्कूल में पढ़ने आता हूं. उस वक्त मुझे बाबा साहेब का संघर्ष अपनी आँखों के सामने दिखता है. मैं अपने मन में कहता हूं की मेरी मेहनत उनके सामने कुछ भी नहीं. मैं बाबा साहेब के स्कूल में पढ़ता हूं इसकी मुझे खुशी है. बाबा साहेब की तरह मुझे भी समाज के लिए काम करना है.”

स्कूल की प्रधानाचार्य एस जी मुजावर कहती हैं, “प्रताप सिंह हाई स्कूल में ग़रीब, ज़रूरतमंद तबके से छात्र मेहनत करके सीखते हैं. आंबेडकर की विरासत को हम संरक्षित कर रहे हैं इसकी हमें खुशी है. लेकिन इस स्कूल को फुल टाईम हेडमास्टर की ज़रूरत है. स्कूल बिल्डिंग पुरानी हो चुकी है और जर्जर होती जा रही है. हमें नये बिल्डिंग की ज़रूरत है. स्कूल मे छात्रों की संख्या बढ़ाने की हम कोशिश कर रहे हैं.

लोक निर्माण विभाग ने कुछ साल पहले स्कूल की बिल्डिंग को ख़तरनाक बिल्डिंग की श्रेणी में डाल दिया था और उसकी जगह बदलने की सिफारिश की है. यह पुरानी हवेली ऐतिहासिक धरोहर करके नामित हुई है.

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महारों ने पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई 1818 में की थी. अंग्रेज़ो की महार रेजीमेंट ने इस लड़ाई जमकर बहादुरी दिखाई थी. भीमा-कोरेगांव में जो विजय स्तंभ है उस पर इस रेजीमेंट के लोगों के नाम हैं.


बाबा साहेब आंबेडकर जब 1927 में वहां गए तो ये सारी चीज़ें वहां देखीं. आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन चाहने वाले नेता थे. उन्होंने देखा कि 1818 के बाद का जो इतिहास है उसमें दलितों के लिए भीमा-कोरेगांव एक प्रतीक बन सकता है. उन्होंने इस लड़ाई को प्रतीक बनाया.


हम इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि बाबा साहेब आंबेडकर के साथ जिन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया वो महार ही थे. महार रेजीमेंट के पहले इस समाज को कभी जीत का अहसास तक नहीं था. बाबा साहेब इनके मन में स्वाभिमान और अस्मिता पैदा करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने इस लड़ाई और जीत को एक प्रतीक बनाया 

ज़ाहिर है इसे एक सकारात्मक प्रतीक के रूप में देखना चाहिए. महार समाज बिल्कुल ग़रीब है. उसे आज भी न्याय नहीं मिल रहा. पेशवा के निरंकुश राज को भला कोई कैसे भूल सकता है. उस राज में दलित अछूत थे.


इस अछूत समाज में अगर चेतना पैदा करनी है, अस्मिता पैदा करनी है तो कोई भी अच्छा नेता स्वाभिमान जगाने के लिए एक प्रतीक खड़ा करेगा. यह प्रतीक इतिहास में होगा, ऐतिहासिक होगा. आंबेडकर ने उसी प्रतीक को खड़ा कर चेतना को झकझोड़ा. ये महज़ लड़ाई की बात नहीं है. इस लड़ाई के बाद विश्व युद्ध हुआ था.


पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती बंद कर दी गई थी. बाबा साहेब आंबेडकर के पिता रामजी आंबेडकर आर्मी में थे. ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती फिर से शुरू कराने के लिए लोगों ने अभियान चलाया. इस अभियान के तहत लोग ब्रिटिश अधिकारियों के पास ज्ञापन लेकर गए थे और इसमें रामजी आंबेडकर भी शामिल थे.

बाबा साहेब जानते थे कि इस लड़ाई का महत्व क्या है. इनकी मेहनत ने रंग भी लाई. दूसरे विश्व युद्ध के पहले अंग्रेज़ों ने महार रेजिमेंट को फिर से शुरू किया. महार सेना में फिर से भर्ती होने लगे. ये प्रतीक भले सामाजिक है, लेकिन इससे दलितों की रोजी-रोटी भी जुड़ी हुई है. उस वक़्त महारों का शोषण चरम पर था.


जब ये आर्मी में गए तो इन्हें सम्मान मिला. बाबा साहेब जानते थे कि जो महार भाई आर्मी में काम कर रहे हैं उनके भीतर स्वाभिमान जाग गया है. इसी स्वाभिमान का इस्तेमाल बाबा साहेब ने किया. इसमें क्यों किसी को समस्या होनी चाहिए. ये तो अच्छी बात है. आज़ादी के आंदोलन में भी गांधी जी ने ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल किया था.


ऐसा ही बाबा साहेब आंबेडकर ने किया. साल 1927 से लेकर आज तक भीमा-कोरेगांव में कोई समस्या नहीं हुई थी. 1990 से लेकर आज तक 27 साल हो गए और भीमा-कोरेगांव में हज़ारों आंबेडकरवादी और दलित जाते हैं. भीमा-कोरेगांव एक तरह से तीर्थस्थल बन गया है. अभी तक वहां सब कुछ शांति से हो रहा था.

बरसी पर वहां दुकाने खुल जाती हैं. लोग अच्छा कमा लेते हैं. स्थानीय लोग भी ख़ुश रहते हैं. आख़िर इस साल ही विवाद क्यों हुआ? इसी साल 200 साल पूरे होने वाले थे. इस बार प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व में विशाल मार्च निकाल गया था. इस मार्च का समापन शनिवार वाड़ा पर होने वाला था.


इसमें विवादित मुद्दा यही है कि शनिवारावाड़ा पेशवा का वाड़ा है. शनिवार वाड़ा ब्राह्मणों के राज का एक प्रतीक है. वहां दलितों के जुटने पर आपत्ति थी. इसी आपत्ति को हवा देकर दंगा भड़काया गया. 1927 में जो आंबेडकर ने शुरू किया उसके बाद से आज भी दलितों के लिए यह जीत बहुत मायने रखती है.


साल 1927 में भीमा-कोरेगांव जाने के बाद बाबा साहेब ने पानी के लिए आंदोलन किया था. उसके बाद उन्होंने मंदिर में प्रवेश का आंदोलन शुरू किया था. आज भी दलित स्वाभिमान की बात की जाती है तो इतिहास में 1818 को की तरफ़ देखा जाता है. इसलिए इसे भूलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. आर्मी में जो दलित हैं वो भी वहां जाते हैं.

महार से जो बौद्ध बने हैं वो भी भीमा-कोरेगांव जाते हैं. कम से कम एक से डेढ़ लाख लोग वहां हर साल जमा होते हैं. सवाल यह है कि हमारे इतिहास में दलितों के लिए क्या कोई जगह नहीं है? सारा इतिहास क्या सवर्ण ही लिखेंगे? बाबा साहेब के जाने के बाद भी यह यात्रा बंद नहीं हुई थी.


2014 के आम चुनाव में बहुत सारे दलितों ने मोदी को वोट किया था. भीमा-कोरेगांव में दलितों से जुड़ा इतना बड़ा प्रतीक है वहां मोदी क्यों नहीं गए? मुख्यमंत्री फडणवीस वहां क्यों नहीं गए? अगर समाज दलित स्वाभिमान को स्वीकार करता तो वहां हमले नहीं होते. लोग इसमें पहचान की राजनीति की बात कह रहे हैं.


लेकिन यह भी सच है कि पहचान की राजनीति हमेशा ग़लत नहीं होती है. अगर आप सकारात्मक प्रतीक के साथ पहचान की राजनीति करते हैं तो उसका फ़ायदा ही मिलता है. पिछले 50-60 सालों में दलितों में आरक्षण के ज़रिए एक किस्म की चेतना आई है. इनके बीच एक मध्य वर्ग तैयार हुआ है. इनके पास पैसे आए हैं.

पर दलित सांस्कृतिक पहचान की उपेक्षा क्यों करेंगे? वो संस्कृति और इतिहास में भी अपने हिस्से की तलाश कर रहे हैं. यह बिल्कुल ही सकारात्मक अस्मिता की राजनीति है. इतने दशकों बाद भी दलितों को अपना हक़ नहीं मिला है.


डॉक्टर राममनोहर लोहिया कहते थे कि अगर दलितों को उनका हक़ देना है तो सवर्णों को मानना होगा कि उन्होंने अन्याय किया है.


आज लोग सड़क पर क्यों हैं? इसलिए हैं कि आरक्षण रद्द करने की बात कही जा रही है. संविधान बदलने की बात कही जा रही है. इसका संदेश क्या जाता है? इसे भारतीय जनता पार्टी ने भी हवा दी है. इन्हीं सारे विवादों के दौरान बीजेपी सांसद ने संविधान बदलने की बात कही थी. आरएसएस वाले कभी-कभी आरक्षण बंद करने की बात करते हैं.

इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में ऐसे बयानों की भी भूमिका है. महाराष्ट्र में बौद्ध नौ फ़ीसदी हैं. ब्राह्मणों के बाद सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा समुदाय बौद्धों का है. ये बौद्ध पहले महार ही थे. इन महारों ने आंबेडकर के साथ ही अपना धर्म बदला था. पढ़े-लिखे होने के बावजूद इन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वो मिला नहीं.


इस धर्मांतरण से दलितों के बीच बड़ा बदलाव आया है. इस आंदोलन से बीजेपी और शिव सेना में डर है. पहले महाराष्ट्र में दलितों की रिपब्लिकन पार्टी थी. रिपब्लिकन पार्टी में विभाजन हुआ और अठावले ने अलग पार्टी बना ली. दलितों को साथ लिए बिना किसी भी पार्टी की राजनीति आगे नहीं जा सकती है. इस बात को हर पार्टी जानती है.


महाराष्ट्र की हर पार्टी में दलित हैं. दलितों में बौद्ध नौ फ़ीसदी हैं और ग़ैरबौद्ध भी बड़ी संख्या में हैं. महाराष्ट्र में दलित कम से कम 15 से 16 फ़ीसदी हैं. अगर दलित भड़कते हैं तो शिव सेना और बीजेपी के लिए इनसे वोट लेना आसान नहीं होगा. 2014 के आम चुनाव में दलितों ने कांग्रेस और एनसीपी के ख़िलाफ़ वोटिंग की थी.

बीजेपी में एक समूह ऐसा भी है जो चाहता था कि भिमा-कोरेगांव जाना चाहिए. कुछ अतिवादियों से इस हमले को कराया गया है. इसमें मराठा युवकों को भड़काया गया. ध्रुवीकरण की कोशिश की गई. अगर ये मराठा बनाम दलित हो जाता तो पूरे महाराष्ट्र में ध्रुवीकरण होता. ज़ाहिर है इसका फ़ायदा बीजेपी को मिलता.


पिछले तीन सालों में महाराष्ट्र सरकार ने कुछ काम नहीं किया है. ऐसे में बीजेपी के लिए इस तरह का ध्रुवीकरण उसके हक़ में होगा. किसान भड़के हुए हैं. मराठा आरक्षण मांग रहे हैं. ये बिल्कुल सोची-समझी राजनीति है. महाराष्ट्र में पेशवा घराने का कोई मतलब नहीं है. पेशवा राज में जो दूसरा बाजीराव था वो बहुत ही निरंकुश शासक था.


जब वो ब्रिटिश राज में हारा तो महाराष्ट्र छोड़कर कर्नाटक भाग गया था. महाराष्ट्र में पेशवा को लेकर कोई प्रतिष्ठा जैसी बात नहीं है. महाराष्ट्र में पेशवाई आ गई मतलब अत्याचार आ गया है माना

 जाता है. पेशवाई का मतलब अत्याचार से है.

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दिलचस्प बात है कि भारत की दो महान शख्सियतों भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच कभी नहीं बनी. दोनों के बीच कई मुलाकातें हुई लेकिन वो अपने मतभेदों को कभी पाट नहीं पाए.


आज़ादी से दो दशक पहले आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने ख़ुद को स्वतंत्रता आंदोलन से अलग कर लिया था. वो अछूतों के प्रति गांधी के अनुराग और उनकी तरफ से बोलने के उनके दावे को जोड़-तोड़ की रणनीति मानते थे.


जब 14 अगस्त 1931 को गांधी से उनकी मुलाक़ात हुई, तो गांधी ने उनसे कहा "मैं अछूतों की समस्याओं के बारे में तब से सोच रहा हूँ जब आप पैदा भी नहीं हुए थे. मुझे ताज्जुब है कि इसके बावजूद आप मुझे उनका हितैशी नहीं मानते?"


धनंजय कीर आंबेडकर की जीवनी 'डॉक्टर आंबेडकर: लाइफ़ एंड मिशन' में लिखते हैं, "आम्बेडकर ने गांधी से कहा अगर आप अछूतों के ख़ैरख़्वाह होते तो आपने कांग्रेस का सदस्य होने के लिए खादी पहनने की शर्त की बजाए अस्पृश्यता निवारण को पहली शर्त बनाया होता."


"किसी भी व्यक्ति को जिसने अपने घर में कम से कम एक अछूत व्यक्ति या महिला को नौकरी नहीं दी हो या उसने एक अछूत व्यक्ति के पालनपोषण का बीड़ा न उठाया हो या उसने कम से कम सप्ताह में एक बार किसी अछूत व्यक्ति के साथ खाना न खाया हो, उसे कांग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी. आप ने कभी भी किसी ज़िला कांग्रेस पार्टी के उस अध्यक्ष को पार्टी से निष्कासित नहीं किया जो मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का विरोध करते देखा गया हो."



26 फ़रवरी 1955 में जब बीबीसी ने आंबेडकर से गांधी के बारे में उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, ''मुझे इस बात पर काफ़ी हैरानी होती है कि पश्चिम के देश गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं?''


उन्होंने कहा, "जहाँ तक भारत की बात है तो वो देश के इतिहास का एक हिस्सा भर हैं, नए युग का निर्माण करने वाले व्यक्ति नहीं. गांधी की यादें इस देश के लोगों के ज़हन से जा चुकी हैं."



शुरू से ही भेदभाव का शिकार हुए आंबेडकर

बचपन से ही अपनी जाति के कारण आंबेडकर को लोगों के भेदभाव का शिकार होना पड़ा.


1901 में जब वो अपने पिता से मिलने सतारा से कोरेगाँव गए तो स्टेशन से बैलगाड़ी वाले ने उन्हें ले जाने से इनकार कर दिया. दोगुने पैसे देने पर वो इस बात के लिए राज़ी हुआ कि नौ साल के आंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी चलाएंगे और वो पैदल उनके साथ चलेगा.


1945 में वायसराय की काउंसिल के लेबर सदस्य के रूप में भीमराव आंबेडकर उड़ीसा (आज का ओडिशा) के पुरी में मौजूद जगन्नाथ मंदिर गए तो उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया.


उसी साल जब वो कलकत्ता (आज का कोलकाता) में मेहमान के तौर पर एक शख़्स के यहां गए तो उसके नौकरों ने ये कहते हुए उन्हें खाना परोसने से इंकार कर दिया कि वो महार जाति से हैं.


शायद यही सब कारण थे जिनकी वजह से आंबेडकर ने अपनी जवानी के दिनों में जाति व्यवस्था की वकालत करने वाली मनुस्मृति को जलाया था.



आंबेडकर अपने ज़माने में भारत के संभवत: सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे. उन्होंने मुंबई के मशहूर एलफ़िस्टन कॉलेज से बीए की डिग्री ली थी. बाद में उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी.


शुरू से ही वो पढ़ने, बागवानी करने और कुत्ते पालने के शौक़ीन थे. कहा जाता है कि उस ज़माने में उनके पास देश में क़िताबों बेहतरीन संग्रह था. मशहूर क़िताब 'इनसाइड एशिया' के लेखक जॉन गुंथेर ने लिखा है कि "1938 में जब राजगृह में आंबेडकर से मेरी मुलाक़ात हुई थी तो उनके पास आठ हज़ार क़िताबें थीं. उनकी मौत के दिन तक ये संख्या बढ़ कर 35,000 हो चुकी थी."


बाबासाहेब आंबेडकर के निकट सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री अपनी क़िताब 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "मैं रविवार 20 दिसंबर, 1944 को दोपहर एक बजे आंबेडकर से मिलने उनके घर गया. उन्होंने मुझे अपने साथ जामा मस्जिद इलाक़े में चलने के लिए कहा. उन दिनों वो पुरानी क़िताबें खरीदने का अड्डा हुआ करता था."


"मैंने उनसे कहने की कोशिश की कि दिन के खाने का समय हो रहा है लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ. जामा मस्जिद में उनके होने की ख़बर चारों तरफ़ फैल गई और लोग उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगे. इस भीड़ में भी उन्होंने विभिन्न विषयों पर क़रीब दो दर्जन क़िताबें ख़रीदीं. वो अपनी क़िताबें किसी को भी पढ़ने के लिए उधार नहीं देते थे. वो कहा करते थे कि अगर किसी को उनकी किताबें पढ़नी हैं तो उसे उनके पुस्तकालय में आकर पढ़ना चाहिए."



