Wednesday, December 6, 2023

Ambedkar biography in hindi

 Ambedkar biography in hindi

6 दिसंबर 1956. इस दिन बाबा साहेब अंबेडकर का निधन हो गया था. भारत के शोषितों और कमज़ोर तबक़ों के संरक्षक डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का जाना उनके लिए बहुत बड़ा झटका था.


अपना अस्तित्व बचाने और पढ़ाई के लिए डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का संघर्ष, दलितों के उत्थान के लिए उनके प्रयास और आज़ाद भारत के संविधान के निर्माण में उनका योगदान बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है.


उनके लिए ये सफ़र बहुत मुश्किल रहा था. इस पूरे सफ़र के दौरान, बाबासाहेब कई बीमारियों से जूझते रहे थे. वो डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर, न्यूराइटिस और आर्थराइटिस जैसी लाइलाज़ बीमारियों से पीड़ित थे.


डाइबिटीज़ के चलते उनका शरीर बेहद कमज़ोर हो गया था. गठिया की बीमारी के चलते वो कई कई रातों तक बिस्तर पर दर्द से परेशान रहते थे.


जब हम बाबासाहेब आंबेडकर की ज़िंदगी के आख़िरी कुछ घंटों के बारे में बात करते हैं तो पता चलता है कि उनकी सेहत किस क़दर बिगड़ी हुई थी. 

बाबासाहेब ने 6 दिसंबर 1956 को सुबह के वक़्त सोते हुए आख़िरी सांस ली थी. इस लेख में हम, इस बात का पता लगाने की कोशिश करेंगे कि उससे एक दिन पहले यानी पांच दिसंबर 1956 को क्या हुआ था.


उसस पहले हम उस आख़िरी सार्वजनिक कार्यक्रम के बारे में समझने की कोशिश करेंगे, जिसमें अपनी मौत से पहले बाबासाहेब ने शिरकत की थी.

डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का आख़िरी सार्वजनिक कार्यक्रम राज्यसभा की कार्यवाही में शिरकत करने का था. नवंबर के आख़िरी तीन हफ़्तों के दौरान बाबासाहेब दिल्ली से बाहर थे. 12 नवंबर को वो पटना होते हुए काठमांडू के लिए रवाना हुए थे. 14 नवंबर को काठमांडू में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ था.


इस सम्मेलन का उद्घाटन नेपाल के राजा महेंद्र ने किया था. नेपाल के राजा ने बाबासाहेब से मंच पर अपने पास बैठने को कहा था. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. इसी से बौद्ध धर्म में बाबासाहेब के कद का अंदाज़ा हो जाता है. काठमांडू में अलग-अलग जगहों पर तमाम लोगों से मिलने के बाद बाबासाहेब बहुत थक गए थे.


भीमराव आंबेडकर की पत्नी सविता आंबेडकर जिन्हें माईसाहेब आंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी जीवनी 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' में इस बारे में विस्तार से लिखा है.


माईसाहेब के अनुसार, "भारत लौटते वक़्त बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म के तीर्थस्थलों का दौरा किया. वो नेपाल में महात्मा बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी गए. उन्होंने पटना में अशोक की मशहूर लाट भी देखी और बोध गया का दौरा भी किया. इस लंबे और थकाऊ दौरे के बाद, जब बाबासाहेब 30 नवंबर को दिल्ली लौटे तो वो सफ़र की थकान से निढाल हो रहे थे.


दिल्ली में संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका था. हालांकि, अपनी ख़राब सेहत के कारण बाबासाहेब इस सत्र में हिस्सा नहीं ले पा रहे थे. इसके बाद भी 4 दिसंबर को बाबासाहेब ने राज्यसभा की कार्यवाही में शामिल होने की ज़िद की. बाबासाहेब के साथ डॉक्टर मालवंकर भी थे.


उन्होंने बाबासाहेब की सेहत जांची और कहा कि अगर बाबासाहेब, संसद की कार्यवाही में शामिल होने चाहते हैं, तो उन्हें कोई एतराज़ नहीं. 4 दिसंबर को बाबासाहेब संसद गए. राज्यसभा की कार्यवाही में हिस्सा लिया और दोपहर बाद लौट आए. लंच के बाद वो सो गए. ये बाबासाहेब का संसद का आख़िरी दौरा था.

मुंबई में धर्म परिवर्तन समारोह की योजना बनाना

माईसाहेब आंबेडकर ने अपनी जीवनी में लिखा है ,'' राज्यसभा से लौटकर बाबासाहेब ने कुछ देर आराम किया. दोपहर बाद सविता आंबेडकर (माई साहेब) ने उन्हें जगाया और कॉफी पिलाई.


26, अलीपुर रोड के बंगले के लॉन में बैठकर बाबासाहेब और माईसाहेब ने कुछ बातें कीं. उसी वक़्त नानकचंद रत्तू आ वहां आ गए.


16 दिसंबर 1956 को मुंबई (उस वक़्त बंबई) में धर्म परिवर्तन के एक समारोह का आयोजन होना था. मुंबई के नेता चाहते थे कि बाबासाहेब मुंबई में भी नागपुर जैसा ही धर्म परिवर्तन कार्यक्रम आयोजित करें. इस कार्यक्रम में बाबासाहेब और माईसाहेब, दोनों को शामिल होना था.

नानकचंद रत्तू कौन थे?

नानकचंद रत्तू, पंजाब के होशियारपुर ज़िले के रहने वाले थे. वो काम की तलाश में दिल्ली आए थे और यहां वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर से मिले. बाद में वो हमेशा बाबासाहेब के साये की तरह उनके साथ रहे.


1940 में नानकचंद ने बाबासाहेब के सचिव के तौर पर काम करना शुरू किया. बाबासाहेब की ज़िंदगी के आख़िरी दिन यानी 6 दिसंबर 1956 तक नानकचंद उनके सचिव रहे थे. नानकचंद ने बाबासाहेब के लेखों को टाइप करने में भी मदद की थी. बाद में नानकचंद ने बाबासाहेब की याद में दो किताबें भी लिखी थीं.


नानकचंद रत्तू का जन्म 6 फरवरी 1922 को हुआ था. 5 सितंबर 2002 को अस्सी बरस की उम्र में उनका निधन हो गया था.


बाबासाहेब ने रत्तू से 14 दिसंबर को मुंबई जाने के टिकट के बारे में पूछा, ताकि वो मुंबई में होने वाले धर्म परिवर्तन के समारोह में शामिल हो सकें.


माईसाहेब की 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' जीवनी के अनुसार, बाबासाहेब की ख़राब सेहत को देखते हुए, उन्हें हवाई जहाज़ से मुंबई जाने की सलाह दी गई. उसके बाद बाबासाहेब ने नानकचंद रत्तू से कहा कि वो विमान से उनके मुंबई जाने की व्यवस्था करें.


"उसके बाद बाबासाहेब, काफ़ी देर तक नानकचंद रत्तू को बोलकर कुछ लिखवाते रहे. बाद में रात के क़रीब साढ़े ग्यारह बजे बाबासाहेब सोने चले गए और चूंकि रात बहुत हो चुकी थी, तो नानकचंद रत्तू भी उनके बंगले में ही सो गए."



बाबासाहेब की ज़िंदगी के आख़िरी 24 घंटे

माईसाहेब आखिरी वक्त तक बाबासाहेब के साथ ही थीं. उन्होंने अपनी जीवनी में उनके इस आखिरी वक्त के बारे बहुत ही विस्तार से लिखा है.