क़िताबों के लिए दीवानापन

करतार सिंह पोलोनियस ने चेन्नई से प्रकाशित होने वाले 'जय भीम' के 13 अप्रैल, 1947 के अंक में लिखा था, "एक बार मैंने बाबा साहेब से पूछा था कि आप इतनी सारी क़िताबें कैसे पढ़ पाते हैं. उनका जवाब था, लगातार क़िताबें पढ़ते रहने से उन्हें ये अनुभव हो गया था कि किस तरह क़िताब के मूलमंत्र को आत्मसात कर उसकी फ़िज़ूल की चीज़ों को दरकिनार कर दिया जाए."


"उन्होंने मुझे बताया था कि तीन क़िताबों का उनके ऊपर सबसे अधिक असर हुआ था. पहली थी 'लाइफ़ ऑफ़ टॉलस्टाय', दूसरी विक्टर ह्यूगो की 'ले मिज़राब्ल' और तीसरी थॉमस हार्डी की 'फ़ार फ़्रॉम द मैडिंग क्राउड.' क़िताबों को लेकर उनका प्यार इस हद तक था कि वो सुबह होने तक क़िताबों में ही लीन रहते थे."


आंबेडकर को जब रामनवमी के रथ में हाथ नहीं लगाने दिया गया

गांधी को क्या वाक़ई ग़लत आंकते थे आंबेडकर?


आंबेडकर के एक और अनुयायी नामदेव निमगड़े अपनी क़िताब 'इन द टाइगर्स शैडो: द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन आंबेडकराइट' में लिखते हैं, "एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप इतना लंबे समय तक पढ़ने के बाद अपना 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन किस तरह करते हैं. उनका जवाब था कि मेरे लिए 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन का मतलब एक विषय को छोड़ दूसरे विषय की क़िताब पढ़ना."


निमगड़े लिखते हैं, "रात में आंबेडकर क़िताब पढ़ने में इतना खो जाते थे कि उन्हें बाहरी दुनिया का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था. एक बार देर रात मैं उनकी स्टडी में गया और उनके पैर छूए. किताबों में डूबे आंबेडकर बोले, 'टॉमी ये मत करो.' मैं थोड़ा अचंभित हुआ. जब बाबा साहेब ने अपनी नज़रें उठाई और मुझे देखा तो वो झेंप गए. वो पढ़ने में इतने ध्यानमग्न थे कि उन्होंने मेरे स्पर्श को कुत्ते का स्पर्श समझ लिया था."



टॉयलेट में अख़बार और क़िताबें पढ़ना था पसंद

आंबेडकर के लाइब्रेरियन के रूप में काम करने वाले देवी दयाल ने अपने लेख 'डेली रुटीन ऑफ़ डॉक्टर आंबेडकर' में लिखा है, "आंबेडकरअपने शयनकक्ष को अपनी समाधि समझते थे. बाबासाहेब अपने बिस्तर पर अख़बार पढ़ना पसंद करते थे. एक-दो अख़बारों को पढ़ने के बाद वो बाक़ी अख़बारों को अपने साथ टॉयलेट ले जाते थे. कभी-कभी वो अख़बार और क़िताबें टॉयलेट में छोड़ देते थे. मैं उनको वहाँ से उठा कर उनकी तय जगह पर रख देता था."


आंबेडकर की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर लिखते हैं, "आंबेडकर पूरी रात पढ़ने के बाद भोर के वक्त सोने के लिए जाते थे. सिर्फ़ दो घंटे सोने के बाद वो थोड़ी कसरत करते थे. उसके बाद वो नहाने के बाद नाश्ता किया करते थे."


"अख़बार पढ़ने के बाद वो अपनी कार से कोर्ट जाते थे. इस दौरान वो उन क़िताबों को पलट रहे होते थे जो उस दिन उनके पास डाक से आई होती थीं. कोर्ट समाप्त होने के बाद वो क़िताब की दुकानों का चक्कर लगाया करते थे और जब वो शाम को घर लौटते थे तो उनके हाथ में नई क़िताबों का एक बंडल हुआ करता था.


जहाँ तक बागवानी का सवाल है दिल्ली में उनसे अच्छा और देखने वाला बगीचा किसी के पास नहीं था. एक बार ब्रिटिश अख़बार डेली मेल ने भी उनके गार्डन की तारीफ़ की थी.


वो अपने कुत्तों को भी बहुत पसंद करते थे. एक बार उन्होंने बताया था कि किस तरह उनके पालतू कुत्ते की मौत हो जाने के बाद वो फूट-फूट कर रोए थे.



खाना बनाने के शौकीन


कभी-कभी छुट्टियों में बाबासाहेब खुद खाना भी बनाते थे और लोगों को अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित करते थे.


देवी दयाल लिखते हैं, "3 सिंतबर, 1944 को उन्होंने अपने हाथ से खाना बनाया. उन्होंने सात पकवान बनाए. इसे बनाने में उन्हें तीन घंटे लगे. उन्होंने खाने पर दक्षिण भारत अनुसूचित जाति फ़ेडेरेशन की प्रमुख मीनांबल सिवराज को बुलाया. वो ये सुन कर दंग रह गईं कि भारत की एक्ज़क्यूटिव काउंसिल के लेबर सदस्य ने उनके लिए अपने हाथों से खाना बनाया है."


बाबा साहेब को मूली और सरसों का साग पकाने का बहुत शौक था.


उनके साथी रहे सोहनलाल शास्त्री अपनी क़िताब 'बाबा साहेब के संपर्क में पच्चीस वर्ष' में लिखते हैं, "हम दोनों साग को खूब सारे तेल में पकाया करते थे क्योंकि उन्हें पंजाबी स्टाइल में साग बनाना पसंद था. उन्हें अपने राज्य महाराष्ट्र पर भी गर्व था. कांग्रेस पार्टी के नेताओं में लोकमान्य तिलक को वो सबसे अधिक मानते थे."


"उनका कहना था कि तिलक से अधिक तकलीफ़ किसी कांग्रेस नेता ने नहीं झेली. तिलक को छह फ़ीट चौड़ी और आठ फ़ीट लंबी कोठरी में रखा जाता था और वो ज़मीन पर सोया करते थे, जबकि जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और गांधी ने ए-क्लास से नीचे कोई सुविधा कभी स्वीकार नहीं की. अपने समकक्ष लोगों में गोविंद वल्लभ पंत के लिए उनके मन में बहुत इज़्ज़त थी. उनकी नज़र में पंत महाराष्ट्र के मूल निवासी थे. उनके पूर्वज 1857 में नाना साहेब के विद्रोह के दौरान उत्तर भारत में आ कर बस गए थे."


डॉक्टर आंबेडकर के घर में अज्ञात व्यक्तियों की तोड़फोड़

आम्बेडकर के पहले अख़बार 'मूकनायक' के सौ साल


पार्टियों में समय बरबाद करने के सख़्त ख़िलाफ़

1948 में आंबेडकर को श्रीलंका के स्वतंत्रता दिवस पर हो रहे समारोह में वहां के उच्चायोग ने आमंत्रित किया था. इस समारोह में लॉर्ड माउंटबैटन और जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे.


एन सी रट्टू अपनी किताब 'रेमिनेंसेंसेज़ एंड रिमेंबरेंस ऑफ़ डाक्टर बीआर आंबेडकर' में लिखते हैं, "जब मैंने बाबासाहेब से पूछा कि आप इस समारोह में क्यों नहीं जा रहे तो उनका जवाब था मैं वहाँ अपना बहुमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहता. दूसरे मुझे शराब पीने का शौक नहीं हैं जो इस तरह की पार्टियों में सर्व की जाती है."


अम्बेडकर को न तो नशे की किसी चीज़ का शौक था और न ही वो धूम्रपान किया करते थे. एक बार जब उन्हें खाँसी हो रही थी तो मैंने उन्हें पान खाने का सुझाव दिया. उन्होंने मेरे अनुरोध पर पान खाया ज़रूर लेकिन अगले ही सेकेंड उसे ये कहते हुए थूक दिया कि ये बहुत कड़वा है. वो बहुत साधारण खाना खाते थे जिसमें बाजरे की एक रोटी, थोड़ा चावल, दही और मछली के तीन टुकड़े हुआ करते थे.''



साथी को ओवरकोट ओढ़ाया

घर पर काम में आंबेडकर की मदद करने के लिए सुदामा नाम के एक व्यक्ति रखा गया था. एक दिन सुदामा जब देर रात फ़िल्म देख कर लौटे तो उन्होंने सोचा कि उनके घर के अंदर घुसने से बाबासाहेब के काम में विघ्न पड़ेगा. उन्हें पता था कि बाबासाहेब क़िताब पढ़ने में तल्लीन होंगे.


वो दरवाज़े के बाहर ही ज़मीन पर सो गए. आधी रात के बाद जब आंबेडकर ताज़ी हवा लेने बाहर निकले तो उन्होंने दरवाज़े के बाहर सुदामा को सोते हुए पाया. वो बिना आवाज़ किए अंदर चले गए. जब अगले दिन सुबह सुदामा की नींद खुली तो उन्होंने पाया कि बाबासाहेब ने उनके ऊपर अपना ओवरकोट डाल दिया है.



बिड़ला के दिए पैसों को अस्वीकार किया

31 मार्च 1950 को मशहूर उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला के बड़े भाई जुगल किशोर बिड़ला आंबेडकर से मिलने उनके निवासस्थान पर आए. कुछ दिनों पहले बाबासाहेब ने मद्रास में पेरियार की उपस्थिति में हज़ारों लोगों के सामने भगवतगीता की आलोचना की थी.


बाबासाहेब के सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "बिड़ला ने उनसे सवाल किया आपने गीता की आलोचना क्यों की जो कि हिंदुओं की सबसे जानीमानी धार्मिक क़िताब है? उनको इसकी आलोचना करने के बजाए हिंदू धर्म को मज़बूत करना चाहिए."


"जहां तक छुआछूत को दूर करने की बात है तो वो इसके लिए दस लाख रुपए देने के लिए तैयार हैं. इसका जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा, मैं अपने आप को किसी को बेचने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ. मैंने गीता की इसलिए आलोचना की थी, क्योंकि इसमें समाज को बांटने की शिक्षा दी गई है."



वायसराय के सामने हमेशा भारतीय कपड़ों में जाते थे आंबेडकर

बाबासाहेब अक्सर नीला सूट पहना करते थे लेकिन कुछ ख़ास मौकों पर वो अचकन, चूड़ीदार पजामा और काले जूते निकालते थे. लेकिन, जब भी वो वायसराय से मिले जाते थे, वो हमेशा भारतीय कपड़े ही पहनते थे.


घर पर वो साधारण कपड़े पहना करते थे. गर्मी में वो चार हाथ की लुंगी कमर में लपेट लेते थे. उसके ऊपर वो घुटनों तक का कुर्ता पहनते थे. विदेश में रहने के दौरान से ही वो नाश्ते में दो टोस्ट, अंडे और चाय लिया करते थे.


देवी दयाल लिखते हैं कि जब वो नाश्ता करते थे तो बाईं तरफ़ उनके अख़बार खु

ले रहते थे. उनके हाथ में एक लाल पेंसिल रहती थी जिससे वो अख़बारों की मुख्य ख़बरों पर निशान लगाया करते थे.




Monday, December 4, 2023

दलितों के नर्ककुंड में बास

दलितों के नर्ककुंड में बास 

 पार्ट 2

प्यारे साथियों नमस्कार साथियों इस कहानी का पहला भाग दलितों के लिए नर्क का कुंड यदि आपने नही देखा तो आप डिस्क्रिप्शन में दिए गए लिंक पर जाकर देख सकते है साथियों यह कहानी भूतकाल से लेकर वर्तमान समय में दलितों की वास्तविक स्थिति को भी चरितार्थ करती है 

साथियों Part 2 दलितों के नर्क कुंड से बास आना जातिय संघर्ष और वर्ग संघर्ष का बुनियादी फर्क उत्पीड़न और सवर्णों के आतंक का 

परिणाम है। बाहर और घरों में काम करने वाली दलित स्त्रियाँ आर्थिक रूप से इन्हीं चौधरियों

पर निर्भर है। उनकी आर्थिक निर्भरता व सामाजिक स्थिति, जिसके कारण इनके अस्तित्व,

अस्मिता को नकारकर इन्हें अपमानित कर सवर्ण जाति अपना अधिकार मानती है। पुरुष

प्रधानता का वर्चस्व इस प्रकार के व्यवहार से स्पष्ट होता है। दलित स्त्री होने के नाते तीहरे

शोषण की शिकार है। आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक सुरक्षा के अभाव में उसके

अस्तित्व व अस्मिता को बार-बार कुचला जाता है। ज्ञानो ने अपने अस्तित्व के लिए परिवार व

अपने ही पुरुष प्रधान समाज से संघर्ष करने का प्रयास किया था लेकिन इसमें उसे अपनी

जान ही देनी पड़ी। लच्छो जैसी अबोध व असहाय लड़की को यौन शोषण को झेलने के लिए मजबूर किया जाता है। चेतना के विकास के अभाव में वह इसे नियति समझकर चुप रहती है।

उसके इस अपमान को उसका बाप और माँ भी चुपचाप सहने में ही अपनी भलाई समझते हैं।

परिस्थितियों और जातिगत शोषण के दबाव को दलित परिवार संघर्ष या विद्रोह किए बिना ही

सहने के लिए विवश कर दिए गए हैं।

बाबा फत्तो व ताया बसंता एक तरह से दलित समुदाय के प्रतिष्ठित बुजुर्ग हैं, जो अपने समाज

के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय-समय पर उन्हें पंचायत में या चौधरियों से किसी

झगड़े या विवाद को हल करने के लिए दलितों की ओर से बात करनी होती है। काली के

गाँव-आने पर व उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व देख कर दलित युवक उसकी ओर नेतृत्व के लिए

देखते हैं, लेकिन चमार-चौधरी संघर्ष का फैसला फिर ताऊ बसंते से बात करके ही हल निकलता

है।


चौधरी वर्ग, जो गाँव का वर्चस्वकारी वर्ग है और ज़मीनों का मालिक है, इस कहानी 

 में शोषक अमानवीय और क्रर चरित्रों के रूप में सामने आते हैं। उनमें लालू पहलवान

जेसे न्याय प्रिय व्यक्ति भी हैं, जो अपने मजदूरों के साथ मानवीय व्यवहार करते हैं और दुख-

तकलीफ के समय उनके घरों में जाने से भी संकोच नहीं करते। चौधरी हरनाम सिंह, हरदेव,

चौधरी मुंशी आदि कुछ अधिक उद्दंड स्वभाव के हैं। लेकिन चौधरी -दलित संघर्ष के समय लालू

का अपने वर्ग के साथ रहना समाज में वर्गीय स्थिति के प्रभावी होने के यथार्थ को संकेतित

करता है। चौधरियों मे ही एक चरित्र मुंह फट चौधरी है, जो कहानी में कुछ हास्य-व्यंग्य की

स्थिति पैदा करता है। धडम्म अर्थात मुंह फट चौधरी हर गाँव में पाए जाते हैं ऐसे लोग निठल्ले रह कर बातों की

कमाई खाते हैं। यहाँ भी मुंह फट चौधरी कानून का विशेषज्ञ बन कर गाँव पर अपना आतंक

जमाए हुए है और उसी से अपना कमीशन निकाल कर काम चलाता है।

इस कहानी में चौधरियों और चमारों के बीच के जो चरित्र हैं, वे अधिक दिलचस्प

और जीवंत हैं। इनमें एक गाँव का बनिया छज्जू शाह है, जो चौधरियों और दलितों दोनों से

मधुर संबंध रखता है और दोनों को ही समान रूप से ब्याज आदि के द्वारा लूटता है। जहाँ

उसका हित चौधरियों-दलितों को लड़वाने में है, वहाँ वह उन्हें उक्सा देता है और जब उसके

अपने हितों की हानि होती है तो समझौते के लिए दोनों पक्षों को समझाने लगता है। उसके

लिए पैसा ही बड़ी सामाजिक सत्ता है, इसीलिए कानपुर से कुछ कमाई करके लौटा काली

उसके लिए "बाबू कालीदास'" है और उसकी जेब खाली होते ही वह फिर काली ही रह जाता

है। छज्जू शाह बनिया समुदाय का प्रतिनिधि चरित्र है। पं. संतराम, महाशय और पादरी

अचितराम धार्मिक समुदायों सनातनी, आर्य समाज और ईसाई धर्म के प्रतिनिधि चरित्र हैं ।

तीनों ही अपने व्यवहार में कपटी व पाखंडी हैं। पं. संतराम दलितों से छुआछूत का व्यवहार

रखता है, लेकिन दलित स्त्रियों पर उसकी लार टपकती है। महाशय या पादरी भी दलितों कें

मानवीय दुखों में कोई सहायता देने को तैयार नहीं हैं। अलबत्ता वह अवसर का लाभ उठा कर

उनका धर्म परिवर्तन जरूर करवाना चाहता है। अपने व्यवहार में ये सारे धार्मिक चरित्र अपने

खोखलेपन को प्रकट करते हैं।

डॉ. बिशनदास व उसका साथी टहल सिंह कम्युनिस्टों के व्यंग्य चित्र हैं।  गाँव वाले उसे बहुत बड़ा "चाटू' समझते हैं और बहुत बार वह अपनी बोलने की आदत