निधन से एक दिन पहले यानी 5 दिसंबर को बाबासाहेब सुबह 8.30 बजे सोकर उठ गए थे. माईसाहब चाय की ट्रे लेकर उनके कमरे में गईं और उन्हें जगाया. दोनों ने साथ ही चाय पी. इसी बीच नानकचंद रत्तू जो दफ़्तर जाने वाले थे, उनके पास आए. नानकचंद ने भी चाय पी और वो चले गए.


माईसाहेब ने बाबासाहेब को सुबह के रोज़मर्रा के काम निपटाने में मदद की. उसके बाद वो उन्हें नाश्ते की टेबल पर ले आईं. उसके बाद तीनों लोगों यानी, बाबासाहेब, माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर ने साथ में नाश्ता किया और बंगले के बरामदे में बैठकर कुछ बातें कीं.


बाबासाहेब ने अख़बार पढ़े. उसके बाद माईसाहब ने उन्हें दवाएं और इंजेक्शन दिए और फिर काम निपटाने रसोई में चली गईं. बाबासाहेब और डॉक्टर मालवनकर बरामदे में बैठकर बातें करते रहे.

डॉक्टर मालवनकर कौन थे?

डॉक्टर माधव मालवनकर, मुंबई के एक मशहूर डॉक्टर थे. उनका क्लीनिक गिरगांव में था. वो फ़िज़ियोथेरेपी के माहिर डॉक्टर थे. डॉक्टर मालवनकर पूरी मुंबई में एक प्रतिष्ठित और विशेषज्ञ फ़िज़ियोथेरेपिस्ट के तौर पर मशहूर थे. वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के डॉक्टर और दोस्त थे.


अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद माईसाहेब, डॉक्टर मालवनकर की सहायक और जूनियर डॉक्टर बन गई थीं. वहीं उनकी मुलाक़ात बाबासाहेब से हुई थी. पांच दिसंबर 1956 के दिन क़रीब साढ़े बारह बजे माईसाहेब ने बाबासाहेब को लंच करने के लिए बुलाया. उस वक़्त बाबासाहेब लाइब्रेरी में बैठकर पढ़-लिख रहे थे. वो उस वक़्त अपनी किताब 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना लिख रहे थे.


माईसाहेब के अनुसार, बाबासाहेब को दोपहर का खाना खिलाया गया. खाना खाने के बाद बाबासाहेब सोने चले गए.


दिल्ली में माईसाहेब अपने घर की ख़रीदारी ख़ुद करती थीं. बाबासाहेब के सोने के बाद वो खाने-पीने का सामान और किताबें लाने बाज़ार चली गईं. माईसाहेब ख़रीदारी करने के लिए उसी समय जाती थीं, जब बाबासाहेब या तो संसद चले जाते थे या फिर सो रहे होते थे.


पांच दिसंबर को भी जब बाबासाहेब लंच लेकर सोने चले गए, तो माईसाहेब ख़रीदारी के लिए बाज़ार चली गईं. डॉक्टर मालवनकर, पांच दिसंबर की रात को ही विमान से मुंबई जा रहे थे. वो भी मुंबई जाने से पहले अपने लिए कुछ सामान ख़रीदना चाह रहे थे. तो डॉक्टर मालवनकर भी माईसाहेब के साथ ख़रीदारी के लिए बाज़ार चले गए.


चूंकि बाबासाहेब सो रहे थे, तो वो बिना बताए ही बाज़ार चले गए, जिससे उनकी नींद में ख़लल न पड़े. माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर, दोपहर को क़रीब ढाई बजे बाज़ार गए थे और वो दोनों शाम लगभग साढ़े पांच बजे बाज़ार से घर लौटे. उस वक़्त बाबासाहेब बेहद ग़ुस्से में थे.

बाबासाहेब का गुस्सा

माईसाहेब ने इस बात का ज़िक्र अपनी किताब, 'डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात' में किया है. उन्होंने लिखा है, "बाबासाहेब का ग़ुस्सा होना कोई नई बात नहीं थी. अगर उनकी कोई किताब अपनी जगह पर नहीं मिलती थी, या क़लम कहीं और होता था, तो बाबासाहेब ग़ुस्से से भड़क उठते थे. अगर उनकी इच्छा के बग़ैर कोई छोटा सा काम भी हुआ, या उम्मीद के मुताबिक़ न हआ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता था."


इसमें आगे लिखा गया है, "बाबासाहेब का ग़ुस्सा तूफ़ान की तरह था. लेकिन, वो बस वक़्ती तौर पर नाराज़ होते थे. जो किताब, नोटबुक या काग़ज़ वो तलाश रहे होते थे, वो मिल जाता था, तो अगले ही पल उनकी नाराज़गी काफ़ूर हो जाती थी."


बाज़ार से लौटकर माईसाहेब सीधे बाबासाहेब के कमरे में गईं. बाबासाहेब ने कहा कि वो इंतज़ार कर रहे थे. उनका ग़ुस्सा शांत करने के बाद माईसाहेब, बाबासाहेब के लिए कॉफी बनाने सीधे रसोई में चली गईं.


रात आठ बजे जैन पुजारियों का एक प्रतिनिधिमंडल और उनके प्रतिनिधियों को बाबासाहेब से मिलने आना था. बंगले के लिविंग रूम में बाबासाहेब और उस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के बीच बौद्ध और जैन धर्म को लेकर बातचीत हुई.


डॉक्टर आंबेडकर के साथी रहे चांगदेव खैरमोडे ने उन पर 12 खंडों में किताब लिखी. किताब के 12वें भाग में उन्होंने इस घटना के बारें में लिखा है, उस प्रतिनिधिमंडल ने ये इच्छा जताई कि बाबासाहेब को 6 दिसंबर को होने वाले जैन सम्मेलन में आना चाहिए.


प्रतिनिधिमंडल ने अपील की कि बाबासाहेब वहां आकर जैन धर्म के भिक्षुओं के साथ बहस मुबाहिसा करें, ताकि जैन और बौद्ध धर्म के बीच एकता क़ायम हो सके.

जंगल की आग की तरह फैली निधन की खबर

बाबासाहेब के निधन की ख़बर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. उनके देहांत की ख़बर सुनकर देश भर में उनके समर्थकों सदमे में आ गए.


हज़ारों लोग एक साथ दिल्ली के 26 अलीपुर रोड बंगले की ओर रवाना हो गए. चंगदेव खैरमोड़े अपनी आत्मकथा में लिखते हैं 'माईसाहेब ज़िद कर रही थीं कि बाबासाहेब का अंतिम संस्कार सारनाथ में किया जाए.' हालांकि, अपनी आत्मकथा में माईसाहेब ने लिखा है कि 'उन्होंने बाबासाहेब का अंतिम संस्कार मुंबई में करने के लिए कहा था.'


लेकिन, बाद में यही तय हुआ कि बाबासाहेब का अंतिम संस्कार मुंबई में किया जाए. इसके बाद 26 अलीपुर रोड के बंगले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और केंद्र सरकार के और मंत्री, संसद के दोनों सदनों के सांसद और बाबासाहेब के अनुयायी जमा होने लगे.


बाबासाहेब के पार्थिव शरीर को मुंबई ले जाने के लिए जगजीवन राम ने एक विमान की व्यवस्था की और उसके बाद बाबासाहेब का पार्थिव शरीर नागपुर होते हुए मुंबई ले जाया गया. फिर मुंबई, बाबासाहेब के अभूतपूर्व अंतिम संस्कार की गवाह बनी.


बुद्धम शरणम् गच्छामि' का पाठ

जब बाबासाहेब जैन धर्म के नुमाइंदों के साथ बातचीत में मशगूल थे, तो डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो गए. जैसा कि माईसाहेब ने अपनी किताब में लिखा है कि डॉक्टर मालवनकर ने मुंबई जाने के लिए बाबासाहेब से इजाज़त ले ली थी और वो हवाई अड्डे रवाना हो गए.