के कारण झिड़कियाँ भी खाता है। चौधरी-दलित संघर्ष के समय उसका व पड़ोसी गाँव के

मध्यवर्गीय जाट कामरेड टहल सिंह का व्यंग्यचित्र खूब उभर कर सामने आता है। ये दोनों

किताबी कामरेड स्तालिन, ट्राट्स्की लाईन पर बहसे करते हैं। दलित खेत मज़दूरों की हड़ताल

में मजदूर इन्कलाब शुरू होने के सपने देखने लगते हैं। रात में काली व कुछ और दलितों

को बुला कर मीटिंगे करते हैं व उन्हें इन्कलाब के भाषण पिलाने लगते हैं। दलितों के संघर्ष जारी रखने की जो बुनियादी शर्त है कि उन्हें अ्नाज इकटठा करके दिया जाए ताकि वे

चौधरियों का मुकाबला जारी रख सकें, इसे वे "रिफार्मिस्ट अप्रोच" बता कर उन्हें फाकेकशी

करते हुए अर्थात उन्हें "सुधारवादी दृष्टिकोण" कहकर "इन्कलाबी जजबा" मजबूत करने की हवाई बाते कहते हैं। उनके लिए अनाज

इकट्ठा न करके वे गाँव में जलसे करने के ऐलान करने लगते हैं, जिनके होने से पहले ही

दोनों पक्ष बिना हार-जीत के फैसला करके कामरेडों के "मजदूर तबके के ज़ेहन साफ

करने" और उन्हें "आईडिलाजीकली" पुख्ता करने की योजना ठस्स कर देते हैं। 

वास्तव में डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह दोनों ही सुविधाभोगी मध्यवर्गीय चरित्र हैं,

इसलिए उन्हें कम्युनिजम का किताबी शौक है, जिंदगी के संघर्षों से उनका कोई वास्ता नहीं

है, इसलिए उनका समूचा व्यवहार उनके वर्गीय चरित्र को ही प्रस्तुत करता है। जाति संघर्ष के

बुनियादी आधार को वर्ग संघर्ष की वैचारिक सोच के अनुसार 

समस्याओं का समाधान ढूंढने और संघर्ष के व्यावहारिक स्वरूप में फर्क आ जाता है।

कम्युनिस्ट दलितों के शोषण को आर्थिक शोषण मानते हैं। जाति विभाजन के कारण मानव

निर्मित व्यवस्था में दलितों की निम्न स्थिति का मूल आधार वर्ण व जाति व्यवस्था है और उसे

जन्म से माना गया है। विभाजन व बंटवारा भी जाति की श्रेष्ठता व   नीचता के आधार पर

किया गया है। निम्न मानी गई जातियों के लिए श्रम से जुड़े और आय की दृष्टि से निम्नतर

व्यवसाय ही सौप दिए गए है। जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन नहीं

हो रहा। जब भी परिवर्तन के लिए कोई व्यक्तिगत या सामुहिक प्रयास दलित जातियों द्वारा

किया जाता है, तब दमन की प्रक्रिया अधिक तीव्र हो जाती है। सामाजिक बहिष्कार जैसी

अमानवीय आदिम व्यर्थ की पंरपराओं के द्वारा दलितों को आर्थिक दृष्टि से दयनीय अवस्था

तक पहुँचाकर, जातिय भेदभाव के कारण अपमानित करके उनके मनोबल को तोड़ दिया जाता

है। स्थितियों से समझौता करने के अलावा कोई दूसरा पर्याय न देखकर दलित अपना संघर्ष

भूलकर फिर से अधीनता की स्थिति में पहुँचा दिए जाते। दलितों का अस्तित्व के लिए संघर्ष,

जाति संघर्ष है। आर्थिक संघर्ष जाति संघर्ष का ही अभिन्न अंग है। दलितों का आर्थिक व

सामाजिक शोषण उनकी निम्न जाति के कारण है, जो कि जन्म के आधार पर तय है। काली

की आर्थिक स्थिति में हुए परिवर्तन से उसकी सामाजिक स्थिति नहीं बदली है। इस बदलाव

को चौधरियों ने स्वीकार नहीं किया। क्योंकि आर्थिक स्थिति बदलने से भी उसकी दलित

पहचान को, उसके चमार होने को किसी ने भी नहीं भूलाया यही जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष

का बुनियादी फर्क है।


गाँव में दाखिल होते ही काली के नाक को गाँव की विशिष्ट गंध की पहचान मिलती है, भले

ही वह छह वर्ष बाद ही गाँव लौटा है।

इस अंचल विशेष की संस्कृति के अनुरूप काली की चाची प्रतापी उसे बिना तेल छुए 

घर में दाखिल नहीं होने देती, भले ही उसकी शीशी में मुश्किल से तेल की एक बूंद ही

निकले।  पंजाबी लोग स्वभाव में प्रायः भावुक, संबंधों में सुरीले

होते हैं, इसलिए अपने संबंधों की चर्चा वे ऊँचे सुरों में करते हैं। वैसे तो प्रायः उनका प्रत्येक

व्यवहार ऊँचे सुर वाला होता है। यही स्थिति 'घोड़ेवाहा" गाँव के दलितों के संबंध में सच है

और अन्य समुंदायों संबंधी भी। घोड़ेवाहा गाँव के दलित समाज पर भारतीय समाज के उच्च

वर्णों के सांस्कृतिक मूल्य' वर्चस्व बनाए हुए हैं,  यह सही है कि किसी धर्म विशेष के प्रति चमादड़ी का आग्रह नजर नहीं आता,

विशेष धार्मिक रस्मों में पड़े हुए भी नजर नहीं आते, लेकिन जीवन में कुछ निर्णायक क्षणों में

वे उच्च वर्ग की रूढ्धियों से परिचालित हो जाते हैं। इससे उनके दिमागी पिछेडपन व उच्च

वर्णों द्वारा अपने जाल में फंसाए रखने की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। काली की चाची की

बीमारी के समय, जब काली कानपुर में छह वर्ष रह कर लौटने पर भी इतना तर्कशील व

समझदार नहीं बन पाता है कि वह ओझा के जाल से बच जाता और चाची का इलाज डाक्टर

से जारी रखता। वह झाड़-फूक के चक्कर में पड़ कर चाची के प्राण भी गँवाता है, अपना चैन

भी व चाची के दिए गहने और अपने रुपए आदि भी।

इस गाँव में स्कूल भी है, लेकिन वहाँ दलित बच्चों को पढने की इजाजत नहीं है। शिक्षा का

यह अभाव भी उनहें सांस्कृतिक रूप से पिछ्डेपन में जकड़े रखता है। उनकी संस्कृति का

सर्वाधिक दमनकारी रूप उभर कर सामने आता है - काली और ज्ञानो के प्रेम के प्रति दलित

समाज की प्रतिक्रिया में। गाँव में एक भी ऐसा उदारमन व्यक्ति नजर नहीं आता (दलित - गैर

दलित दोनों में ही), जो उनके प्रेम का प्रशंसक हो। मिस्त्री संता सिंह काली को ज्ञानो का

यौवन लूटने के लिए ही उकसात है, उनके सच्चे प्रेम का वह प्रशंसक नहीं है। 

मेरा गांव कहानी चमार और ठाकुर

 मेरा गांव कहानी चमार और ठाकुर

प्यारे साथियों नमस्कार 

साथियों आज की इस कहानी में हमने मेरा गांव की एक छोटी सी कहानी को शामिल किया है जिसमें चमारों के चलते ठाकुरों का जीना मुस्किल हो जाता है गांव का श्याम बिहारी सिंह ठाकुर कहता है कि बेटा मुझे यहां से दिल्ली ले चलो ताकि में चपरासी या चौकीदारी या कोई छोटा मोटा काम करके गुजर बसर कर सकूं चमारों के चलते हमारा जीना मुश्किल हो गया है। ’

मैने पूछा वे लोग 


“खेत से फसल काट ले जा रहे हैं क्य़ा?”


‘नहीं अभी इतनी औकात नहीं हुई है। ’


“तो फिर राह चलते गाली-गलौच करते होंगे?”


‘इतना भी नहीं बढ़ गये हैं अभी’


“तो क्या बहू-बेटियां को छेड़ने लगे हैं?”