हालांकि चंगदेव खैरमोड़े ने बाबासाहेब की जीवनी में लिखा है, 'जब डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो रहे थे, तो उन्होंने बाबासाहेब से एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा.' बाद में जैन धर्म के प्रतिनिधिमंडल ने भी बाबासाहेब से इजाज़त लेकर विदा ली. बाबासाहेब ने उनसे कहा कि 'अगले रोज़ (6 दिसंबर के लिए) मेरे सचिव से शाम का वक़्त ले लेना. फिर हम बात करेंगे.'


उसके बाद बाबासाहेब ने मन में ही 'बुद्धम शरणम् गच्छामि' का पाठ करना शुरू कर दिया. माईसाहेब लिखती हैं कि जब भी बाबासाहेब बेहद अच्छे मूड में हुआ करते थे, तो वो बुद्ध वंदना और कबीर के दोहे पढ़ा करते थे. कुछ देर के बाद जब माईसाहेब ने ड्रॉइंग रूम में झांका, तो देखा कि बाबासाहेब, नानकचंद रत्तू को रेडियोग्राम पर बुद्ध वंदना का रिकॉर्ड बजाने को कह रहे थे.


उसके बाद रात के खाने के वक़्त, बाबासाहेब ने थोड़ा सा खाना खाया. उनके खाने के बाद माईसाहेब ने खाना खाया. बाबासाहेब, माईसाहेब के खाना ख़त्म करने का इंतज़ार करते रहे. उसके बाद उन्होंने कबीर का दोहा, 'चलो कबीर तेरा भवसागर डेरा' बड़े सुर में गाया. बाद में छड़ी का सहारा लेकर वो बेडरूम की तरफ़ चल पड़े. उनके हाथ में कुछ किताबें भी थीं.


बेडरूम की तरफ़ बढ़ते हुए ही, बाबासाहेब ने अपनी किताब 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना की एक कॉपी और एस. एम. जोशी और आचार्य अत्रे के नाम लिखी चिट्ठियां भी सौंपीं और नानकचंद से कहा कि वो ये सब उनकी मेज़ पर रख दें. अपना काम ख़त्म करने के बाद नानकचंद रत्तू भी अपने घर चले गए. माईसाहेब अपना काम निपटाने रसोईघर में चली गईं.



और फिर बाबासाहेब का महापरिनिर्वाण हो गया

जैसा कि माईसाहब ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बाबासाहेब को देर रात तक लिखने-पढ़ने की आदत थी. अगर वो रम जाते, तो सारी-सारी रात पढ़ते-लिखते रहा करते थे. लेकिन माईसाहेब अपनी जीवनी में लिखती हैं कि पांच दिसंबर की रात, नानकचंद रत्तू के अपने घर रवाना होने के बाद, बाबासाहेब ने 'द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा' की प्रस्तावना में फिर से बदलाव किया.


इसके बाद उन्होंने एस. एम. जोशी और आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे के अलावा ब्राह्मी सरकार के नाम लिखी अपनी चिट्ठियों पर भी फिर एक नज़र डाली. उसके बाद वो रोज़मर्रा के उलट साढ़े ग्यारह बजे ही सोने चले गए.


उस रात के बारे में बहुत जज़्बाती होते हुए माईसाहेब ने लिखा है कि पांच दिसंबर की रात, बाबासाहेब की ज़िंदगी की आख़िरी रात साबित हुई. 6 दिसंबर की सुबह, जिसकी शुरुआत 'सूर्यास्त' से हुई थी


छह दिसंबर 1956 को माईसाहेब रोज़ की तरह सुबह उठीं. चाय बनाने के बाद, वो ट्रे लेकर बाबासाहेब को जगाने उनके कमरे में गईं, उस वक़्त सुबह के साढ़े सात बज रहे थे. माईसाहेब लिखती हैं, '' मैं जैसे ही कमरे में दाख़िल हुई, मैंने देखा कि बाबासाहेब का एक पैर तकिए पर पड़ा था. मैंने बाबासाहेब को दो या तीन बार आवाज़ दी. लेकिन उनके बदन में कोई हरकत नहीं हुई. मैंने सोचा कि वो गहरी नींद में सो रहे हैं तो मैंने उन्हें हिलाया और उन्हें जगाने की कोशिश की और...'


सोते हुए ही बाबासाहेब के प्राण पखेरू उड़ चुके थे. माईसाहेब को ज़बरदस्त धक्का लगा. वो रोने लगीं. उस वक़्त बंगले में केवल दो लोग थे. माईसाहेब और उनके सहायक सुदामा. माईसाहब ने रोते-रोते ही सुदामा को आवाज़ दी.

इसके बाद माईसाहेब ने डॉक्टर मालवनकर को फोन किया और पूछा कि अब क्या किया जाना चाहिए. डॉक्टर मालवनकर ने उन्हें बताया कि वो बाबासाहेब को 'कोरामाइन' का इंजेक्शन दें. लेकिन, तब तक बाबासाहब का देहांत हुए कई घंटे गुज़र चुके थे. इसलिए, वो इंजेक्शन भी नहीं दिया जा सकता था. माईसाहेब ने सुदामा से कहा कि वो जाकर नानकचंद रत्तू को बुला लाए.


सुदामा कार लेकर गए और नानकचंद रत्तू को उनके घर से बुला लाए. उसके बाद लोगों ने बाबासाहेब के बदन की मालिश करनी शुरू कर दी. किसी ने मुंह से सांस देने की कोशिश की. लेकिन, कोई तरकीब काम नहीं आई. बाबासाहेब ये दुनिया छोड़कर जा चुके थे.


नानकचंद रत्तू ने बाबासाहेब के क़रीबी अहम लोगों को फ़ोन करके बाबासाहेब के निधन की जानकारी दी. फिर नानकचंद रत्तू ने सरकार के विभागों, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, यूएनआई और आकाशवाणी के केंद्र को भी फोन करके बाबासाहेब के निधन की सूचना दी.

 साथियों आज की इस कड़ी में हमने बाबा साहेब अंबेडकर जी के जीवन पर आधारित कुछ खास घटनाओं को सामिल करने का प्रयास किया है जो बाबा साहेब अंबेडकर जी के जीवन और उनकी छोटी बड़ी घटनाओं को याद दिलाने का काम करेगी साथियों से निवेदन है कि वीडियो में बने रहे एक बार फिर से सभी साथियों को हृदय की गहराइयों से सादर जय भीम आपसे हमे उम्मीद है कि जो साथीगण अभी तक चैनल को subscribe नहीं किए है वें सभी साथी चैनल को subscribe करके हमे सपोर्ट करते हुए अपना बहुमूल्य योगदान दे 

साथियों सबसे पहले हम बात करेंगे एक मुस्लिम महिला मुमताज़ शेख की 

बाबा साहब आंबेडकर के बचपन के जर्जर होते स्कूल की जिसमे आज भी गरीब बच्चे पढ़कर बाबा साहेब के कारवां को बढ़ाने में लगे हुए है 

उसके बाद भीमा कोरेगांव और बाबा साहेब की घटना की 

इसी कर्म में आगे गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर जी के कुछ खास fact पर विचार 

6 दिसंबर 1956. की वह घटना जब सारा देश रोया था बाबा साहेब अंबेडकर कुछ खास पहलू 





आंबेडकर और मैं: 'कभी जय भीम बोलने में भी शर्म आती थी' 

"मैं बाबा साहेब के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती थी. बस उतना ही पता था जो स्कूली किताबों में सीखा था. पहले तो मैं जय भीम कहने में भी शर्म महसूस करती थी. मुझे लगता था कि वह दलितों के 'कोई' हैं जिन्होंने दलितों के लिए संविधान लिखा है. लेकिन अब मैं गर्व के साथ जय भीम बोलती हूं. और मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं."


ये शब्द उस महिला के हैं जिन्होंने तमाम दुश्वारियों को झेलते हुए अपनी और अपने जैसी कई महिलाओं की ज़िंदगियों में बदलाव लाने की कोशिशें कीं.


इनका नाम मुमताज़ शेख है.


एक ग़रीब मुस्लिम परिवार में जन्म लेने वाली मुमताज़ शेख जब सिर्फ सात साल की थीं तो उनका परिवार काम की तलाश में मुंबई आ गया.


इसके बाद नौवीं कक्षा तक पढ़ाई के बाद बस 15 साल की उम्र में मुमताज़ शेख़ की शादी कर दी गई.

मुमताज़ बताती हैं, "मैं नौवीं कक्षा में फेल हो गई. इसके बाद 15 साल की होते ही मेरी शादी हो गई. अगले ही साल मैंने एक बेटी को जन्म दिया. मैं हमेशा सोचती हूं कि मेरी ज़िंदगी की कहानी कितनी फ़िल्मी रही है. मतलब...मेरी शादी हो गई, बेटी हो गई और मुझे लगा कि अब ये हैप्पी एंडिंग होगी. लेकिन ऐसा होना नहीं लिखा था."


जब एक एनजीओ ने बदली ज़िंदगी

मुमताज़ बताती हैं, "ये साल 2000 की बात है. हम सहयाद्रि नगर इलाके में रहते थे और वहीं कोरो (कमेटी ऑफ़ रिसॉर्स ऑर्गनाइजेशन) नाम की एक एनजीओ किसी सर्वे के लिए आई थी. मैं उन्हें अपने घर की खिड़की से देखा करती थी. मुझे बिना पूछे घर से निकलने की इज़ाजत नहीं थी, पानी लाने या शौचालय के लिए भी नहीं. मैं जानना चाहती थी कि आख़िर ये एनजीओ वाले लोग कर क्या रहे हैं. और फिर एक दिन मैं चुपके से उनकी मीटिंग अटेंड करने पहुंच गई."


जब मुमताज इस मीटिंग में पहुंची तो उन्होंने एक समाजसेवी को ये कहते सुना कि वह मुमताज की बस्ती में पानी और बिज़ली की समस्या का समाधान करने जा रहे हैं.

मैंने जब महेंद्र रोकाडे को ये कहते सुना तो मैं अचरज में पड़ गई कि ये हमारी बस्ती है तो ये क्यों काम कर रहे हैं. और मैंने ये सवाल पूछ भी लिया. इसके जवाब में उन्होंने कहा कि आप भी काम कर सकती हैं."


मुमताज कहती हैं कि ये लगता है कि ये कल की बात हो और इससे उनके जीवन को एक चुनौती मिली. इसके बाद उन्होंने परिवार की ओर से सामने आने वाली तमाम परेशानियों से जूझते हुए नौवीं से आगे की पढ़ाई करना शुरू किया.


जब पता चला कि संविधान क्या होता है?

इस संस्था के साथ काम करते हुए मुमताज को भारतीय संविधान और उसमें महिलाओं को मिले अधिकारों के बारे में पता चला.


वह बताती हैं, "संविधान में लिखा है कि सभी (महिला-पुरुष) एक समान हैं और इस बात ने उन्हें अपनी ज़िंदगी को देखने का एक नया नज़रिया दिया."

मेरी संस्था ने मुझे शिकायतों को सुलझाने की ज़िम्मेदारी दी थी. वहां पर एक परिवार आया जिनमें पति-पत्नी के बीच तनाव चल रहा था. मैंने उनसे कहा कि आपको एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए, किसी तरह की हिंसा नहीं होनी चाहिए. हम सब एक बराबर हैं. इतने में पति बोल उठा कि तुम हमें क्या समझा रही हो, अपने घर में देखो क्या हो रहा है. इस कमेंट ने मेरे तन बदन में आग लगा दी. मैं गुस्सा थी लेकिन मुझे पता था कि वो सही हैं. क्योंकि अगर मैं खुद अपने घर में इसका पालन नहीं कर सकती तो दूसरों को क्या सलाह दूं."


यही वो मोड़ था जब मुमताज़ शेख के असली युद्ध की शुरुआत हुई.

जब तलाक़ ही बचा रास्ता

उन्होंने अपने परिवार को समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई कुछ न माना. उनके ससुराल वाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि जिस लड़की ने बचपन से घरेलू हिंसा पर कुछ नहीं कहा, वो अब क्यों अपनी आवाज़ उठा रही है.


इस बीच उन्होंने खुला जैसी परंपरा के रास्ते तलाक लेने के बारे में विचार किया. इसके एक साल बाद उन्होंने अपने पति से तलाक़ ले लिया.

इसके बाद कुछ समय बाद उन्होंने अपने साथ काम करने वाले एक साथी कर्मचारी से शादी कर ली.

आंबेडकर बने प्रेरणा स्रोत

मुमताज़ शेख ने इस संस्था में काम करते हुए कई परियोजनाओं में काम किया. लेकिन जिस काम से उन्हें प्रसिद्धि मिली वो राइट-टू-पी प्रोजेक्ट था. इस काम के तहत उन्होंने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के लिए संघर्ष किया.


मुमताज़ मानती हैं कि उनके अब तक सफर की प्रेरणा बाबा साहेब आंबेडकर रहे हैं.


वह कहती हैं, "मैंने उनकी कई तस्वीरें देखी हैं लेकिन मेरे पास एक तस्वीर है जो आपको उनकी शख़्सियत से इश्क करने पर मजबूर कर देती है. इस तस्वीर में उनकी बोलती हुई आंखें हैं. वह सब कुछ देखती है और मुझे संघर्ष करने की शक्ति देती हैं. मेरे पास बोलने की जो भी शक्ति है वो आंबेडकर की वजह से हैं."


आपने देखा आंबेडकर का जर्जर होता स्कूल?

7 नवंबर 1900 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पहली कक्षा में दाख़िला लिया था.


डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 7 नवंबर 1900 को सतारा के सरकारी स्कूल मे दाख़िला लिया था. यह दिन महाराष्ट्र सरकार द्वारा स्कूल प्रवेश दिन के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन पर बीबीसी द्वारा फोटो फ़ीचर की ख़ास पेशकश. आज ये स्कूल प्रताप सिंह हाई स्कूल नाम से जाना जाता है. उस वक्त यह स्कूल पहली से चौथी तक था. चौथी कक्षा तक आंबेडकर इसी स्कूल में पढ़े.



सतारा सरकारी स्कूल राजवाडा इलाके में एक हवेली (वाडा) में चलता था. आज भी ये हवेली इतिहास की गवाह है. 1824 में छत्रपती शिवाजी महाराज के वारिस प्रताप सिंह राजे भोसले ने इसे बनावाया था. उस वक्त राजघराने की लड़कियों को पढ़ाने के लिए यहां स्कूल खोला गया. 1851 में यह हवेली स्कूल के लिए ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दी गई.