नहीं अभी तक तो ऐसा कुछ भी नही हुआ 

तो फिर 

मेरा गांव लगभग ढाई सौ साल पहले बसा होगा, लेकिन हमारे बचपन तक हमारे गांव की आर्थिक-सामाजिक संरचना लगभग वैसी ही थी जैसी हजारों साल पहले रही होगी। हल-बैल से खेती होती थी, कुएं तथा तालाब से क्रमशः चर्खी तथा बेड़ी से सिंचाई। कुछ इलाकों में शारदा सहायक नहरों तथा उनकी शाखाओं एवं कुछ गांवों में सरकारी नलकूपों के चलते खेती अपेक्षाकृत उन्नतशील थी। उत्पादन के तमाम पारंपरिक उपकरणों की ही तरह चर्खी-बेड़ी भी विलुप्त हो चुके हैं और उनकी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। ज्यादातर खेत एक-फसली थे। रबी की फसल के खेत चौमस यानि ( वर्षा के बाद चार महीने तक जोता जाने वाले खेत) रखे जाते थे, जिनकी बरसात के बाद से ही जुताई शुरू हो जाती थी। कुआर-कार्तिक में जुते हुए खेतों में, मुलायम मिट्टी में, सूर्यास्त के बाद लड़के झाबर खेलते थे, इसे बदी भी कहा जाता था। धान के खेतों में ऊंची मेड़ों से बरसात का पानी रोका जाता था तथा उन्हें गड़ही अर्थात एक छोटे से झील नुमा गड्ढे को कहा जाता था। गड़ही का संचित पानी इतना निर्मल होता था कि हम लोग पी भी लेते थे। धान की खेती पूरी तरह बरसात पर निर्भर थी। 1960 के दशक के मध्य में 2-3 साल के सूखे से तबाही आ गयी थी। 1960 के दशक के अंत तक सिंचाई के साधन के रूप में बैलों से चलने वाली रहट (पर्सियन व्हील) का चलन शुरू हुआ। रहट और रासायनिक खाद से एक तरह की क्रांति सी आ गयी। लगभग सभी खेत दो फसली हो गये। यहां चर्खी से, रहट से, नलकूप तक की सिंचाई के साधन की तथा हल से ट्रैक्टर तक जुताई के साधन की यात्रा के दौरान उत्पादन विधियों में विकास तथा उत्पादन संबंधों में बदलाव की विस्तृत चर्चा की भी गुंजाइश नहीं है। वह अलग चर्चा का विषय है। यहां मकसद एक व्यक्तिगत अनुभव के संदर्भ के लिए गांव का आर्थिक-सामाजिक संरचना का जिक्र करना है।



गांव में बिल्कुल सामंजस्य था। कभी कोई जातीय-सांप्रदायिक तनाव नहीं होता था क्योंकि आर्थिक-सामाजिक वर्चस्व की यथास्थिति भगवान की मर्जी मान ली गयी थी। अब ब्रह्मा की करनी पर किसी का क्या जोर? अर्थव्यवस्था के सेवा और शिल्प क्षेत्र में भी जजमानी प्रथा थी, फौरी मजदूरी की नहीं। पेशा आधारित जातियों के नाच-गाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम और उत्सव अलग-अलग थे, लेकिन सत्यनारायण की कथा और राम चरितमानस के राम में सबकी अटूट आस्था थी। रामायण पाठ में “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी” वाली चौपाई भी दुहराई जाती थी। मार्क्स ने ठीक ही कहा है कि विकास के विशिष्ट चरण के अनुरूप ही सामाजिक चेतना का स्तर होता है। पुरोहित लोगों की जजमानी चमरौटी में भी थी, लेकिन सत्यनारायण की कथा वे उन्हें काली माई या करिया देव (गांव के स्थानीय देवी-देवता, काली माई किसी नीम के पेड़ में निवास करती हैं, करिया देव पीपल के स्थान पर सुनाते थे। गांव की शैक्षणिक विकास की हालत यह थी कि मैं विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला गांव का पहला लड़का था और मेरा सहपाठी भगवती धोबी हाई स्कूल करने वाला अनुसूचित जाति का पहला लड़का।

हर जाति के लोग दो परस्पर विरोधी ठाकुर के इर्द-गिर्द दो “पार्टियों” में बंटे थे। लोग बताते हैं कि 1952 में ग्राम पंचायत के चुनाव के पहले गांव में पार्टीबंदी नहीं थी। आरक्षण प्रावधानों के लागू होने के पूर्व अदल-बदल कर ग्राम प्रधान इन्हीं दोनों परिवारों से होते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दलितों में अस्मिता आधारित चेतना के विकास में शिक्षा के प्रसार के अलावा बहुजन समाज पार्टी की आक्रामक चुनावी राजनीति की भी पर्याप्त भूमिका रही है। मैं जब बच्चा था तो आश्चर्य करता था कि उम्रदराज दलित भी बाकी जातियों, खासकर ब्राह्मण-ठाकुरों के लड़कों के भी हाथों अवमानना क्यों निर्विरोध बर्दास्त करते थे जब कि उनकी संख्या में सारे सवर्णों और यादव-पासियों की सम्मिलित संख्या से काफी अधिक थी और शारीरिक श्रम के चलते बल भी अधिक होगा? तब तक मैं मार्क्स की युगचेतना और सामाजिक चेतना की विवेचना तथा ग्राम्सी के वर्चस्व के सिंद्धांतों से अपरिचित था। मार्क्स ने थीसिस ऑन फॉयरबाक में लिखा है कि चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई भौतिक परिस्थियों की है। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, सचेत मानव का प्रयास उन्हें बदलता है। पिछले 25 सालों में गांव के दलितों में शिक्षा के प्रति गजब की जागरूकता आई है। गांव की राजनीति में संख्या तथा शिक्षा के चलते उनका असर बढ़ा है। अब उन्होंने वाजिब, नगद मजदूरी मांगना-लेना तथा जाति-आधारित धौंस तथा अवमानना का प्रतिकार शुरू कर दिया है। बहुत से लड़के-लड़कियां पढ़-लिखकर अच्छी नौकरियों में हैं। छोटी सी कहानी की इतनी लंबी भूमिका हो गई। कहानी यह है 


1997-98 की बात होगी। भाजपा के समर्थन से मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। यह इसलिए याद है कि इस घटना के कुछ दिन पहले, पिछड़ी जातियों के “दमनचक्र” के विरुद्ध “नैसर्गिक ब्राह्मण-दलित एकता के नये सिद्धांतकार, जेयनयू के सहपाठी, चंद्रभान प्रसाद से उनके सिद्धांत पर गर्मागर्म बहस हुई थी। गांव के सामाजिक-आर्थिक समाजशास्त्र के इतिहास की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। मैं गर्मी की छुट्टी में गांव गया था। गांव में घुसते ही मेरे पिताजी की पीढ़ी के श्यामविहारी सिंह का घर पड़ता है। दुआ-सलाम के बाद उन्होंने मुझसे दिल्ली में चौकीदार-चपरासी की किसी नौकरी की जुगाड़ का आग्रह किया, क्योंकि गांव में चमारों की वजह से उनका जीना दूभर हो गया है। :


‘बेटा मुझे भी दिल्ली ले चलो कोई चपरासी-चौकीदार की नौकरी दिला दो, यहां चमारों के चलते जीना मुश्किल हो गया है। ’

मैने पूछा वे लोग 


“खेत से फसल काट ले जा रहे हैं क्य़ा?”


‘नहीं अभी इतनी औकात नहीं हुई है। ’


“तो फिर राह चलते गाली-गलौच करते होंगे?”


‘इतना भी नहीं बढ़ गये हैं अभी’


“तो क्या बहू-बेटियां छेड़ने लगे हैं?”


बहू-बेटी का नाम सुनते ही नाक का मामला आ गया और कुपित हो खानदान की नाक डुबोने, संस्कारच्युत होने की लताड़ लगाने के साथ दुनिया के कम्युनिस्टों को भला-बुरा कहने लगे। मैंने कहा, “चचा न वे आपकी फसल काट रहे हैं, जब कि सालों-साल आप उन्ही की मेहनत की फसल से ऐश करते रहे, न ही आपको गाली-गलौच दे रहे हैं जबकि इतने दिनों तक बेवजह आपकी गाली-गलौच और धौंस सहते रहे। आपकी बहू-बेटियां भी नहीं ताड़ रहे हैं, जबकि खान-पान की छुआछूत छोड़े बिना आपलोग उनकी बहू-बेटियां को ताड़ना अधिकार समझते थे। किस तरह उन्होंने आप का जीना दूभर कर दिया है? उनसे बेगारी करवाने और धौंस जमाने की आदत को आपने अपना अधिकार समझ लिया था। उन्होने बेगारी करने से इंकार कर दिया है तथा धौंस का प्रतिकार, और आपका जीवन दूभर हो गया है।” इस बात-चीत के दौरान और लोग इकट्ठा हो गये और मैं एक और एक-बनाम सब बहस में फंस गया, वह भी अपने गांव में। बस इतना था कि यहां पिटने का खतरा नहीं था। लोग शोषण के अधिकार पर आघात से परेशान हैं। जरूरत ऐसे आघातों की निरंतरता की है, जबतक जातिवाद का विनाश नही हो जाता तब तक समाज में से ये गंदी मानसिकता की सोच समाप्त नहीं होगी थान्यवाद नमस्कार 