डॉ. आंबेडकर के पिताजी सुभेदार रामजी सकपाल आर्मी से रिटायर्ड होने के बाद सतारा में बस गये थे. वहीं पर 7 नवंबर 1900 को 6 साल के भिवा (आंबेडकर का बचपन का नाम) ने सातारा गवर्नमेंट स्कूल में दाखिला लिया. सुभेदार रामजी ने स्कूल में दाखिल करते वक्त आंबेडकर का सरनेम आंबडवे गांव के नाम से आंबडवेकर लिख दिया. उस स्कूल में कृष्णाजी केशव आंबेडकर शिक्षक थे. उनका सरनेम आंबेडकर उनको दिया गया.



स्कूल के रजिस्टर में भिवा आंबेडकर ऐसा नाम दर्ज है. रजिस्टर में 1914 इस नंबर के आगे उनका हस्ताक्षर है. यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ स्कूल में संरक्षित करके रखा गया है.

स्कूल को 100 साल पूरे होने पर 1951 में इस स्कूल का नाम छत्रपति प्रताप सिंह हाई स्कूल रखा गया.

10वीं कक्षा में पढ़ने वालीं पल्लवी रामचंद्र पवार कहती हैं, “भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर जिस स्कूल में पढ़े उसी स्कूल में मैं पढ़ रही हूं इसका मुझे अभिमान है. हर साल स्कूल में आंबेडकर जयंती, स्कूल प्रवेश दिन जैसे प्रोग्राम होते हैं. इन प्रोग्राम में मेहमान भाषण में बताते हैं कि बाबा साहेब किन मुश्किल हालातों मे पढ़े. मैं भी वह हालात समझ सकती हूं. मेरी माँ घरेलू कामकाज करती हैं और पिताजी पेंटर हैं. मुझे बड़ा होकर डीएम बनना है.”

विराज महिपती सोनावाले 10वी कक्षा में पढ़ते हैं. वह कहते हैं, “मैं सुबह अख़बार बेचकर स्कूल में पढ़ने आता हूं. उस वक्त मुझे बाबा साहेब का संघर्ष अपनी आँखों के सामने दिखता है. मैं अपने मन में कहता हूं की मेरी मेहनत उनके सामने कुछ भी नहीं. मैं बाबा साहेब के स्कूल में पढ़ता हूं इसकी मुझे खुशी है. बाबा साहेब की तरह मुझे भी समाज के लिए काम करना है.”

स्कूल की प्रधानाचार्य एस जी मुजावर कहती हैं, “प्रताप सिंह हाई स्कूल में ग़रीब, ज़रूरतमंद तबके से छात्र मेहनत करके सीखते हैं. आंबेडकर की विरासत को हम संरक्षित कर रहे हैं इसकी हमें खुशी है. लेकिन इस स्कूल को फुल टाईम हेडमास्टर की ज़रूरत है. स्कूल बिल्डिंग पुरानी हो चुकी है और जर्जर होती जा रही है. हमें नये बिल्डिंग की ज़रूरत है. स्कूल मे छात्रों की संख्या बढ़ाने की हम कोशिश कर रहे हैं.

लोक निर्माण विभाग ने कुछ साल पहले स्कूल की बिल्डिंग को ख़तरनाक बिल्डिंग की श्रेणी में डाल दिया था और उसकी जगह बदलने की सिफारिश की है. यह पुरानी हवेली ऐतिहासिक धरोहर करके नामित हुई है.

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महारों ने पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई 1818 में की थी. अंग्रेज़ो की महार रेजीमेंट ने इस लड़ाई जमकर बहादुरी दिखाई थी. भीमा-कोरेगांव में जो विजय स्तंभ है उस पर इस रेजीमेंट के लोगों के नाम हैं.


बाबा साहेब आंबेडकर जब 1927 में वहां गए तो ये सारी चीज़ें वहां देखीं. आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन चाहने वाले नेता थे. उन्होंने देखा कि 1818 के बाद का जो इतिहास है उसमें दलितों के लिए भीमा-कोरेगांव एक प्रतीक बन सकता है. उन्होंने इस लड़ाई को प्रतीक बनाया.


हम इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि बाबा साहेब आंबेडकर के साथ जिन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया वो महार ही थे. महार रेजीमेंट के पहले इस समाज को कभी जीत का अहसास तक नहीं था. बाबा साहेब इनके मन में स्वाभिमान और अस्मिता पैदा करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने इस लड़ाई और जीत को एक प्रतीक बनाया 

ज़ाहिर है इसे एक सकारात्मक प्रतीक के रूप में देखना चाहिए. महार समाज बिल्कुल ग़रीब है. उसे आज भी न्याय नहीं मिल रहा. पेशवा के निरंकुश राज को भला कोई कैसे भूल सकता है. उस राज में दलित अछूत थे.


इस अछूत समाज में अगर चेतना पैदा करनी है, अस्मिता पैदा करनी है तो कोई भी अच्छा नेता स्वाभिमान जगाने के लिए एक प्रतीक खड़ा करेगा. यह प्रतीक इतिहास में होगा, ऐतिहासिक होगा. आंबेडकर ने उसी प्रतीक को खड़ा कर चेतना को झकझोड़ा. ये महज़ लड़ाई की बात नहीं है. इस लड़ाई के बाद विश्व युद्ध हुआ था.


पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती बंद कर दी गई थी. बाबा साहेब आंबेडकर के पिता रामजी आंबेडकर आर्मी में थे. ब्रिटिश आर्मी में महारों की भर्ती फिर से शुरू कराने के लिए लोगों ने अभियान चलाया. इस अभियान के तहत लोग ब्रिटिश अधिकारियों के पास ज्ञापन लेकर गए थे और इसमें रामजी आंबेडकर भी शामिल थे.

बाबा साहेब जानते थे कि इस लड़ाई का महत्व क्या है. इनकी मेहनत ने रंग भी लाई. दूसरे विश्व युद्ध के पहले अंग्रेज़ों ने महार रेजिमेंट को फिर से शुरू किया. महार सेना में फिर से भर्ती होने लगे. ये प्रतीक भले सामाजिक है, लेकिन इससे दलितों की रोजी-रोटी भी जुड़ी हुई है. उस वक़्त महारों का शोषण चरम पर था.


जब ये आर्मी में गए तो इन्हें सम्मान मिला. बाबा साहेब जानते थे कि जो महार भाई आर्मी में काम कर रहे हैं उनके भीतर स्वाभिमान जाग गया है. इसी स्वाभिमान का इस्तेमाल बाबा साहेब ने किया. इसमें क्यों किसी को समस्या होनी चाहिए. ये तो अच्छी बात है. आज़ादी के आंदोलन में भी गांधी जी ने ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल किया था.


ऐसा ही बाबा साहेब आंबेडकर ने किया. साल 1927 से लेकर आज तक भीमा-कोरेगांव में कोई समस्या नहीं हुई थी. 1990 से लेकर आज तक 27 साल हो गए और भीमा-कोरेगांव में हज़ारों आंबेडकरवादी और दलित जाते हैं. भीमा-कोरेगांव एक तरह से तीर्थस्थल बन गया है. अभी तक वहां सब कुछ शांति से हो रहा था.

बरसी पर वहां दुकाने खुल जाती हैं. लोग अच्छा कमा लेते हैं. स्थानीय लोग भी ख़ुश रहते हैं. आख़िर इस साल ही विवाद क्यों हुआ? इसी साल 200 साल पूरे होने वाले थे. इस बार प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व में विशाल मार्च निकाल गया था. इस मार्च का समापन शनिवार वाड़ा पर होने वाला था.


इसमें विवादित मुद्दा यही है कि शनिवारावाड़ा पेशवा का वाड़ा है. शनिवार वाड़ा ब्राह्मणों के राज का एक प्रतीक है. वहां दलितों के जुटने पर आपत्ति थी. इसी आपत्ति को हवा देकर दंगा भड़काया गया. 1927 में जो आंबेडकर ने शुरू किया उसके बाद से आज भी दलितों के लिए यह जीत बहुत मायने रखती है.