Sunday, December 3, 2023

दलितों के लिए व्यवसायिक कम्पनी डिक्की के उद्देश्य लक्ष्य कार्य योजना

दलितों के लिए व्यवसायिक कम्पनी डिक्की के उद्देश्य लक्ष्य कार्य योजना  

साथियों यह कहानी ज्ञान यानि नॉलेज से भरपूर है आपके जीवन में काम आने वाले महत्वपूर्ण तथ्य शामिल किए गए है साथियों किसी ने खूब कहा है कि अपने ही दगा देते है गैरो में कहां दम एक सफल दलित बिजनेस मैन की कहानी जिसे उसके ही भाईयो ने बार बार धोखा दिया लेकिन फिर भी वह आज एक सफल बिजनेसमैन बन गया 



साथियों इस मार्मिक एवं मोरल कहानी को आगे बताएंगे उससे पहले दलितों की विश्वस्तरीय सफल कम्पनी के बारे में थोड़ा कुछ जान लेते है साथियों दलितों की कंपनी डिक्की है डिक्की क्या है डिक्की की हकीकत क्या है डिक्की का उद्देश्य क्या है 

साथियों डिक्की का एक खूबसूरत सा नारा है यह नारा उनके लिए है जो बेरोजगार घूमते है डिक्की कहती है कि 

नौकरी ढूढ़ने वाले नहीं, बल्कि नौकरी देने वाले बनो 

डिक्की का उद्देश्य है कि भारत के मानस-पिता परम पूज्य बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के आर्थिक दर्शन का प्रचार-प्रसार करना ही डिक्की का उद्वेश्य है 

डिक्की का उद्देश्य यह सिद्ध करना कि बाबा साहेब के अनुयायी देने वाले हैं, लेने वाले नहीं।

डिक्की क्या है? 

डिक्की का यह सिद्ध करना है  कि देशभर के दलित उद्यमी जितना कर (टैक्स)सरकार को देते हैं, वह राशि सरकार द्वारा दलित कल्याण पर खर्च की जाने वाली राशि से कहीं अधिक है।

यह सिद्ध करना कि सरकार आरक्षण द्वारा दलितों को जितनी

नौकरियां देती है, उससे कहीं अधिक नौकरियां दलित उद्यमी

गैर-दलितों को देते हैं।

दलित उद्यमी भी देश की जी.डी.पी. (GDP) में प्रतिवर्ष अरबों रुपये का योगदान कर रहे हैं आदि आदि।

दलित इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्री (डिक्की) का

परिचय-डिक्की की स्थापना वर्ष 2005 में पूणे में हुई। डिक्की के संस्थापक चैयरमैन श्री मिलिन्द कांबले हैं। फोरच्यून कस्ट्रकशन कम्पनी के संस्थापक सी.ई.ओ.माननीय कांबले जी के पिता स्कूल शिक्षक हैं तथा माता गृहिणी। फोरच्यून संगठन

का संयुक्त वार्षिक टर्नओवर अस्सी करोड़ से अधिक का है।

आखिर डिक्की ही क्यों?

जातिव्यवस्था से मुक्ति के आकांक्षी दलित, समाज में सर्वांगीण नेतृत्व में हैं-राजनीतिक नेतृत्व, सामाजिक नेतृत्व, दलित अफसरों कर्मचारियों के बीच एवं नेतृत्व, धार्मिक नेतृत्व, छात्रों का नेतृत्व, दलित महिलाओं के बीच नेतृत्व। फिर,दलित उद्यमियों का संगठन एवं दलित बिजनेस नेतृत्व क्यों नहीं?

डिक्की, दलित उद्यमियों का एक राष्ट्रव्यापी संगठन है, जो दलितों

में बिजनेस लीडरशिप विकसित कर रहा है।

डिक्की, देश की आर्थिक सम्पदा में दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चत करना चाहता है।

डिक्की, दलित समाज के भीतर दलित पूंजीवाद विकसित करना

चाहता है।

डिक्की, दलित उद्यमियों को दलित समाज के भीतर एक नये रुप

में प्रस्तुत कर रहा है।

साथियों इसे भी समझ लेते है उसके बाद एक सफल और शानदार मोरल मार्मिक कहानी सुनेंगे 

साथियों देश में भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कथित अछूत वर्ग को सामाजिक

और आर्थिक क्षेत्र से वंचित रखा गया, इसीलिए वह आजादी के 67 साल बाद भी विधायिका एवं प्रशासनिक सेवाओं में आरक्षण के बावजूद वह बराबरी और खुशहाली की दहलीज पर ही खड़ा है, जबकि उद्यमिता, श्रमशीलता, कर्मठता

तथा बौद्धिकता में किसी से कहीं भी कम नहीं है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, उप-प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, मुख्यमंत्री, संघ लोक सेवा आयोग, विश्वविद्यालय

अनुदान आयोग के चेयरमैन तथा भारतीय  बखूबी निभाकर इस वर्ग के लोग अपनी योग्यता का लोहा मनवा चुके हैं। वैसे तो शक की सुई इनकी तरफ बराबर रही, इन्हें इन पदों के लिए अयोग्य की समझा जाता रहा, लेकिन इस वर्ग के लोगों को जब भी अवसर मिले, इन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया और

दूसरों की अपेक्षा बेहतर परिणाम दिए हैं।

चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो या शिक्षा का अथवा इंजीनियरिंग का, सभी व्यवसायों में ये सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। जहां तक उद्यमिता की बात है,इस क्षेत्र में भी दलित समाज का पहले से ही दखल रहा है। आगरा और कानपुर के प्रतिष्ठित कारोबारियों के उदाहरण सामने हैं, जिन्होंने ब्रिटिश काल में कारोबार

किया है, पंजाब के सेठ किशनदास का कारोबार पश्चिम बंगाल के कलकत्ता तक रहा है, जालंधर की बूटा मंडी विश्व प्रसिद्ध थी हालांकि कथित अछूत समाज का कारोबार चमड़े और चमड़े से बनी वस्तुओं तक ही सीमित था। इस सवाल का सीधा जवाब यही है कि आजादी से पहले जाति से संबंधित कारोबार

ही किया जा सकता था, जैसे - बढुई- लकड़ी का, लुहार-लोहे का, तेली - तेल का और जुलाहा-कपड़े के कारोबार से जुड़ा रहा। इसी प्रकार दक्षिण भारत में ब्रिटिश कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी से डॉ. अम्बेडकर के समकालीन और उनके सहयोगी एन. शिवराज के पिता जी का कारोबार सिंगापुर तक फैला परंतु पहले मीडिया संबंधी सुविधा न होने के कारण अछूत समाज के विश्व स्तर के

कारोबारी प्रचार नहीं पा सके।

लेकिन बदलते विश्व परिवेश में दलित उद्यमी इस क्षेत्र में नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर हैं और वे जाति आधारित कारोबार के मिथक को तोड़कर हर हुनरपरस्ती और बौद्धिकता का लौहा मनवा रहे हैं। शीर्ष उद्यमियों में मिलिंद कांबले तथा कल्पना सरोज के नाम उल्लेखनीय हैं, जो दलितों के लिए ही नहीं,दूसरों के लिए भी रोल मॉडल हैं। टाटा जैसे स्थापित उद्यमी उन्हें अपना भागीदार

बनाने के लिए उत्सुक हैं और भारत सरकार उद्यमिता के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें ' पदमश्री' से अलंकृत कर चुकी है। सर्वनाम धन्य मिलिंद कांबले अपने प्रयासों से डिक्की (दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) में हजारों दलितों को सहभागी बनाकर डॉ. अम्बेडकर का सपना- दलित

बने धनवान' साकार करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

साथियों इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आइए एक हकीकत कहानी को सुनते है 