साल 1927 में भीमा-कोरेगांव जाने के बाद बाबा साहेब ने पानी के लिए आंदोलन किया था. उसके बाद उन्होंने मंदिर में प्रवेश का आंदोलन शुरू किया था. आज भी दलित स्वाभिमान की बात की जाती है तो इतिहास में 1818 को की तरफ़ देखा जाता है. इसलिए इसे भूलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. आर्मी में जो दलित हैं वो भी वहां जाते हैं.

महार से जो बौद्ध बने हैं वो भी भीमा-कोरेगांव जाते हैं. कम से कम एक से डेढ़ लाख लोग वहां हर साल जमा होते हैं. सवाल यह है कि हमारे इतिहास में दलितों के लिए क्या कोई जगह नहीं है? सारा इतिहास क्या सवर्ण ही लिखेंगे? बाबा साहेब के जाने के बाद भी यह यात्रा बंद नहीं हुई थी.


2014 के आम चुनाव में बहुत सारे दलितों ने मोदी को वोट किया था. भीमा-कोरेगांव में दलितों से जुड़ा इतना बड़ा प्रतीक है वहां मोदी क्यों नहीं गए? मुख्यमंत्री फडणवीस वहां क्यों नहीं गए? अगर समाज दलित स्वाभिमान को स्वीकार करता तो वहां हमले नहीं होते. लोग इसमें पहचान की राजनीति की बात कह रहे हैं.


लेकिन यह भी सच है कि पहचान की राजनीति हमेशा ग़लत नहीं होती है. अगर आप सकारात्मक प्रतीक के साथ पहचान की राजनीति करते हैं तो उसका फ़ायदा ही मिलता है. पिछले 50-60 सालों में दलितों में आरक्षण के ज़रिए एक किस्म की चेतना आई है. इनके बीच एक मध्य वर्ग तैयार हुआ है. इनके पास पैसे आए हैं.

पर दलित सांस्कृतिक पहचान की उपेक्षा क्यों करेंगे? वो संस्कृति और इतिहास में भी अपने हिस्से की तलाश कर रहे हैं. यह बिल्कुल ही सकारात्मक अस्मिता की राजनीति है. इतने दशकों बाद भी दलितों को अपना हक़ नहीं मिला है.


डॉक्टर राममनोहर लोहिया कहते थे कि अगर दलितों को उनका हक़ देना है तो सवर्णों को मानना होगा कि उन्होंने अन्याय किया है.


आज लोग सड़क पर क्यों हैं? इसलिए हैं कि आरक्षण रद्द करने की बात कही जा रही है. संविधान बदलने की बात कही जा रही है. इसका संदेश क्या जाता है? इसे भारतीय जनता पार्टी ने भी हवा दी है. इन्हीं सारे विवादों के दौरान बीजेपी सांसद ने संविधान बदलने की बात कही थी. आरएसएस वाले कभी-कभी आरक्षण बंद करने की बात करते हैं.

इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में ऐसे बयानों की भी भूमिका है. महाराष्ट्र में बौद्ध नौ फ़ीसदी हैं. ब्राह्मणों के बाद सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा समुदाय बौद्धों का है. ये बौद्ध पहले महार ही थे. इन महारों ने आंबेडकर के साथ ही अपना धर्म बदला था. पढ़े-लिखे होने के बावजूद इन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वो मिला नहीं.


इस धर्मांतरण से दलितों के बीच बड़ा बदलाव आया है. इस आंदोलन से बीजेपी और शिव सेना में डर है. पहले महाराष्ट्र में दलितों की रिपब्लिकन पार्टी थी. रिपब्लिकन पार्टी में विभाजन हुआ और अठावले ने अलग पार्टी बना ली. दलितों को साथ लिए बिना किसी भी पार्टी की राजनीति आगे नहीं जा सकती है. इस बात को हर पार्टी जानती है.


महाराष्ट्र की हर पार्टी में दलित हैं. दलितों में बौद्ध नौ फ़ीसदी हैं और ग़ैरबौद्ध भी बड़ी संख्या में हैं. महाराष्ट्र में दलित कम से कम 15 से 16 फ़ीसदी हैं. अगर दलित भड़कते हैं तो शिव सेना और बीजेपी के लिए इनसे वोट लेना आसान नहीं होगा. 2014 के आम चुनाव में दलितों ने कांग्रेस और एनसीपी के ख़िलाफ़ वोटिंग की थी.

बीजेपी में एक समूह ऐसा भी है जो चाहता था कि भिमा-कोरेगांव जाना चाहिए. कुछ अतिवादियों से इस हमले को कराया गया है. इसमें मराठा युवकों को भड़काया गया. ध्रुवीकरण की कोशिश की गई. अगर ये मराठा बनाम दलित हो जाता तो पूरे महाराष्ट्र में ध्रुवीकरण होता. ज़ाहिर है इसका फ़ायदा बीजेपी को मिलता.


पिछले तीन सालों में महाराष्ट्र सरकार ने कुछ काम नहीं किया है. ऐसे में बीजेपी के लिए इस तरह का ध्रुवीकरण उसके हक़ में होगा. किसान भड़के हुए हैं. मराठा आरक्षण मांग रहे हैं. ये बिल्कुल सोची-समझी राजनीति है. महाराष्ट्र में पेशवा घराने का कोई मतलब नहीं है. पेशवा राज में जो दूसरा बाजीराव था वो बहुत ही निरंकुश शासक था.


जब वो ब्रिटिश राज में हारा तो महाराष्ट्र छोड़कर कर्नाटक भाग गया था. महाराष्ट्र में पेशवा को लेकर कोई प्रतिष्ठा जैसी बात नहीं है. महाराष्ट्र में पेशवाई आ गई मतलब अत्याचार आ गया है माना

 जाता है. पेशवाई का मतलब अत्याचार से है.

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दिलचस्प बात है कि भारत की दो महान शख्सियतों भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच कभी नहीं बनी. दोनों के बीच कई मुलाकातें हुई लेकिन वो अपने मतभेदों को कभी पाट नहीं पाए.


आज़ादी से दो दशक पहले आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने ख़ुद को स्वतंत्रता आंदोलन से अलग कर लिया था. वो अछूतों के प्रति गांधी के अनुराग और उनकी तरफ से बोलने के उनके दावे को जोड़-तोड़ की रणनीति मानते थे.


जब 14 अगस्त 1931 को गांधी से उनकी मुलाक़ात हुई, तो गांधी ने उनसे कहा "मैं अछूतों की समस्याओं के बारे में तब से सोच रहा हूँ जब आप पैदा भी नहीं हुए थे. मुझे ताज्जुब है कि इसके बावजूद आप मुझे उनका हितैशी नहीं मानते?"


धनंजय कीर आंबेडकर की जीवनी 'डॉक्टर आंबेडकर: लाइफ़ एंड मिशन' में लिखते हैं, "आम्बेडकर ने गांधी से कहा अगर आप अछूतों के ख़ैरख़्वाह होते तो आपने कांग्रेस का सदस्य होने के लिए खादी पहनने की शर्त की बजाए अस्पृश्यता निवारण को पहली शर्त बनाया होता."


"किसी भी व्यक्ति को जिसने अपने घर में कम से कम एक अछूत व्यक्ति या महिला को नौकरी नहीं दी हो या उसने एक अछूत व्यक्ति के पालनपोषण का बीड़ा न उठाया हो या उसने कम से कम सप्ताह में एक बार किसी अछूत व्यक्ति के साथ खाना न खाया हो, उसे कांग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी. आप ने कभी भी किसी ज़िला कांग्रेस पार्टी के उस अध्यक्ष को पार्टी से निष्कासित नहीं किया जो मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का विरोध करते देखा गया हो."



26 फ़रवरी 1955 में जब बीबीसी ने आंबेडकर से गांधी के बारे में उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, ''मुझे इस बात पर काफ़ी हैरानी होती है कि पश्चिम के देश गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं?''


उन्होंने कहा, "जहाँ तक भारत की बात है तो वो देश के इतिहास का एक हिस्सा भर हैं, नए युग का निर्माण करने वाले व्यक्ति नहीं. गांधी की यादें इस देश के लोगों के ज़हन से जा चुकी हैं."



शुरू से ही भेदभाव का शिकार हुए आंबेडकर

बचपन से ही अपनी जाति के कारण आंबेडकर को लोगों के भेदभाव का शिकार होना पड़ा.


1901 में जब वो अपने पिता से मिलने सतारा से कोरेगाँव गए तो स्टेशन से बैलगाड़ी वाले ने उन्हें ले जाने से इनकार कर दिया. दोगुने पैसे देने पर वो इस बात के लिए राज़ी हुआ कि नौ साल के आंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी चलाएंगे और वो पैदल उनके साथ चलेगा.


1945 में वायसराय की काउंसिल के लेबर सदस्य के रूप में भीमराव आंबेडकर उड़ीसा (आज का ओडिशा) के पुरी में मौजूद जगन्नाथ मंदिर गए तो उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया.


उसी साल जब वो कलकत्ता (आज का कोलकाता) में मेहमान के तौर पर एक शख़्स के यहां गए तो उसके नौकरों ने ये कहते हुए उन्हें खाना परोसने से इंकार कर दिया कि वो महार जाति से हैं.


शायद यही सब कारण थे जिनकी वजह से आंबेडकर ने अपनी जवानी के दिनों में जाति व्यवस्था की वकालत करने वाली मनुस्मृति को जलाया था.



आंबेडकर अपने ज़माने में भारत के संभवत: सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे. उन्होंने मुंबई के मशहूर एलफ़िस्टन कॉलेज से बीए की डिग्री ली थी. बाद में उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी.


शुरू से ही वो पढ़ने, बागवानी करने और कुत्ते पालने के शौक़ीन थे. कहा जाता है कि उस ज़माने में उनके पास देश में क़िताबों बेहतरीन संग्रह था. मशहूर क़िताब 'इनसाइड एशिया' के लेखक जॉन गुंथेर ने लिखा है कि "1938 में जब राजगृह में आंबेडकर से मेरी मुलाक़ात हुई थी तो उनके पास आठ हज़ार क़िताबें थीं. उनकी मौत के दिन तक ये संख्या बढ़ कर 35,000 हो चुकी थी."


बाबासाहेब आंबेडकर के निकट सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री अपनी क़िताब 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "मैं रविवार 20 दिसंबर, 1944 को दोपहर एक बजे आंबेडकर से मिलने उनके घर गया. उन्होंने मुझे अपने साथ जामा मस्जिद इलाक़े में चलने के लिए कहा. उन दिनों वो पुरानी क़िताबें खरीदने का अड्डा हुआ करता था."


"मैंने उनसे कहने की कोशिश की कि दिन के खाने का समय हो रहा है लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ. जामा मस्जिद में उनके होने की ख़बर चारों तरफ़ फैल गई और लोग उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगे. इस भीड़ में भी उन्होंने विभिन्न विषयों पर क़रीब दो दर्जन क़िताबें ख़रीदीं. वो अपनी क़िताबें किसी को भी पढ़ने के लिए उधार नहीं देते थे. वो कहा करते थे कि अगर किसी को उनकी किताबें पढ़नी हैं तो उसे उनके पुस्तकालय में आकर पढ़ना चाहिए."



क़िताबों के लिए दीवानापन

करतार सिंह पोलोनियस ने चेन्नई से प्रकाशित होने वाले 'जय भीम' के 13 अप्रैल, 1947 के अंक में लिखा था, "एक बार मैंने बाबा साहेब से पूछा था कि आप इतनी सारी क़िताबें कैसे पढ़ पाते हैं. उनका जवाब था, लगातार क़िताबें पढ़ते रहने से उन्हें ये अनुभव हो गया था कि किस तरह क़िताब के मूलमंत्र को आत्मसात कर उसकी फ़िज़ूल की चीज़ों को दरकिनार कर दिया जाए."


"उन्होंने मुझे बताया था कि तीन क़िताबों का उनके ऊपर सबसे अधिक असर हुआ था. पहली थी 'लाइफ़ ऑफ़ टॉलस्टाय', दूसरी विक्टर ह्यूगो की 'ले मिज़राब्ल' और तीसरी थॉमस हार्डी की 'फ़ार फ़्रॉम द मैडिंग क्राउड.' क़िताबों को लेकर उनका प्यार इस हद तक था कि वो सुबह होने तक क़िताबों में ही लीन रहते थे."


आंबेडकर को जब रामनवमी के रथ में हाथ नहीं लगाने दिया गया

गांधी को क्या वाक़ई ग़लत आंकते थे आंबेडकर?


आंबेडकर के एक और अनुयायी नामदेव निमगड़े अपनी क़िताब 'इन द टाइगर्स शैडो: द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन आंबेडकराइट' में लिखते हैं, "एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप इतना लंबे समय तक पढ़ने के बाद अपना 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन किस तरह करते हैं. उनका जवाब था कि मेरे लिए 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन का मतलब एक विषय को छोड़ दूसरे विषय की क़िताब पढ़ना."


निमगड़े लिखते हैं, "रात में आंबेडकर क़िताब पढ़ने में इतना खो जाते थे कि उन्हें बाहरी दुनिया का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था. एक बार देर रात मैं उनकी स्टडी में गया और उनके पैर छूए. किताबों में डूबे आंबेडकर बोले, 'टॉमी ये मत करो.' मैं थोड़ा अचंभित हुआ. जब बाबा साहेब ने अपनी नज़रें उठाई और मुझे देखा तो वो झेंप गए. वो पढ़ने में इतने ध्यानमग्न थे कि उन्होंने मेरे स्पर्श को कुत्ते का स्पर्श समझ लिया था."



टॉयलेट में अख़बार और क़िताबें पढ़ना था पसंद

आंबेडकर के लाइब्रेरियन के रूप में काम करने वाले देवी दयाल ने अपने लेख 'डेली रुटीन ऑफ़ डॉक्टर आंबेडकर' में लिखा है, "आंबेडकरअपने शयनकक्ष को अपनी समाधि समझते थे. बाबासाहेब अपने बिस्तर पर अख़बार पढ़ना पसंद करते थे. एक-दो अख़बारों को पढ़ने के बाद वो बाक़ी अख़बारों को अपने साथ टॉयलेट ले जाते थे. कभी-कभी वो अख़बार और क़िताबें टॉयलेट में छोड़ देते थे. मैं उनको वहाँ से उठा कर उनकी तय जगह पर रख देता था."


आंबेडकर की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर लिखते हैं, "आंबेडकर पूरी रात पढ़ने के बाद भोर के वक्त सोने के लिए जाते थे. सिर्फ़ दो घंटे सोने के बाद वो थोड़ी कसरत करते थे. उसके बाद वो नहाने के बाद नाश्ता किया करते थे."