विश्वास के साथ मैं अपना व्यवसाय कर रहा था। किसी भी व्यवसाय में

विनम्रता और मीठे बोलों की जरूरत होती है। मैंने इस बात का स्मरण रखा। मेरा

व्यवसाय अच्छी तरह चलने लगा। युवा वर्ग के लोग ज्यादा-से-ज्यादा तादाद में

मेरे पान ठेले पर आते थे। अब पान के साथ- साथ मैंने चाय का स्टॉल भी शुरू

किया। इस स्टॉल का नाम प्रकाश टी स्टॉल था। मुझे दोगुणा मुनाफा मिलने लगा।

सुबह सात बजे मैं दुकान खोला करता था। दुकान खुलने का तो एक निश्चत

समय था, मगर दुकान बंद होने का कोई ऐसा समय नहीं था। देर रात तक

इक्का-दुक्का ग्राहक आया करते थे और उनके लिए मैं अपनी दुकान खुली

रखता था। बहुत कष्ट होता था। थक जाता था। मगर मन में लगन थी आगे बढ़ने

की, इस लगन के कारण ही मुझे कभी थकान महसूस नहीं हुई।

जब गर्मी के दिन आए तो लोग प्यास से लहकने लगे। चाय मांगने वालों

की भीड़ कम हो गई। मैंने वक्त का तकाजा समझ लिया और रसवंती शुरू

करके गन्ने का रस बेचना शुरू किया। इस काम में मुझे मेरी मां एवं मेरे भाई

ज्ञानेश्वर और हंसराज सहायता करते थे।

अब मेरा व्यवसाय अच्छी तरह चल रहा था। कुछ पैसा बचत करना शुरू

किया। मुझे बचपन से पैसे का मोल (महत्त्व ) पता था। फिजूल पैसा खर्च करने

से मुझे नफरत थी। पैसा इकट्ठा करके मैंने एक यजदी मोटर साइकिल खरीदी

थी। पिताजी ने एक पुराना मकान खरीदा था। उसे गिराकर स्लॅम का नया सुंदर

मकान बनाया। व्यवसाय से पूंजी इकट्ठा करके बड़े और छोटे भाई की शादी

करा दी। आब हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी हुई थी। सो मैंने अपनी भी शादी

कर ली। मेरी ससुराल अमरावती जिले के अंतर्गत आने वाला बेनोडा (शहीद)

गांव में है। हम सब भाई मिलकर काम करते थे। हमारा व्यवसाय फलता-फूलता

नजर आ रहा था। हंसी-खुशी से हम अपनी जिंदगी के दिन गुजार रहे थे।

हमारी एकता को न जाने किसकी नजर लग गई और हमारे घर में गृह

कलह आरंभ हो गया। भाइयों ने धंधे पर अपना भी हक जताया। आखिर मैं दोनों

दुकानों को भाइयों को सौंपकर दूसरे धंधे की तलाश में निकल पड़ा। चार माह

तक मैंने ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में नौकरी की और अपनी उपजीविका चलाने लगा।

मगर इसमें मैं खुश नहीं था। अन्य व्यवसाय की ओर मेरी नजर लगी थी। उस

समय कमाल चौक मार्कंट में व्यवसाय के लिए चबूतरे देने का काम चल रहा

था। मैंने एक चबूतरा खरीद लिया। उस पर शेड बनाकर मैंने अनाज का व्यवसाय

शुरू किया। अब मेरे पास बहुत कम पूंजी थी। मुझे नए सिरे से ऊपर उठना था 




मैंने तीन-चार बोरी अनाज लेकर अपना व्यवसाय शुरू किया। इसमें भी मेरा

व्यवसाय बढ़ने लगा। बड़ा भाई पारस अब मेरे साथ काम करने लगा। उसके

साथ आने पर मेंने तेल का व्यवसाय भी शुरू किया। इस व्यवसाय में भी मुझे

कामयाबी मिलने लगी। अभी आगे बढ़ने के दिन थे कि फिर भाई ने धोखा दे दिया

और मुझे खाली हाथ बाहर जाना पड़ा।

जब अपने दगा देते हैं तो पराए अपने बन जाते हैं । हमारे दुकान के पड़ोस

में रोकड़े की दुकान थी। वे दुकान बेचना चाहते थे। जब उन्होंने मेरी हालत देखी

तो उन्हें तरस आया। उन्होंने बिना किसी अग्रिम या डिपोजिट के मुझे दुकान की

चाबी सौंप दी। वे मुझ पर पुत्रवत प्रेम करते थे। जब मैंने उस दुकान के माध्यम

से अनाज व्यवसाय शुरू किया, तो मुझे अल्प समय में ही कामयाबी मिली। इस

दुकान ने मेरे दिन बदल दिए। मैं अनाज की थोक और खुदरा बिक्री करता था।

यहां मैंने अपने भांजे को सहायता के लिए बुलाया था। अब तक मैंने वैशाली

नगर में एक बड़ा प्लॉट खरीद लिया था। वहां कुछ कमरे बनवाकर अपने भाई

को रखा, लेकिन भाई ने फिर बेईमानी कर मुझे अदालत में घसीटा। भांजे ने भी

गड़बड़ की और मैं पीछे के हालात में आ गया।

अब दोबारा मुझे नए सिरे से व्यवसाय करना था। इसलिए मैंने एक फाइव

व्हीलर ऑटो खरीद लिया। घर में ही दुकान बनाकर दुकान शुरू किया। 1995

में जमीन के ले -आउट गिराकर उसे बेचने का व्यवसाय शुरू किया। दो

ले-आउट बनाकर बेचने में मुझे ज्यादा समय नहीं लगा। प्रॉपटी डीलिंग के

व्यवसाय में मुझे अच्छा-खासा अनुभव प्राप्त हुआ।

इसके बाद मुनाफे की सारी पूंजी मैंने अलग-अलग व्यवसायों में इंवेस्ट

करनी शुरू की। मैंने एस. टी. डी. सेंटर शुरू किया। पार्टनरशिप में मारूति वैन

और टेम्पो ट्रंक्स गाड़ियां लेकर ट्रांस्पोर्टिंग का व्यवसाय शुरू किया। 1997 में

टाइपिंग सेंटर की नींव रखी।

मैंने 1999 में अपने व्यावसायिक जीवन में एक और बड़ा कदम रखा। मैंने

'पी. के. बिल्डर्स एंड डेवलपर्स' के नाम से रजिस्ट्रेशन करा कर अपना स्वतंत्र

व्यवसाय शुरू किया। वैशाली नगर में 15 प्लैट्स एवं दुका्ने बनाई। उसके बाद

मेरी गति बढ़ती रही। अब मेरे हाथ में बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हैं। शहर के नामी

बिल्डरों की कतार में मेरा नाम गिना जाने लगा। आज मैं अपनी सफलता से

संतुष्ट हूं। जीवन के कटु अनुभवों को मैंने भुला दिया है। और बेईमानी करने

वालों को मैंने माफ कर दिया है। शिक्षा के प्रति लगाव होने के कारण मैंने प्रकाश 

समिति का मैं पदाधिकारी था। मैंने अपनी सामर्थ्थ के अनुसार विहार बनाने में

सहायता की एवं अपनी ओर से बुद्ध मूर्ति का दान दिया। राजनीति में मैं ज्यादा

सक्रिय नहीं हूँ। मगर रिपब्लिकन एकता के लिए हमने बाबा साहेब डॉ.

अम्बेडकर एकीकरण कृति समिति की स्थापना की थी। एकीकरण के लिए

आंदोलन भी किए थे। इसमें हमें मुंबई घाटकोपर के मा. डॉ. अहिरेजी का सहयोग

मिला। रिपब्लिकन पैंथर ऑफ इंडिया का भी मैं पदाधिकारी रहा  मा. एस.

के. गजभिए और तुलसी के सहयोग से मैंने वैशाली नगर में प्लॉट खरीदा। वहीं

पर अब मेरा आलिशान बंगला बना है।

आज मेरे पास सब कुछ है। कल मैं अंधेरे में भटक रहा था। आज मेरे

जीवन में उजाला आया है। सुख, शाति और चैन की जिंदगी मैं बसर कर रहा

हूं। आज मैं लेखन, वाचन, संगीत और चित्रकला के शौक भी पूरे कर रहा हूं।

धम्मसेवा मेरे जीवन का मकसद है। तथागत एवं बाबा साहेब मेरी प्रेरणा हैं।

मैंने अपनी कहानी का बहुत संक्षेप में जिक्र किया है। आदमी दुःखभरे दिन

भूलना चाहता है। मगर मैं अपना अतीत कभी नहीं भूला। बच्चों को भी मैं बताता

हूं कि हमारे पैर हमेशा जमीन पर रहने चाहिए । मेरी कहानी, मेरा अतीत और मेरे

सुख-दुःख मैंने आपके साथ बाटे हैं। उसका भी एक मकसद है। आज हमारे

बीच भी मेरे जैसे कई लोग हैं। कई युवक हैं, जो निराशा के अंधेरे में भटक

रहे हैं। गरीबी उनका लगातार पीछा कर रही है। समस्याएं अनेक हैं। उन

समस्याओं से ठोकर खाकर उनका हौसला टूट रहा है। मैं अपनी कहानी के

माध्यम से उन्हें बताना चाहता हूं कि कठिनाइयों से डरो मत। चट्टान की तरह

मजबूत बनकर उनका सामना करो। अपना लक्षय निर्धारित करो और परी लगन,

परिश्रम, महत्त्वाकांक्षा और साहस से उस लक्ष्य को पाने का प्रयास करो।

कामयाबी जरूर तुम्हारे कदम चूमेगी 

साथियों जानकारी अच्छी लगी हो तो चैनल को भी subscribe करके जाना लाइक कमेंट भी कर देना जय भीम धन्यवाद साथियों