"अख़बार पढ़ने के बाद वो अपनी कार से कोर्ट जाते थे. इस दौरान वो उन क़िताबों को पलट रहे होते थे जो उस दिन उनके पास डाक से आई होती थीं. कोर्ट समाप्त होने के बाद वो क़िताब की दुकानों का चक्कर लगाया करते थे और जब वो शाम को घर लौटते थे तो उनके हाथ में नई क़िताबों का एक बंडल हुआ करता था.


जहाँ तक बागवानी का सवाल है दिल्ली में उनसे अच्छा और देखने वाला बगीचा किसी के पास नहीं था. एक बार ब्रिटिश अख़बार डेली मेल ने भी उनके गार्डन की तारीफ़ की थी.


वो अपने कुत्तों को भी बहुत पसंद करते थे. एक बार उन्होंने बताया था कि किस तरह उनके पालतू कुत्ते की मौत हो जाने के बाद वो फूट-फूट कर रोए थे.



खाना बनाने के शौकीन


कभी-कभी छुट्टियों में बाबासाहेब खुद खाना भी बनाते थे और लोगों को अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित करते थे.


देवी दयाल लिखते हैं, "3 सिंतबर, 1944 को उन्होंने अपने हाथ से खाना बनाया. उन्होंने सात पकवान बनाए. इसे बनाने में उन्हें तीन घंटे लगे. उन्होंने खाने पर दक्षिण भारत अनुसूचित जाति फ़ेडेरेशन की प्रमुख मीनांबल सिवराज को बुलाया. वो ये सुन कर दंग रह गईं कि भारत की एक्ज़क्यूटिव काउंसिल के लेबर सदस्य ने उनके लिए अपने हाथों से खाना बनाया है."


बाबा साहेब को मूली और सरसों का साग पकाने का बहुत शौक था.


उनके साथी रहे सोहनलाल शास्त्री अपनी क़िताब 'बाबा साहेब के संपर्क में पच्चीस वर्ष' में लिखते हैं, "हम दोनों साग को खूब सारे तेल में पकाया करते थे क्योंकि उन्हें पंजाबी स्टाइल में साग बनाना पसंद था. उन्हें अपने राज्य महाराष्ट्र पर भी गर्व था. कांग्रेस पार्टी के नेताओं में लोकमान्य तिलक को वो सबसे अधिक मानते थे."


"उनका कहना था कि तिलक से अधिक तकलीफ़ किसी कांग्रेस नेता ने नहीं झेली. तिलक को छह फ़ीट चौड़ी और आठ फ़ीट लंबी कोठरी में रखा जाता था और वो ज़मीन पर सोया करते थे, जबकि जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और गांधी ने ए-क्लास से नीचे कोई सुविधा कभी स्वीकार नहीं की. अपने समकक्ष लोगों में गोविंद वल्लभ पंत के लिए उनके मन में बहुत इज़्ज़त थी. उनकी नज़र में पंत महाराष्ट्र के मूल निवासी थे. उनके पूर्वज 1857 में नाना साहेब के विद्रोह के दौरान उत्तर भारत में आ कर बस गए थे."


डॉक्टर आंबेडकर के घर में अज्ञात व्यक्तियों की तोड़फोड़

आम्बेडकर के पहले अख़बार 'मूकनायक' के सौ साल


पार्टियों में समय बरबाद करने के सख़्त ख़िलाफ़

1948 में आंबेडकर को श्रीलंका के स्वतंत्रता दिवस पर हो रहे समारोह में वहां के उच्चायोग ने आमंत्रित किया था. इस समारोह में लॉर्ड माउंटबैटन और जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे.


एन सी रट्टू अपनी किताब 'रेमिनेंसेंसेज़ एंड रिमेंबरेंस ऑफ़ डाक्टर बीआर आंबेडकर' में लिखते हैं, "जब मैंने बाबासाहेब से पूछा कि आप इस समारोह में क्यों नहीं जा रहे तो उनका जवाब था मैं वहाँ अपना बहुमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहता. दूसरे मुझे शराब पीने का शौक नहीं हैं जो इस तरह की पार्टियों में सर्व की जाती है."


अम्बेडकर को न तो नशे की किसी चीज़ का शौक था और न ही वो धूम्रपान किया करते थे. एक बार जब उन्हें खाँसी हो रही थी तो मैंने उन्हें पान खाने का सुझाव दिया. उन्होंने मेरे अनुरोध पर पान खाया ज़रूर लेकिन अगले ही सेकेंड उसे ये कहते हुए थूक दिया कि ये बहुत कड़वा है. वो बहुत साधारण खाना खाते थे जिसमें बाजरे की एक रोटी, थोड़ा चावल, दही और मछली के तीन टुकड़े हुआ करते थे.''



साथी को ओवरकोट ओढ़ाया

घर पर काम में आंबेडकर की मदद करने के लिए सुदामा नाम के एक व्यक्ति रखा गया था. एक दिन सुदामा जब देर रात फ़िल्म देख कर लौटे तो उन्होंने सोचा कि उनके घर के अंदर घुसने से बाबासाहेब के काम में विघ्न पड़ेगा. उन्हें पता था कि बाबासाहेब क़िताब पढ़ने में तल्लीन होंगे.


वो दरवाज़े के बाहर ही ज़मीन पर सो गए. आधी रात के बाद जब आंबेडकर ताज़ी हवा लेने बाहर निकले तो उन्होंने दरवाज़े के बाहर सुदामा को सोते हुए पाया. वो बिना आवाज़ किए अंदर चले गए. जब अगले दिन सुबह सुदामा की नींद खुली तो उन्होंने पाया कि बाबासाहेब ने उनके ऊपर अपना ओवरकोट डाल दिया है.



बिड़ला के दिए पैसों को अस्वीकार किया

31 मार्च 1950 को मशहूर उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला के बड़े भाई जुगल किशोर बिड़ला आंबेडकर से मिलने उनके निवासस्थान पर आए. कुछ दिनों पहले बाबासाहेब ने मद्रास में पेरियार की उपस्थिति में हज़ारों लोगों के सामने भगवतगीता की आलोचना की थी.


बाबासाहेब के सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "बिड़ला ने उनसे सवाल किया आपने गीता की आलोचना क्यों की जो कि हिंदुओं की सबसे जानीमानी धार्मिक क़िताब है? उनको इसकी आलोचना करने के बजाए हिंदू धर्म को मज़बूत करना चाहिए."


"जहां तक छुआछूत को दूर करने की बात है तो वो इसके लिए दस लाख रुपए देने के लिए तैयार हैं. इसका जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा, मैं अपने आप को किसी को बेचने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ. मैंने गीता की इसलिए आलोचना की थी, क्योंकि इसमें समाज को बांटने की शिक्षा दी गई है."



वायसराय के सामने हमेशा भारतीय कपड़ों में जाते थे आंबेडकर

बाबासाहेब अक्सर नीला सूट पहना करते थे लेकिन कुछ ख़ास मौकों पर वो अचकन, चूड़ीदार पजामा और काले जूते निकालते थे. लेकिन, जब भी वो वायसराय से मिले जाते थे, वो हमेशा भारतीय कपड़े ही पहनते थे.


घर पर वो साधारण कपड़े पहना करते थे. गर्मी में वो चार हाथ की लुंगी कमर में लपेट लेते थे. उसके ऊपर वो घुटनों तक का कुर्ता पहनते थे. विदेश में रहने के दौरान से ही वो नाश्ते में दो टोस्ट, अंडे और चाय लिया करते थे.


देवी दयाल लिखते हैं कि जब वो नाश्ता करते थे तो बाईं तरफ़ उनके अख़बार खु

ले रहते थे. उनके हाथ में एक लाल पेंसिल रहती थी जिससे वो अख़बारों की मुख्य ख़बरों पर निशान लगाया करते थे.




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